प्रधान सेवक बनने के बाद मोदी की मन की बात का आल इंडिया रेडियो पर सीधा प्रसारण जो बाद में टेलीविजन ने सीधा प्रसारण बना लिया और रेडियो का सिर्फ नाम रह गया, खैर ये अलग बात है।
मन की बात को सुनते सुनते हममें से बहुत तो मनमोहन को याद करते हैं और कुछ काले धन को। एक बरस मोदी सरकार के बीत जाने के बाद मुझे तो कभी कभी डर लगता है कि हम सब के बैंक खाते में 15 लाख नहीं आए तो। मन की बात में महंगाई, भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था पर शायद ज्यादा ना बोले हो लेकिन स्वच्छ भारत अभियान व कालाधन वापस लाने पर विशेष ध्यान देते नजर आए।
इसमें कोई शक नहीं कि सरकार कुछ तो हरकत में काले धन को लेकर, कम से कम पिछली सरकार की तुलना में। 27 मई को पहली ही कैबिनेट बैठक में काले धन पर SIT गठित करके अपनी इच्छाशक्ति जाहिर कर चुकी है चाहे वह सुप्रीम कोर्ट के अल्टीमेटम को ध्यान में रखते हुए हो।
वैसे 1954 से अब तक 40 से ज्यादा कमेटियां काले धन को लेकर बनीं और काला धन उस समय 5 %था जो अब 2011 तक 45 % तक पहुंच गया। फिर भी सरकार के इन वार्षिक प्रयासों को नजरअंदाज करना तो नाइंसाफी ही होगा।
दिल्ली दंगल के वक्त तो कालाधन मामले ने इतना तूल पकड़ा था कि वर्तमान से लेकर पूर्व के वित्त मंत्रियों व प्रधान मंत्रियों के भाषणों, साक्षात्कारों का विश्लेषण टेलीविजन के प्राइम टाइम से लेकर अखबारों के संपादकीय में नाना प्रकार से होने लगा, परंतु कालाधन जो आने का नाम नहीं ले रहा। कुछ विश्लेषकों व विपक्षी दलों ने तो यहां तक कह दिया कि सरकार अपने कार्यकाल में विदेशों से कालाधन नहीं जा सकती।
मामला दरअसल चुनावी वायदों व घोषणा पत्रों में इस कदर फंसा हुआ है कि हम सब उसकी वास्तविक पेचीदगियों व जटिलताओं को लेकर भ्रम की अवस्था में आ गये। ये मसला है जो आजादी जितना ही पुराना लेकिन असली चुनावी जामा पहनने की शुरुआत हुई अक्टूबर 2008 की भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में, यहां से मामला उठा और यही से 2009 आम चुनाव में भाजपा के घोषणा पत्र में पहुंच गया, जिसको अडवाणी जी ने आजमाने व हथियार बनाने की खूब कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए।
बाबा रामदेव तो इस मामले को लेकर इतने गंभीर व भावुक हो गए कि पिछली सरकार के खिलाफ कई आंदोलन व कैंपेन किए, लेकिन असली मसला कहिये या जुमला 2014 के आम चुनाव से पहले मोदी जी ने कहा कि विदेश में जमा काला धन 150 दिन के भीतर देश में आ जाएगा जो अल्टीमेटम 6 महीने पहले ही पूरा हो चुका है। वैसे सच तो ये है कि विदेशी बैंकों में कुल कालाधन का 10% ही है और बचा हुआ देश में ही। वैसे सरकार कालाधन को रोकने के लिए विधेयक भी ला चुकी है। वैसे एक बात तो साफ है मुद्दा कोई भी हो विपक्ष में रहकर ही अच्छे से उठाया जा सकता है, ये साबित करने में कांग्रेस भी लगी है।
वैसे तो SIT पर संदेह व्यक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट भी सरकार पर टिप्पणी करते हुए कह चुका है कि अगर इस गति से कालाधन पर काम चलता रहा तो हम
कालाधन अपने जीवन काल में भी वापस नहीं ला सकते।
कालाधन तो लोग सोशल मीडिया पर भी मोदी जी मांग चुके हैं, चुनाव के पहले के वीडियो पोस्ट व टैग करके। इन तमाम बातों के बीच जो एक पहलू जो सामने आना चाहिए कि पैसा वाकई वापस आ रहा है या नहीं, अर्थशास्त्रियो के हिसाब से इसमें कई जटिल व टेक्नीकल पहलू है जिससे सरकार को गुजरना पड़ेगा। G20 सम्मेलन में देशों के बीच जो संधि हुई है उसमें भारत व स्विट्जरलैंड दोनों की सरकारों ने दस्तखत किए हैं व इस समझौते के तहत भ्रष्टाचार व बिना टैक्स चुकाए गए जमा कराए पैसे के खाताधारकों की जानकारी दूसरे देश को देनी होगी। वैसे बैंकिंग विदेश में व्यवसाय है तो उसमें गोपनीयता का क्लाज भी ध्यान में रखना पड़ता है। DTA ट्रीटी का हवाला दिया जा रहा है जिसमें 1965 के बाद से ही कोई बदलाव नहीं हुआ है।
अगर लोगों के नाम सामने आते भी है तो अहम मुद्दा पैसे को लाने का है और वो जिम्मेदारी आयकर विभाग की नहीं होकर के इन्फोर्समेंस डायरेक्टरेट का है, जो पूरी प्रक्रिया से बाहर है, एक वर्ष खत्म होने की कगार पर है लेकिन सरकार का स्टैंड इस पर क्लियर नहीं है। पैसे को आने को लेकर जो संदेह व भ्रम बना हुआ है, आगे भी बरकरार रहेगा। हो सकता है सरकार को कई अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक, कूटनीतिक पहलूओं से भी गुजरना पड़े। लेकिन फिर भी सरकार को अपनी पहली वर्षगांठ तसल्ली से मनाने देने के लिए शक की निगाह के बजाय विश्वास के चश्मे से देखना चाहिए। लेकिन एक बरस बीत जाने के बाद एक बात तो तय है हर मुद्दे को लेकर कि सिर्फ चेहरे बदल जाते हैं, बहाने व बयान नहीं, यही शायद राजनीति है जिससे सबको शिकायत है।
रवि शर्मा