किस किस के अच्छे दिन, जरा ये भी बतइयो!
किस किस के अच्छे दिन, जरा ये भी बतइयो!
कि खबर है, आएंगे अच्छे दिन : पेट्रोल और डीजल की कीमतों में आएगी गिरावट, सोने में भी हो जबर्दस्त होगी गिरावट…
किस किस के अच्छे दिन, जरा ये भी बतइयो!
खबरों का क्या क्योंकि सबसे अच्छी खबरें होती हैं, सबसे बुरी खबरें दरअसल और इन दिनों बुरी से बुरी खबरों को अच्छी खबरों के अच्छे दिनों में तब्दील करना ही पत्रकारिता है। यही है मीडिया का सच।
क्या हुआ कि यूनेस्को ने किसी अक्षय की रहस्यमय स्थितियों में मृत्यु की आलोचना कर दी और व्यापमं पर हो हल्ला हजारों हजार गांवों को उजाड़ने के अबाध अविराम सलवाजुडुम पर भारी है।
हम तो युधिष्ठिर महाराज के सच जानने को बेताब है, कुरुक्षेत्र में रथी-महारथी के मारे जाने पर विलाप कभी खत्म होता नहीं, मगर हजारों साल हुए जो लाखों पैदल उस महाभारत में मारे गये, कोई उन्हें जानता नहीं और कोई उनके लिए रोता नहीं।
जनपदों के हकीकत की जमीन पर खड़े होकर इतिहास भूगोल को देखें कोई तो महानगरों से बहते हुए झूठ और फरेब के जलजले में खड़े होकर मालूम होगा कि झूठों में झूठा हर दल हर दिमाग है, जिसे सच का अता पता होता नहीं है और फसाना अफसाना से ही मुहब्बत कर बैठे। आवाज भी उसे लगा रहे हैं, जो बेवफा हैं।
हमारे आदरणीय मित्र सुधीर विद्यार्थी ने तमाम जिंदगी जनपदों की खुशबू बटोरने में बिता दी। हुक्मरान के बदले वे जनता के इतिहास और जनपदों के इतिहास पर काम कर रहे हैं।
बीसलपुर पर उनने बरसों पहले लिखा है। बीसलपुर में पले बढ़े हैं हमारे फिल्मकार मित्र राजीव कुमार तो हमने वह किताब पढ़कर उनके हवाले कर दी है।
इधर दनादन दनादन ढेरों किताबें सुधीर विद्यार्थी ने हमें भेज दीं, न जाने क्या समझकर क्योंकि मैं कोई आलोचक भी नहीं।
नैनीताल में बरसात हो या हिमपात, हम सात सात दिनों तक लगातार पढ़ा करते थे। डीएसबी में तमाम दोस्तों के दस बीस कार्ड लेकर प्रोफेसरों की तरह सीधे पुस्तकालय से किताबें ढो ढोकर कमरे में लाते थे और पढ़ते ही नहीं थे, गिरदा की चंडाल चौकड़ी में उन किताबों पर बहसें भी खूब हुआ करती थी। मालरोड पर टहलते टहलते रात हो जाती थी। हो बरसात, हो हिमपात, हमें परवाह न थी और न तब हमने कभी चौदहवीं के चांद के दीदार किये।
जान ओ माल एक झोले में थी, जैसे मेरे पिता की भी थी। जब कहीं से कोई आवाज आयी, झोला उठाकर भाग लिए उस तरफ, मौसम बेमौसम। अपने पिता और अपने गिरदा से यह फितरत पायी थी। बाकी वक्त किताबों में घुसे रहना आदत थी।
काली चाय और कुम्हड़ा उबला नमक के साथ और बहुत हुआ तो गिरदा के साथ अशोक जलपान गृह में गिरदा का प्रिय डबल रोटी मक्खन और खूब भूख लगी तो उबले अंडे।
पहाड़ों में हरेला की धूम है और इस मौसम में हम लोग बाकायदा हरेला उगाकर नैनीताल समाचार के साथ नत्थी करके पाठकों को लंबा खत लिखा करते थे। राजीव दाज्यू ने तमाम साथियों के बिछुड़ जाने के बावजूद हरेला का वह तिनड़ा जोड़ना कभी नहीं भूलते।
हमारी पत्रकारिता की भाव भूमि वही है जबकि अब हम खबरची नहीं हैं। कोयलांचल की भूमिगत आग में हमने तमाम कविताओं के साथ अपनी पत्रकारिता भी दफन कर दी है। वह भी तीन दशक हो गये।
पिता नहीं रहे तो गांव में पिता, ताउ और चाचा की झोपड़ियां नहीं रहीं। जिन गांव वालों को बसंतीपुर में जानता था, वे भी नहीं रहे। बसंतीपुर के लोग भी हमारे लिए अब अजनबी हैं और हम भी उनके लिए अजनबी हैं।
गिरदा नहीं रहे। चिपको के तमाम योद्धा नहीं रहे। वह पहाड़ नहीं रहा।
किताबें हैं। लेकिन हम उस तरह पढ़ने वाले नहीं हैं।
बरेली, शाहजहांपुर, फतेहगढ़ और बीसलपुर पर सुधीर विद्यार्थी का लिखा पढ़ते हुए न जाने क्यों वे सारे खोये हुए लोग, खोया हुआ जमाना, खोयी हुई जमीन और खोया हुआ आसमान फिर जिंदा हैं।
दरअसल हमारे लिए इतिहास और भूगोल जनपदों से शुरू होता है और वहीं खत्म होता है। बाकी इतिहास विजेताओं का गढ़ा हुआ किस्सा है और बाकी भूगोल जीता हुआ देश है।
हमारा वास्ता लेकिन इसी इतिहास और इसी भूगोल से है। जो किसी पाठ्यक्रम में नहीं है यकीनन।
हमें तो इंतजार है उस दिन का जब हर जनपद में एक कमसकम सुधीर विद्यार्थी होगा, जो तमाम मुर्दों को, तमाम सोये लोगों को एक झटके से जिंदा कर देगा। जो किताबें पढ़ना भूल चुके हम जैसे काफिर को हरफों में तिरती मुहब्बत की नदियों में डुबो देगा।
जैसे मुक्त बाजार में दस्तूर है कि कंज्यूमर फ्रेंडली हो हर तकनीक, हर ऐप, एकदम उसी तरह का फ्रेंडली यह बिजनेस फ्रेंडली यह फासिज्म का राजकाज है। उसी तरह हुआ उसका इतिहास, उसका भूगोल और उसका मीडिया।
क्रयशक्ति न हो तो क्या सस्ता, क्या मंहगा।
जल जमीन जंगल नागरिकता नागरिक मानवाधिकार से बेदखल होकर देखिये तो मालूम चलेगा कि सुखीलाला की जन्नत का हकीकत क्या क्या है।
जिंदगी के सारे मसले अनसुलझे हैं।
मुहब्बत जमाने से गायब है।
फिजां ऩफरत की है।
आप सस्ता मंहगा शहरी उपभोक्ताओं के लिए बताकर जनता के ज्वलंत मसलों को नजरअंदाज क्यों कर रहे हैं, कोई नहीं पूछेगा।
सुधीर विद्यार्थी जैसे इक्के-दुक्के लोग किसी किसी जनपद में अब भी हैं, गनीमत है, वरना हम तो मान रहे थे कि सारा देश नई दिल्ली है जहां न कोई हिमालय है, न जहां दलिते आदिवासी और पिछड़े हैं, न बंधुआ मजदूर हैं, न बेरोजगार युवाजन है न अब भी दासी लेकिन सती सावित्री स्त्रियां हैं कहीं।
अंततः युधिष्ठिर का सच, सच है और बाकी महाभारत का कोई सच है ही नहीं।
पलाश विश्वास


