कायरता छोड़ो, आगे बढ़ो उद्धव ठाकरे, जनता तो मोदी-शाह को ठुकरा चुकी है
कायरता छोड़ो, आगे बढ़ो उद्धव ठाकरे, जनता तो मोदी-शाह को ठुकरा चुकी है
कायरता छोड़ो, आगे बढ़ो उद्धव ठाकरे, जनता तो मोदी-शाह को ठुकरा चुकी है
क्या शिव सेना इतिहास की चुनौती को स्वीकार कर आगे बढ़ेगी या बीजेपी के दरवाज़े पर बंधे पालतू जीव की भूमिका अपनायेगी !
महाराष्ट्र के हाल के विधानसभा चुनाव परिणामों (Maharashtra's recent assembly election results) पर हमारी पहली प्रतिक्रिया यह थी कि “महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना की जीत बताती है कि जनता के दुख और ग़ुस्से की आवाज़ को दबाने में मोदी सरकार अब भी सफल है।”
लेकिन बहुत जल्द ही वहाँ की राजनीति ने एक नई करवट लेनी शुरू कर दी। चुनाव परिणामों का असली सच अब सीटों की संख्या के बजाय राजनीतिक दलों की गतिविधियों से ज़ाहिर होने लगा। लेकिन इसके पीछे भी सीटों के संख्या तत्व की ही प्रमुख भूमिका थी। बीजेपी-शिवसेना दोनों की ही सीटों में कमी आई थी। ख़ास तौर पर अमित शाह के सुर में सुर मिला कर पूरा मीडिया जिस प्रकार इस शासक गठबंधन को दो सौ के पार और बीजेपी को अकेले बहुमत के क़रीब पहुँचा दे रहा था, वह कोरी कपोल कल्पना साबित हुआ। कुछ सीटों पर तो लोगों ने बीजेपी की तुलना में नोटा के पक्ष में ज्यादा मत दिये। कांग्रेस और एनसीपी, दोनों की सीटें बढ़ी। बीजेपी बहुमत के लिये ज़रूरी 144 के आँकड़े से काफ़ी पीछे सिर्फ 105 में सिमट कर रह गई।
The truth was that the BJP was defeated in Maharashtra
इस प्रकार, सच यही था कि बीजेपी महाराष्ट्र में पराजित हुई थी, लेकिन सच को झूठ और झूठ को सच बनाने के खेल के आज की राजनीति के सबसे बड़ी उस्ताद जोड़ी मोदी-शाह ने बीजेपी की ‘ऐतिहासिक’ जीत का गीत गाना शुरू कर दिया, फडनवीस को दुबारा मुख्यमंत्री बनने की बधाइयाँ भी दी जाने लगी।
यही वह बिंदु था, जहां से चीजें बदलने लगीं।
बीजेपी शिवसेना के बिना सत्ता से बहुत दूर थी, लेकिन मोदी-शाह ने उसे अपना ज़रख़रीद गुलाम मान कर उसके अस्तित्व से ही इंकार का रास्ता अपना लिया था। उनका यह रवैया अकारण नहीं था। हरियाणा में साफ़ तौर पर पराजित होने पर भी दुष्यंत चौटाला नामक जीव जिस प्रकार इस जोड़ी के चरणों में गिर कर उन्हें अपनी सेवाएँ देने के लिये सामने आ गया था, उससे अपनी अपराजेयता के बारे में भ्रम का पैदा होना बिल्कुल स्वाभाविक था। यह उनकी मूलभूत राजनीतिक समझ भी है कि अब ‘मोदी बिना चुनाव लड़े ही भारत की सत्ता पर बने रहने में समर्थ है।’
जनता तो मोदी-शाह को ठुकरा चुकी है उद्धव ठाकरे ने अभिव्यक्ति दी
ऐसे मौक़े पर ही जब शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने अमित शाह के साथ सत्ता के आधार-आधे बँटवारे की बात उठाई, तभी इस बात के संकेत मिल गये थे कि जो मोहभंग जनता के स्तर पर इन चुनावों से जाहिर हुआ था, राजनीतिक दलों के स्तर पर भी वे दरारें दिखाई देने लगी है। जनता तो मोदी-शाह को ठुकरा चुकी है, बस इस सच को राजनीतिक दलों के पटल पर प्रतिध्वनित होना बाक़ी था। उद्धव ठाकरे की बातों से उसके संकेत मिले थे। मोदी-शाह की महाबली वाली झूठी छवि को तोड़ने का ऐतिहासिक क्षण तैयार हो रहा था। साफ़ लग रहा था कि हवा से फुलाए गए मोदी के डरावने रूप में सुई चुभाने का एक ऐतिहासिक काम कर सकती है शिव सेना। पर वह ऐसा कुछ करेगी,यह पूरे निश्चय के साथ कहना मुश्किल था।
बहरहाल, जब महाराष्ट्र के राज्यपाल से मुख्यमंत्री फड़नवीस और शिवसेना के नेता अलग-अलग मिले, यह साफ लगने लगा था कि मोदी के माया जाल को तोड़ने में शिव सेना की भूमिका कितनी ही संदेहास्पद क्यों न लगे, सच साबित हो सकती है।
The contradictions of reality occur from a set of other contradictions.
सचमुच, यथार्थ का विश्लेषण कभी बहुत साफ-साफ संभव नहीं होता है। यथार्थ के अन्तर्विरोध कई अन्य अन्तर्विरोधों के समुच्चयों से घटित होते हैं, जिनका अलग-अलग समुच्चयों के स्वरूप पर भी असर पड़ता हैं। जनता के बीच कोई रहेगा और शासन की छड़ी कोई और , दूर बैठा तानाशाह घुमायेगा, जनतंत्र के अंश मात्र के रहते भी इसमें दरार की संभावना बनी रहती है। लड़ाई यदि सांप्रदायिकता बनाम् धर्म-निरपेक्षता की है तो तानाशाही बनाम् जनतंत्र की भी कम नहीं है। बस यह समय की बात है कि दृश्यपट को कब और कौन कितना घेर पाता है।
किसी भी निश्चित कालखंड के लिये कार्यनीति के स्वरूप को बांध देने और उससे चालित होने की जड़सूत्रवादी पद्धति ऐसे मौक़ों पर पूरी तरह से बेकार साबित होती है। यह कार्यनीति के नाम पर कार्यनीति के अस्तित्व से इंकार करने की पद्धति किसी को भी कार्यनीति-विहीन बनाने, अर्थात् समकालीन संदर्भों में हस्तक्षेप करने में असमर्थ बनाने की आत्म-हंता पद्धति है। इस मामले में शिव सेना जन-भावनाओं के ज़्यादा क़रीब, एक ज़रूरी राजनीतिक दूरंदेशी का परिचय देती दिखाई पड़ रही है। यह शिव सेना की राजनीति के एक नये चरण का प्रारंभ होगा, भारत की राजनीति में उसकी कहीं ज़्यादा बड़ी भूमिका का चरण।
Quit the funky, go ahead Uddhav Thackeray, the public has rejected Modi-Shah
यह शिव सेना के लिये इतिहास-प्रदत्त वह क्षण है जिसकी चुनौतियों को स्वीकार कर ही वह अपने को आगे क़ायम रख सकती है। ऐसे समय में कायरता का परिचय देना उसके राजनीतिक भविष्य के लिये आत्म-विलोप के मार्ग को अपनाने के अलावा और कुछ नहीं होगा। समय की गति में ठहराव का मतलब ही है स्थगन और अंत। कोई भी अस्तित्व सिर्फ अपने बूते लंबे काल तक नहीं रहता, उसे समय की गति के साथ खुद को जोड़ना होता है।
एक केंद्रीभूत सत्ता इसी प्रकार अपना स्वाभाविक विलोम, स्वयंभू क्षत्रपों का निर्माण करती है। बड़े-बड़े साम्राज्य इसी प्रकार बिखरते हैं। यह एक वाजिब सवाल है कि क्यों कोई अपनी गुलामगिरी का पट्टा यूँ ही लिखेगा ! ऐसे में विचारधारा की बातें कोरा भ्रम साबित होती हैं।
अब तक की स्थिति में एनसीपी और कांग्रेस शिव सेना के प्रति जिस प्रकार के लचीलेपन का परिचय दे रही है, वह स्वागतयोग्य है। देश की पूर्ण तबाही के मोदी के एकाधिकारवादी राज से मुक्ति का रास्ता बहुत जल्द, शायद इसी प्रकार के नये समीकरणों से तैयार होगा।
-अरुण माहेश्वरी


