रवीन्द्र कालिया का वह काला रजिस्टर तो जार्ज आरवेल के समय संदर्भ में आज का सबसे बड़ा सच है। इसलिए रवीन्द्र कालिया का प्रोफाइल खंगालने की भी रीढ़विहीन प्रजातियों के इस दुस्समय में मुझे जरूरी नहीं लग रहा है।

अब शायद सत्ता के सीने में मूंग दलने वाला कोई दूसरा शख्स भी नहीं है, जिनसे रवीन्द्र कालिया की कमी पूरी हो।
पलाश विश्वास
खबर तो सुबह ही हो गयी थी। फेसबुक पर लिख भी रहे थे मित्र। मगर हम उम्मीद कर रहे थे कि जैसे कामरेड एबी वर्धन के सम्मान में मौत के पांव ठिठक गये थे, वैसे ही हमारी जिनेचिक्स के बेलगाम हिंदी साहित्यकार संपादक रवींद्र कालिया के सम्मान में भी मौत के पांव कहीं न कहीं ठिठक जायेंगे। ऐसा मगर नहीं हुआ और खबरों ने पुष्टि कर ही दी।
रवींद्र कालिया कितने बड़े साहित्यकार या संपादक हैं, यह तय करना हमारा काम नहीं है लेकिन उनका जैसा तेवर और किसी का मैंने हिंदी में कम ही देखा है।
उनका वह काला रजिस्टर तो जार्ज आरवेल के समय संदर्भ में आज का सबसे बड़ा सच है। इसलिए उनका प्रोफाइल खंगालने की भी रीढ़हीन प्रजातियों के इस दुस्समय में मुझे जरूरी नहीं लग रहा है।
रवींद्र कालिया और ममता कालिया कुछ साल पहले वागार्थ और भारतीय भाषा परिषद के सौजन्य से कोलकाता में भी रहे।
छात्र जीवन में उनका काला रजिस्टर ने तो तहलका मचाया हुआ था और हमारे वे हीरो बन गये।
वह काला रजिस्टर अब भी असहिष्णुता का बहीखाता है और हम देख बूझ रहे हैं कि काला रजिस्टर का करिश्मा कैसे फासिज्म का राजकाज है।
उनके पिता ने इलाहाबाद में उनसे प्रेस खोलकर दिल्ली और मुंबई के सीने में मूंग दलने का जो कार्यभार सौंपा था, वे तजिंदगी वही करते रहे और कालिया ने कमसकम मठाधीशों की कदमबोशी की हो, ऐसा बदनाम उन्हें कोई कर नहीं सकता।

अकहानी आंदोलन के युग की शुरुआत थी रवीन्द्र कालिया की कहानी 'नौ साल छोटी पत्नी'
कालिया के मूल्यांकन में भी इस सच का खासा योगदान है। वैसे कालिया की कहानी 'नौ साल छोटी पत्नी' अकहानी आंदोलन के युग की शुरुआत थी। भाषा, विषय और कथ्य के मामले में यह सबसे अलग कहानी थी। इसी नाम से उसका एक कहानी संग्रह भी है। धर्मयुग में काम करते हुए कालिया ने 'काला रजिस्टर' कहानी लिखी जो काफी चर्चित हुई थी। वह सही मायने में उस पीढ़ी का स्तंभ था। इलाहाबाद में रहते हुए कालिया ने 'खुदा सही सलामत है' उपन्यास लिखा। यह हिन्दू-मुस्लिम एकता, भाईचारे का सर्वोत्तम उपन्यास रहा। इसके बाद कालिया अपने संस्मरणों के कारण चर्चा में आया। पत्रिका 'हंस' में एक धारावाहिक प्रकाशित हुआ 'गालिब छूटी शराब'।
दूधनाथ सिंह के शब्दों में : ‘नौ साल छोटी पत्नी' और 'एक डरी हुई औरत' जैसी कहानियां लिखकर कालिया रातों रात प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंच गया। '5055' एक कहानी भी है और एक घर का नंबर भी जहां चार मित्र (हमदम, प्रयाग शुक्ल, गंगा प्रसाद विमल और संभवत: रवीन्द्र कालिया) एक साथ रहते थे। मोहन राकेश जालंधर में कालिया के अध्यापक थे। राकेश जी ने ही उसे धर्मयुग में भिजवाया। उसकी एक अलग कहानी है जिसकी परिणति 'काला रजिस्टर' जैसी महान कहानी के रूप में लिखकर हुई। कालिया तभी 1970 के आसपास इलाहाबाद आया। शुरू में वह अश्क जी के घर 5, खुशरोबाग में उनके साथ रहा।
गनीमत यह है कि धत तेरे की, कहते हुए उनने साहित्य की दुनिया को लावारिस गाय की लाश में तब्दील हो जाने का विकल्प नहीं चुना।

कुंडली रवीन्द्र कालिया की
11 नवंबर 1938 को पंजाब के जालंधर में जन्में रवीन्द्र कालिया इलाहाबाद में बस गये थे और 60 के दशक में धर्मयुग पत्रिका में मशहूर लेखक धर्मवीर भारती के सहयोगी भी थे। वह कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका वागर्थ के संपादक भी थे। बाद में वह दिल्ली भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक तथा ज्ञानोदय पत्रिका के संपादक बनकर दिल्ली चले आए और तब से वह यहीं रहने लगे थे। वह कैंसर के भी मरीज थे, और वह उससे उबरने भी लगे थे। फिर उन्हें लीवर सिरोसिस हो गया और उनकी किडनी भी खराब हो गयी थी। खुदा सही सलामत है, गरीबी हटाओ, गालिब छुटी शराब, काला रजिस्टर, नौ साल छोटी पत्नी, 17 रानडे रोड, एबीसीडी आदि उनकी ..चर्चित कृतियां हैं।