भावात्मक शस्त्र पूजा से आगे बढ़ो !
नये भारत की 'शक्ति पूजा' का इंतजाम करो !!
श्रीराम तिवारी
भारत इन दिनों चौतरफा संकट महसूस कर रहा है। प्राकृतिक आपदाएं, बाढ़, अनावृष्टि, साम्प्रदायिक उन्माद, चौपट अर्थ व्यवस्था और पाकिस्तान-चीन के कुटिल क्रिया कलापों से भारत को लगभग जूझना पड़ रहा है। दूसरी ओर राजनैतिक नेतृत्व में विचारधाराओं का नहीं स्वार्थों और सुविधाओं के वर्चस्व का टकराव परिलक्षित हो रहा है। धार्मिक नेतृत्व या तो यौन-शोषण, अर्थ संग्रह और घोर लफ्फाजी में व्यस्त है या राजनीति पर अपना वर्चस्व कायम करने के मंसूबे बाँध रहा है। कुछ राजनैतिक नेता और पार्टियाँ भी साम्प्रदायिकता की राजनीति करते हुये सत्ता प्राप्ति की ओर अग्रसर हैं।

खबर है कि नरेन्द्र मोदी ने इस दशहरे पर शस्त्र पूजा की है, वैसे तो यह कोई विशेष खबर नहीं है। किन्तु विशेष बात ये है कि इस दफा ही मीडिया ने हाई लाईट क्यों किया है ? जबकि इससे पहले भी वे शस्त्र पूजा बनाम 'शक्ति पूजा' करते आये हैं। अधिकाँश हिन्दू धर्मावलम्बी भी यही करते हैं। 'संघ परिवार' तो शिद्दत से दशहरे पर शक्ति प्रदर्शन बनाम शस्त्र पूजा अर्थात् "शक्ति पूजा' के लिये कटिबद्ध रहता है। वेशक एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक देश होते हुये भारत में सभी धर्म-मजहब को अपने तौर -तरीके से ईश-उपासना की छूट हासिल है। यह भारतीय लोकतंत्र की शानदार पहचान है। शायद नरेन्द्र मोदी के शस्त्र पूजन इत्यादि धार्मिक सरोकारों की चर्चा भी नहीं होती यदि वे गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रस्तावित 'पी एम् इन वेटिंग' न होते। किन्तु व्यक्ति जब धर्म -मजहब को राजनीति की सीढ़ी बनाकर निहित स्वार्थों के निमित्त उसे चौराहे पर ला खड़ा करता है तो 'धर्म' मजहब या पंथ साम्प्रदायिकता का क्रूर शस्त्र बन जाया करता है। इस घातक शस्त्र से किसी का भला नहीं होता। इतिहास साक्षी है-अल्पसंख्यक तो क्या बहुसंख्यक भी अपने ही स्वनिर्मित तानाशाहों के क्रूर 'दमन चक्र' से बच नहीं पाये।

चूँकि दशहरे अर्थात् विजयादशमी पर्व पर शास्त्रों- पुराणों द्वारा हिन्दू समाज को इस अवसर पर दोहरी विजय का एहसास कराया जाता है। एक पुरातन यानी पौराणिक आख्यान है कि देवताओं ने नौ दिनों तक देवी दुर्गा अर्थात 'शक्ति' का आह्वान किया था जिसने शुम्भ- निशुम्भ, महिषासुर इत्यादि का नाश किया था। उस घटना की याद में विजयादशमी त्यौहार मनाया जाता है। दूसरी घटना में इसी दिन अयोध्या नरेश दशरथ नंदन श्रीराम ने लंकापति रावण का संहार किया था और उसी की याद में दसहरा मनाया जाता है। काली पूजन अर्थात् "शक्ति पूजा" और रावण दहन भी शायद इन्ही पौराणिक कथाओं से प्रेरित है। भारत के सनातन समाज द्वारा ज्ञात इतिहास में वीरों को व उनके शस्त्रों को देवतुल्य दैवीय सम्मान दिया जाता रहा है। चक्र सुदर्शन, गदा, वज्र, पोनाकि, त्रिशूल, खडग्,परशु, गांडीव, सारंग इत्यादि शस्त्रों और नागपाश,अमोघ तथा ब्रह्मास्त्र इत्यादि अस्त्रों को जितना पूज्यभाव सनातन समाज में मिला उतना शायद ही दुनिया की किसी अन्य कौम ने दिया हो। फिर भी ये विचित्र किन्तु सत्य इतिहास है की इन शस्त्र-पूजकों को सदियों तक उनका गुलाम रहना पड़ा जो शस्त्र की पूजा नहीं करते थे बल्कि उसे शान पर चढ़ाकर युद्ध के मैदान में अपने प्रतिद्वन्दी के समक्ष निर्ममता से इस्तेमाल किया करते थे। शक, हूण, कुषाण, यवन, कज्जाक, तुर्क, उज्बेग, मंगोल, पठान अर्थात् पश्चिम से जो भी आया उसने भारत को या तो लूटा है या जीतकर शासन किया है। शासित भारतीयों को हारने के बाद भक्ति मार्ग पर जाकर ईश्वर भजन में लीन होना पड़ा और आस्था के खोल में ये करुण क्रन्दन आज भी जारी है। त्यौहारों पर शस्त्र पूजा यानी 'शक्ति पूजा' उसी कायरतापूर्ण भक्तिभाव का प्रमाण है। हालाँकि इस दुखद और शर्मनाक स्थति के लिये खुद 'अंधश्रद्धा' ही जिम्मेदार है।

वैदिक परम्परा के खिलाफ उसी की कोख से जन्मे प्रमादी विद्रोहियों ने जब भारतीय उपमहादीप में नए-नए पंथ, दर्शन ईजाद किये तो आवाम और शासक दोनों दिग्भ्रमित होते चले गये। परिणाम स्वरूप युद्ध नीति, रणकौशल, राष्ट्र सुरक्षा इत्यादि विमर्श हाशिये पर चले गये। कायर लोग 'अहिंसा परमोधर्मः 'और परजीवी उपदेशक केवल भिक्षाटन को ही धम्म चक्र प्रवर्तन सिद्ध करते रहे। बचे खुचे सामंत आपस की जंग में और सुरा सुन्दरी में डूब गये। उनके टूटे -फूटे भौंथरे अस्त्र-शस्त्र केवल दशहरे की "शक्ति पूजा" के अवसर पर ही धोये-पोंछे जाने लगे। जबकि अरब, यूनान में युद्ध कौशल को विज्ञान से जोड़कर ज्यादा आक्रमक और आधुनिक बनाया जाने लगा। मध्य एशिया, तुर्की, ईरान, मंगोलिया में तोपें ढाली जाने लगीं। चीन में उम्दा तलवारबाजी समुन्नत युद्ध कला और बिना हथियार के भी लड़ने की कला "कुंग- फू", कराते,ताई क्वान्दो इत्यादि का प्रचलन होने लगा जबकि भारतीय समाज को और खास तौर से तत्कालीन राजे-रजवाड़ों को अपने कुलीन वंशानुगत अहंकार के आगे कुछ भी नहीं सुहाता था। उनका यह शस्त्र पूजक यानी 'शक्तिपूजक' भारत ही है जो विदेशी आक्रान्ताओं के द्वारा बार-बार रौंदा गया। हिन्दू लोग मंदिरों में घंटा -घड़ियाल बजाकर शक्ति की देवी दुर्गा की भाव विह्वल होकर पूजा अर्चना करते रहे, बौद्ध और जैन 'अहिंसा परमो धर्म:' का गान करते रहे और विदेशी खूंखार भेड़िये इस कुदरती नखलिस्तान को चारागाह समझ कर यहाँ चरते हुये यहाँ के शासक बन बैठे। जब उनसे बड़े शस्त्र आविष्कारक- अंग्रेजों, यूरोपियनों के हाथ साइंस के चमत्कार लगे, बंदूकें आई, तोपें आईं, रेल-डाक-तार आया भाप इंजन आया,बिजली आई तो वे भारत के भाग्य विधाता बन बैठे। जब उन पर हिटलर-मुसोलनी और तोजो ने एकीकृत अत्याधुनिक हैड्रोजन बम से हमला किया तो इन अंग्रेजों को न केवल भारत बल्कि सारा संसार ही आजाद करना पड़ा।

हालाँकि दुनिया के तमाम स्वाधीनता संग्रामों को वोल्शिविक क्रांति का बढ़ा सहारा मिला। शहीदों की कुर्वानियाँ रंग लाईं थी। आज स्वतंत्र भारत के धर्मभीरु नेता और आवाम यदि अपनी जिम्मेदारी छोडकार, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, जातीयतावाद और साम्प्रदायिता के वशीभूत होकर केवल "या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै,नमो -नम:' ही करते रहे तो अतीत की गुलामी का सिलसिला और महाविनाश रोक पाना कठिन हो जायेगा। साक्षात् 'महाकाली -कापाल कुंडला' भी कोई मदद नहीं कर पायेगी। क्योंकि मसल मशहूर है कि "ईश्वर भी उसी की मदद करता है, जो खुद की मदद करता है" विज्ञान और उन्नत तकनीकी के युग में अंधश्रद्धा का दौर भारत में आज भी जारी है। जबकि अमेरिकी पूंजीवाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर आर्थिक रूप से लगभग गुलाम और दिवालिया बना दिया है, जबकि पाकिस्तान और चीन ने अपनी सैन्य क्षमता और राष्ट्रीय जीडीपी में उल्लेखनीय बढ़त हासिल की है, जबकि दुनिया मंगल पर विजय गान करने वाली है, तब हम भारत के जन-गण अपने राष्ट्रीय दायित्व, नैतिक मूल्य और कर्तव्य भूलकर या तो "पुराने शस्त्रों' को वैदिक मन्त्रों से पूजने को अभिशप्त हैं या जिस नाव से पार उतरना है उसी में छिद्र करने में जुटे हैं।

आम तौर पर भारतीय और खास तौर से हिन्दुओं को अपने अतीत से बड़ा स्नेह और लगाव है। मानवीय सभ्यताओं में यह कोई अनोखी बात नहीं। दुनिया में सभी दूर यही चलन है। किन्तु हम भारतीय कुछ ज्यादा ही अ-संवेदनशील, पर्वप्रिय और वितण्डावादी हैं। पुरानी और ठेठ 'देहाती' कहावत है "इधर गोरी बिछौना करें, उधर गाँव जरे" यानी एक गाँव में आग लगी तो सयाने लोग- औरतें सामान समेटकर भागने लगे किन्तु नई नवेली नवविवाहिता गृहणी को इसकी चिंता नहीं वो बिस्तर लगाकर सोने की तैयारी करने लगी। उसमें इतना विवेक नहीं कि आग से जलने के हश्र का आकलन कर सके।

उधर भारत के पूर्वी समुद्र तट पर महा शैतान विनाशकारी तूफ़ान 'फिलिंन' ने धावा बोल दिया है, उसका ताण्डव जारी है, 5 लाख लोग बेघर होकर सरकारी सहायता पर जीवन के लिये संघर्ष कर रहे हैं, दक्षिण पूर्वी भारत के 7 राज्यों में हाहाकार मचा हुआ है, महावृष्टि जारी है, पेड़ गिर रहे हैं, बिजली बंद है, दूर संचार सेवायें ठप्प हैं, फसलें बर्बाद हो चुकी हैं। चारो ओर अन्धेरा है। निःसन्देह केन्द्र सरकार, सम्बंधित राज्य सरकारें, सेना, मीडिया और स्थानीय प्रशासन मुस्तैदी से इन प्रभावितों की पुरजोर मदद कर रहा है। यही वजह है कि लाखों जानें अभी तक सुरक्षित है। किन्तु उनका पुनर्वास और सम्पूर्ण व्यवस्था के इंतजाम करने में सालों लग जायेंगे। इधर शेष भारत के मुठ्ठी भर धर्मान्ध हिन्दू-नव धनाढ्य, बुर्जुआ वर्ग को किसी किस्म के तूफ़ान की परवाह नहीं है। सम्पन्नता के टापुओं पर प्रमाद के साये में 'गरबे' किये जा रहे हैं, इन त्यौहारों- पर्वों में मानवीय संवेदनाओं की संवाहकता भी विद्यमान है जो इस पूँजीवादी दौर के चरित्र में नदारद है। दमित, शोषित, मेहनतकश, वंचित और अभावग्रस्तजनों की तादाद देश में और हिन्दू समाज में सर्वाधिक है। यह वर्ग रावण दहन, आतिशबाजी और शक्ति पूजा में सभ्रांत वर्ग के संसाधनों का उत्पादनकर्ता मात्र है। इस वर्ग को इन मौकों पर उतनी ही सुखद अनुभूति हुआ करती है जितनी किसी प्यासे को; मृग मरीचिका से क्षणिक तुष्टि मिल जाया करती है। जहाँ तक लम्पट और चरित्रहीन सर्वहारा या गैर सर्वहारा की आनन्दानुभूति का प्रश्न है तो यह वर्ग भी नितान्त परजीवी और समाजद्रोही ही हुआ करता है।

दुनिया भर में शायद ही कहीं पर ऐसी प्रवंचना दृष्टव्य हो कि 'हम किसी की परवाह नहीं करते'। हम 'आर्यपुत्रों' को अपनी सांस्कृतिक विरासत पर बड़ा नाज है। हम महाबली, सूरमा और अजेय हैं। यह सकरात्मक सोच रखना ठीक है। किन्तु यह हमारे बौद्धिक अहंकार की पराकाष्टा भी है कि वीरोचित प्रतीकों या शस्त्रों की पूजा के लिये तो हम बड़े स्वनाम धन्य और आश्थावान हैं, किन्तु जब हथियार उठाकर लड़ने की बात आती है, तो पता चलता है कि सीमाओं पर पाकिस्तानी आतंकवादी हमारी फ़ौज के जवानों के सर काट ले जाते हैं। जिनसे हमें सुरक्षा की उम्मीद है यदि वे ही असुरक्षित हैं तो कैसी 'शक्ति पूजा'? चीन के 2-4 जवान यदि गलती से भी हमारी हिमालयी - बर्फीली चोटियों पर नजर आ जायें तो उनको माकूल जबाब देने के बजाय हम अपनी सामरिक क्षमता की तुलना चीन से और समष्टिगत रूप से पाकिस्तान-चीन की संयुक्त सैन्य शक्ति से करने बैठ जाते हैं। वैसे भी हमारे सेनापतियों को, अपनी जन्म तारीख बदलवाने ठेके दिलवाने, हथियारों की बड़ी डील करवाने में बहुत रूचि हुआ करती है। ये लोग रिटायर्मेंट के बाद अपने हिस्से का कर्तव्य भुलाकर सिर्फ सरकार और नेताओं को दोष देने लग जाते हैं। जबकि अव्यवस्था और नाकामी के हम्माम में कभी वे भी नंगे हुआ करते थे।

हम सरकारी तौर पर हर साल पंद्रह अगस्त, २६ जनवरी, दीवाली दशहरे पर तोप, तमंचों की धूल साफ़ कर हम "शक्ति पूजा" कर लिया करते हैं। कुछ आयातित सुखोई, मिराज और जगुवार उड़ाकर तालियाँ बजा लिया करते हैं, कभी- कभार एक आध दूरगामी मिसायल दागकर भी हम 'शक्ति प्रदर्शन' या शक्ति पूजा कर लिया करते हैं। दुनिया में यह मशहूर है कि पाकिस्तानी सेना, आई एस आई अपने राजनैतिक नियंत्रकों से नहीं बल्कि अपने 'सैन्य जनरलों' के निर्देश पर काम करते है। मैं नहीं कहता कि भारत की सेनायें भी ऐंसा ही करें। मैं यह भी नहीं चाहता कि पाकिस्तानी आदमखोर सेना यदि रात दिन अनावश्यक हरकतें करे तो भारतीय सेनायें भी ऐसा ही करे। क्योंकि पागल कुत्ता काटे तो समझदार आदमी पागल कुत्ते को पलटकर नहीं काटने लग जाता। मेरा मंतव्य है कि सेना को जो सम्मान जनता से हासिल है उस की हिफाजत की जाये। सिर्फ पुराने कीर्तिमानों का गुणगान नहीं कुछ नए उदाहरण भी पेश किये जायें। नेता, सरकार, सेना और विशेषज्ञ हथियारों की सिर्फ दैवीय पूजा नहीं बल्कि गुणवत्ता में भी निरंतर इजाफा करने की ओर अग्रसर हों। यही नए भारत की असली "शक्ति पूजा" हो सकती है।