काटजू साहब की नीयत पर शक नहीं हो रहा है, उनकी समझदारी पर संदेह है। लफ़्ज 'एजेंट' का इस्तेमाल किया है तो इसका अर्थ उन्हें समझ आता होगा

आलोचना से परे तो कोई नहीं हो सकता, महात्मा गांधी जी भी नहीं, लेकिन जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने जिन शब्दों में बापू को लक्ष्य किया है वह आपत्तिजनक हैं। वे उन तथ्यों के सम्बन्ध में महात्मा की नीति और व्यवहार के सही न होने तथा उनके दुष्परिणामों के बारे में ही लिखते तो बात आपत्ति की नहीं सहमति और असहमति की होती, स्वस्थ संवाद का आमंत्रण होता। परंतु बापू को 'अंग्रेजों का एजेंट' कह कर उन्होंने गलती की है। देश चाहता है कि काटजू साहब यह साबित करें कि महात्मा का कार्य व्यवहार और नीति किसी अनुचित प्रेरणा के अधीन अंग्रेजों द्वारा निर्देशित थे, न कि उनकी अपनी स्वतंत्र अन्तश्चेतना से। यदि वे ऐसा नहीं कर पाते हैं तो उन्हें तुरंत इस राष्ट्र से क्षमा माँगनी चाहिए।
मुझे काटजू साहब की नीयत पर शक नहीं हो रहा है, उनकी समझदारी पर संदेह है। लफ़्ज 'एजेंट' का इस्तेमाल किया है तो इसका अर्थ उन्हें समझ आता होगा यह अवधारणा करनी पड़ रही है। लेकिन उल्लेख किये गए तथ्यों से उसकी पुष्टि नहीं हो रही। उन्हें साफ़ करना चाहिए कि किस आधार पर उन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया है।
देश और दुनिया ने सामान्यतः महात्मा को भारत के शुद्ध अंतःकरण की अभिव्यक्ति के रूप में जाना है। महात्मा के हत्यारे तक ने उन पर इतना गंभीर आक्षेप नहीं लगाया था। यदि काटजू साहब इसे सिद्ध कर पाते हैं तो गांधियन इरा के तौर पर जाने वाला वह समूचा कालखंड जो भारत की अभिनव और बहुआयामी राष्ट्रीय क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण भाग है, उन उपलब्धियों की पवित्रता को भी प्रश्नगत कर देगा जो इसके सुफल हैं। वस्तुतः स्वतंत्रता आंदोलन को सिर्फ और सिर्फ ब्रिटिश दासता से मुक्ति का उद्यम समझने वाले बहुत से लोग अन्य क्रन्तिकारी प्रयासों से तुलना करने में महात्मा की आलोचना करते रहे हैं। पर आप इतिहास का एकांगी अध्ययन कर ही नहीं सकते। इतिहास की उपेक्षा तो और भी खतरनाक है। गांधी के मूल्याङ्कन के किसी प्रसंग से आम जन पर क्या फर्क पड़ता है, यह प्रश्न इतिहास की उपेक्षा है। वह यदि यह सिद्ध नहीं कर पाते हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन यदि सिद्ध कर पाते हैं तो बहुत फर्क पड़ेगा। माफ़ी मांग कर जस्टिस काटजू अपने अवदान का महत्व सुरक्षित कर सकते हैं जिस अवदान का मूल्य में समझता हूँ और अन्य बहुत से लोग भी। अन्यथा की स्थिति में उन्हें बहुतों की नजर से गिरना पड़ेगा जो उन्हें अभी तक प्रगतिशील आंदोलन का सचेत या अचेत हिस्सा समझते थे।
मधुवन दत्त चतुर्वेदी
मधुवन दत्त चतुर्वेदी, लेखक ट्रेड यूनियन लीडर व वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।