किस हिंदी का विश्व सम्मेलन!
किस हिंदी का विश्व सम्मेलन!
यह कहने में जरा ही अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन, खत्म होने के साथ ही भुला दिया गया। सच तो यह है कि 10 से 12 सितंबर तक भोपाल में जब यह सम्मेलन चल रहा था उस दौरान भी और सम्मेलन से ऐन पहले भी, एक बड़े सरकारी मेले से जुड़े ताम-झाम को छोड़ दें तो, इस सम्मेलन को सिर्फ इसके साथ जुड़े विवादों के लिए याद किया जा रहा था। सबसे पहले, लोग यह देखकर हैरान हुए कि हिंदी के इस अंतर्राष्ट्रीय कर्मकांड के दसवें संस्करण से हिंदी के लेखकों को करीब-करीब पूरी तरह से बाहर ही रखा गया था।
बेशक, यह पहली बार ही नहीं था, जब प्रतिनिधियों की आधिकारिक सूची में लेखकों के नामों पर विवाद उठा था।
वास्तव में लगातार दूसरे देशों में होते रहे पिछले कई विश्व सम्मेलनों के सिलसिले में, इन सम्मेलनों के साथ विदेश यात्रा का मौका भी जुड़ा होने के चलते, कई बार ये विवाद काफी तीखे भी हो जाते थे। फिर भी अब तक इन विवादों का रूप मुख्यत: लेखकों के महत्व की तुलना का रहता आया था, अमुक ही क्यों या तमुक क्यों नहीं?
यह पहली बार था कि इस बार प्रतिनिधियों की सूची से संबंधित विवाद के केंद्र में एक ही मुद्दा था-इसमें लेखक कहां हैं? बलपूर्वक याद दिलाया गया कि भोपाल में हो रहे विश्व हिंदी सम्मेलन में मध्य प्रदेश की छोडि़ए, खुद भोपाल के साहित्य अकाद्मी और पद्म सम्मानों से सम्मानित लेखकों तक को नहीं बुलाया गया था। इस पर शोर मचा तो इस सम्मेलन की मेजबान, केंद्र सरकार के प्रतिनिधि की हैसियत से, फौजी से विदेश राज्य मंत्री बने वी के सिंह ने अपनी समझ से इस सम्मेलन से लेखकों को दूर रखे जाने वजह भी बता दी। खाने और ‘‘पीने’’ के सिवा लेखक ऐसे सम्मेलनों में करते ही क्या हैं!
इस पर उठे विवाद पर पर्दा डालते हुए, सम्मेलन की मुख्य मेजबान, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अपने संबोधन में यह सिद्धांत ही पेश कर दिया कि विश्व पटल पर हिंदी के प्रसार के लिए, इन सम्मेलनों को लेखन और लेखकों की छाया से ही मुक्त कराने की जरूरत है। अब तक लेखन/लेखक सम्मेलन होते थे, अब भाषा का सम्मेलऩ होगा।
इस तरह यह सिर्फ इस या उस लेखक को न बुलाए जाने का मामला नहीं था। बेशक, ऐसी किसी भी सूची को संघ परिवार के भगवा छन्ने से छनकर निकलना था। मोदी सरकार के राज में अब इसे छुपाने या ढांपने की भी कोई जरूरत नहीं रह गयी है। और केसरिया वीरों के दुर्भाग्य से ऐसे लेखक नगण्य ही हैं जो हिंदी के महत्वपूर्ण लेखकों में गिने जाते हों और इसके बावजूद भगवा छन्ने की परीक्षा में ‘सुरक्षित’ निकलें। लेकिन, यह सिर्फ इसलिए विश्व हिंदी सम्मेलन से लेखकों को दूर रखेे जाने का मामला नहीं था कि हिंदी में भगवा तो छोडि़ए, ऐसा भगवा-अनुकूल लेखक भी खोज पाना मुश्किल है, जिसकी लेखक के रूप मेें कोई पहचान भी हो। अगर ऐसा ही होता तो जैसे पुणे फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट के चेयरमैन के पद के लिए मोदी सरकार ने गजेंद्र चौहान को खोज निकाला है, वैसे ही विश्व हिंदी सम्मेलन के लिए क्या लेखक नहीं जुटाए/ बनाए जा सकते थे! फिर भी अगर लेखकों को इस मेले से दूर रखा गया तो ऐसा सिर्फ ‘विश्वसनीय’ और ‘सच्चरित्र’ लेखक जुटाने में कठिनाई की वजह से ही नहीं किया गया था। इसके विपरीत, इस बार विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी लेखन और लेखकों का पराया ही कर दिया जाना, इस सम्मेलन की संकल्पना में ही निहित था। वास्तव में जोर देकर यह रेखांकित भी किया गया कि अब इस आयोजन की धुरी बदली जा रही है। वास्तव में 10वां विश्व हिंदी सम्मेलन ठीक इसीलिए किसी हद तक गंभीर जांच-पड़ताल का हकदार है कि उसके जरिए पेश की गयी हिंदी के विस्तार के प्रयास की यह संकल्पना, हिंदी के प्रति मौजूदा शासन के रुख और प्राथमिकताओं के चिंताजनक पहलू का परिचय देती है। वर्ना विश्व हिंदी सम्मेलनों को वैसे भी वास्तव में हिंदी की चिंता करने वालों ने एक बड़े सरकारी मेले से ज्यादा महत्व कभी नहीं दिया है।
यह अकारण ही नहीं था कि इस सम्मेलन के मुख्य विषय के रूप में, ‘‘हिंदी जगत-विस्तार और संभावनाएं’’ का चुनाव किया गया था। इस पदबंद से ही साफ था, पूरा का पूरा जोर ‘‘विस्तार’’ और उसकी संभावनाओं पर रहना था। इसके साथ ही यह और जोड़ लें कि इस विस्तार में भी चिंता ‘‘अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर’’ हिंदी के प्रसार की ही है। वास्तव में इस सम्मेलन की मुख्य आयोजक के रूप में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के आधिकारिक ‘‘संदेश’’ में (जो उनके भाषण से अलग है) मौजूदा सरकार की हिंदी की चिंता के इस जोर को बिल्कुल स्पष्टï कर दिया गया है। उनके शब्दों मेंं इस सम्मेलन को राजनीति से लेकर विज्ञान व प्रौद्योगिकी तक, ‘‘विविध क्षेत्रों के हिंदी प्रेमियों को अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर हिंदी को प्रोत्साहित करने के लिए विचारों का आदान-प्रदान करने का मंच’’ बनना था। ‘‘अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर हिंदी को प्रोत्साहित करने’’ की उतावली में वाक्य रचना में आयी लडख़ड़ाहट मेें न अटककर, हम इस मूल चिंता की ओर ही ध्यान खींचना चाहते हैं। यह संयोग ही नहीं है कि सुषमा स्वराज के संदेश में ही नहीं, इस सम्मेलन के लिए दिए गए प्रधानमंत्री तथा विदेश राज्य मंत्री वी के सिंह के आधिकारिक संदेशों में भी, हिंदी का हिंदुस्तानी पहलू सिरे से गायब है। मेजबान राज्य के मुख्यमंत्री के नाते शिवराज सिंह चौहान के संदेश में जरूर, मेजबान राज्य की विशेषता के रूप में इस राज्य में पैदा हुए पुराने लेखकों का नामोल्लेख किया गया है। अचरज की बात नहीं है कि तीन दिन के इस विश्व सम्मेलन से निष्कर्ष के तौर पर एक ही सुर्खी निकली है-हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में मान्यता दिलायी जाए!
अचरज की बात नहीं है कि हिंदी की इस ‘‘चिंता’’ में भाषा और लेखन को, आमने-सामने खड़ा कर दिया गया है। सूत्र रूप में कहें तो यह हिंदी की एनआरआइ चिंता है। इसका हिंदी के साथ रिश्ता, एक तरह के पहचान चिन्ह का रिश्ता है। भाषा की ‘‘बहता नीर’’ की संकल्पना के विपरीत, जो अपने समुदाय के साथ किसी भाषा के ङ्क्षजदा रिश्ते को दिखाती है, पहचान चिन्ह की संकल्पना किसी एक समय में जड़ीभूत चिन्ह की होती है। यहां भाषा, वास्तव में अपने समुदाय की अभिव्यक्ति के अपने रोल को छोडक़र, एक जड़ निशानी बनकर रह जाती है। हमने इसे एनआरआइ चिंता इसीलिए कहा कि जैसे दूसरे देश को गले लगाए एनआरआइ को सिर्फ पहचान चिन्ह के
रूप में भारतीयता की जरूरत होती है और बहुत बार तो वे भारत को, भारतीयता की अपनी इस जड़ कल्पना में ही ढलता देखना चाहते हैं, उसी प्रकार इस हिंदी चिंता का, हिंदी के यानी हिंदी बरतने वाले समाज के वास्तविक सरोकारों से कुछ लेना-देना नहीं है। यह संयोग ही नहीं है कि तीन दिन के सम्मेलन के दौरान आयोजित सोलह समांतर सत्रों के बारह विषयों में, सिर्फ बाल साहित्य को छोडक़र शेष साहित्य ही गायब नहीं है बल्कि देश में हिंदी के सारे सवाल भी गायब हैं, सरकारी हिंदी, मीडिया में हिंदी, प्रौद्योगिकी में हिंदी, जैसी चिंताओं को छोडक़र। लेकिन, यह सिर्फ हिंदी समाज की वास्तविक चिंताओं के अनदेखा किए जाने का मामला होता, तब तो फिर भी गनीमत थी। आरएसएस की खास शैली में, जिसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व मेें नयी ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया गया है, यह एक झूठा ‘लक्ष्य’ गढक़र, सचाइयों को दबाए, झुठलाए जाने का भी मामला है। विकास की नवउदारवादी परिकल्पना के पीछे अंधी दौड़ के इस दौर में, जब बाजार की मजबूरियों के तकाजों को छोडक़र, अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप मेें हिंदी समेत दुनिया की ज्यादातर भाषाओं के पांव तले से जमीन छीनी जा रही है, संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी की मान्यता का सवाल एक ऐसा ही ध्यान बंटाने वाला टोटका है।
संघ-भाजपा का हिंदीप्रेम का पाखंड अपनी जगह, नरेंद्र मोदी सरकार के हिंदी-प्रेम को, लेखन और लेखकों की ही नहीं, उस जिंदा समाज की भी कोई जरूरत नहीं है, जिसको ये लेखक और लेखन अभिव्यक्ति देते हैं। जिस तरह संघ का राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रवासियों से मुक्त होता है, उसी प्रकार उसका हिंदी प्रेम, हिंदी बरतने वालों से मुक्त है। उनके हिंदी प्रेम में हिंदी बरतने वालों के लिए सिर्फ उतनी और उन रूपों में ही गुंजाइश है, जिन-जिन रूपों में बाजार के लिए उनकी जरूरत है। 0
0 राजेंद्र शर्मा


