किसान आंदोलन का नया चेहरा अन्ना हजारे
किसान आंदोलन का नया चेहरा अन्ना हजारे
किसान आंदोलन का नया चेहरा अन्ना हजारे
कुछ साथी नाराज हैं कि भूमि अध्यादेश पर किसानों के आन्दोलन की जमीन किसी और ने तैयार की और किसान आंदोलन का नया चेहरा अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल बन गए। इस आरोप में कोई गलत नहीं है, पर इसे दूसरे नजरिए से देखने की जरूरत है। जन लोकपाल पर जब अन्ना हजारे का आंदोलन चल रहा था, तब हमारे जैसे बहुत से पत्रकार और सामाजिक राजनैतिक कार्यकर्त्ता यह सवाल उठा रहे थे और अख़बारों में लिख रहे थे कि ये खेती किसानी और किसान के मुद्दे पर क्यों नहीं किसी पहल से जुड़ते। पर ना तो अन्ना हजारे ने किसानो के सवाल पर कोई पहल की और न ही केजरीवाल ने। वैसे भी अन्ना को राजनैतिक जमात से चिढ़ रही है और वे किसी नेता को अपने मंच पर घोषित रूप से चढ़ने नहीं देते। अपवाद अरविंद केजरीवाल रहे, क्यों रहे, यह हजारे ही जानते होंगे। यह भी रोचक है कि अन्ना हजारे को राजनीति से चिढ़ रही तो उनके सबसे करीबी सहयोगी ने देश का सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक प्रयोग अराजनैतिक हथियारों से कर दिखाया। खैर मुद्दे पर लौटा जाए।
आजादी के बाद हुए किसानों के एक बड़े आंदोलन, जिसमें पुलिस की गोली से चौबीस किसानों की जान गई थी, उसका नेतृत्व करने वाले डा. सुनीलम को अडानी का विरोध इतना महंगा पड़ा कि उन्हें जितनी उनकी उम्र थी, उतने ही साल यानी बावन साल की सजा सुना दी गई और वे जेल चले गए। तब देश के किसी भी बड़े आंदोलनकारी ने उनकी कोई मदद नही की। ना अन्ना हजारे ने ना अरविन्द केजरीवाल ने। मुख्यधारा के समाजवादी राजनैतिक दलों में एक मुख्यमंत्री ने जरूर आर्थिक मदद की और किसी को पता भी नहीं चला। हालांकि सुनीलम कोर कमिटी के सदस्य भी थे और किसानों के सवाल पर लगातार संघर्ष भी कर रहे थे। इस सबके बावजूद मेधा पाटकर और सुनीलम कई मित्रों के साथ किसानों के सवाल पर लगे रहे और ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में भूमि अध्यादेश के खिलाफ किसानों को एकजुट करने के साथ समाजवादी समागम के जरिए वामपथी दलों से संवाद शुरू किया। मुलताई में शहीद दिवस के दिन बड़ी किसान पंचायत में संघर्ष की रणनीति बनी और दिल्ली तक सुगबुगाहट शुरू हुई। पुणे में फिर जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय और समाजवादी समागम में यह मुद्दा उठा और योगेंद्र यादव निजी तौर पर इसमें शामिल भी हुए। इसके बाद दिल्ली में भूमि अध्यादेश पर विरोध की जमीन तैयार होने लगी जिसमे जन आंदोलन के साथ कई समाजवादी और वामपंथी नेताओं ने पहल की। तबतक इसमें न तो अन्ना हजारे थे, न पीवी राजगोपाल। पर जन आंदोलन के सथियों की यह इच्छा थी कि अन्ना हजारे इसमें शामिल हो ताकि यह मुद्दा एक राष्ट्रीय मुद्दा बन सके। जनवरी के पहले हफ्ते तक इसपर कोई ठोस पहल नहीं हुई। इस बीच एकता परिषद् के पीवी राजगोपाल ने दिल्ली का धरना तय हो जाने के बाद अलवर से दिल्ली यात्रा का एलान कर दिया जिसमे अन्ना हजारे को भी शामिल होना था। अन्ना हजारे ने इसके साथ ही दिल्ली में धरना को लेकर जन आंदोलनों के कई नेताओं से बातचीत और अंतत उन्होंने इस मुद्दे पर धरना में बैठने की सहमति दे दी। पर अपनी पुरानी शर्तों के साथ मसलन राजनैतिक दल का नेता मंच पर नही होगा, आदि-आदि। इसे लेकर आयोजकों में भी बहस हुई पर यह माना गया कि अन्ना हजारे के आने से यह मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ जाएगा और देश में किसान आंदोलन के लिए नया माहौल बनेगा। दरअसल मामला सिर्फ इस भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का ही नही है, सरकार की कारपोरेट घरानों से मिलीभगत की है। यह अध्यादेश सदन में गिर भी जाए पर खतरा कम नहीं होने वाला है। मोदी जिस राह पर है उसे देखकर तो संघ परिवार भी सकते में है। संघ और भाजपा पर यह चस्पां होता जा रहा है कि ये लोग देश के धन्ना सेठों के साथ खड़े है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के साथ यह धारणा और पुख्ता हुई है। ऐसे में बाकी सभी दल मोदी से छिटक रहे है और संघ भी किनारा कर रहा है। ऐसे माहौल में अगर किसानो के सवाल पर देश में आंदोलन का माहौल बने तो वह बड़े बदलाव की जमीन तैयार कर सकता है। इसलिए दिल्ली के इस प्रतीक आंदोलन की किसने राजनैतिक राहजनी की या कौन मंच पर गया और कौन उतरा इससे बड़ा मुद्दा आंदोलन का है। यह सभी जानते है कि जमीनी सवाल पर अन्ना हजारे पहली बार सामने आये है खासकर राजपथ पर बिवाई फटे पैरों से आए किसान के साथ। वह किसान जो बंटा हुआ है बांटा जा रहा है और उसकी राजनैतिक खेती करने वाले सत्ता में हैं, चाहे राज्य हो या केंद्र। इस माहौल में हाशिए के लोगों की इस बड़ी लड़ाई में सभी को साथ आने की जरुरत ज्यादा है बंटने बांटने से कुछ होने वाला नहीं है।
अंबरीश कुमार


