किसान बंदूक उठाये तो नक्सली, आत्महत्या करे तो कायर !
किसान बंदूक उठाये तो नक्सली, आत्महत्या करे तो कायर !
सत्तातंत्र का फायर - किसान बंदूक उठाये तो नक्सली, आत्महत्या करे तो कायर
गजेन्द्र की ख़ुदकुशी के बहाने ही सही मगर किसानों की मौत पर सवाल उठने लगे हैं. 2013 तक के आंकड़े इस तरफ साफ़ इशारा करते हैं कि बड़ी तादाद में किसानों ने ख़ुदकुशी की ओर रुख किया है. राज्य, कानून और व्यवस्था तीनों ही इस मसले पर निरंकुश साबित हुए हैं और खुदकुशी को रोकने में असहयोगी और इरादतन गैर-जिम्मेदार साबित हुए हैं. “किसानों की संख्या वर्ष 2001 में 12.73 करोड़ किसान थे जिनकी संख्या घटकर 2011 में 11.87 करोड़ रह गई.” आकड़े देखने से साफ़ हो जाता है किसान तकरीबन 64 लाख की तादाद में लापता हुए हैं एक तो कारण यह हो सकता है वे अपने मूल उत्पादन या कहें खेती से निकलकर रोज़ी-रोटी के लिए अन्य जगहों पर गये हों, बड़ी संख्या में मजदूर बने. बुरे हालात से उबरने के लिए दर-ब-दर भटके.. मूल जमीन से विस्थापित होने का सीधा अर्थ है किसानों के हक़ में तंत्र ने किसी अर्थपूर्ण और सहयोगी योजना में हिस्सेदारी नहीं की. न ही किसानों के संरक्षण की खातिर उचित और ठोस कदम उठाये. राजनीतिक माहौल और परिस्थितियाँ, व्यापारिक ढाँचे अगर किसानों के पक्ष में होते, वाकई में अगर खेती किसान के लिए फायदे का सौदा होती तो क्या वे अपनी जमीन छोडकर कहीं और जाते?
बीते पन्द्रह बरसों में किसानों की तादाद में भारी कमी आई है. तकरीबन एक करोड़ किसान अपनी जमीन से निष्कासित होकर इजारेदारों की ताकत का निशाना बनाए जा चुके हैं और सियासतदारों को संरक्षण देने वाली संस्था सत्तातंत्र के आगे मजबूर होकर अपना सबकुछ दांव पर लगा बैठे. यह घटती हुई तादाद सरकार की किसानविरोधी हकीकत और तमाम जनविरोधी नीतियों की हकीकत बयान करने को काफी हैं. किसानों की संख्या में जो कमी बीते बरसों में तेजी से आई है उससे तरक्की और उत्पादन सम्बन्धी मान्यताओं को लेकर कई सवाल खड़े हुए हैं. अगर किसान इतनी बड़ी तादाद में कम हो रहे हैं तो फिर खेती में तेजी से इजाफा किस तरह हुआ? आंकड़े बताते हैं कि “2010 मई भारत को दुनिया का पाँचवा स्थान हासिल हुआ जिसके मुताबिक उसने 80% से अधिक कई नकदी फसलों का उत्पादन् किया जैसे कॉफी और कपास आदि। 2011 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत को दुनिया में पाँचवे स्थान पर रखा गया, जिसके मुताबिक व सबसे तेज़ वृद्धि के रूप में पशुधन उत्पादन करता है।“
सवाल उठता है कि देश का वो कौन सा तबका है जो किसानों की कमी के बावजूद खेती में बढ़ोतरी की बात कर रहा है? दूसरी बात, अगर इतनी बड़ी तादाद में किसान कम हुए हैं तो जाहिर है पशु भी कम हुए होंगे, चारागाह भी कम हुए होंगे. मगर हर बार सरकार के आंकड़े और अर्थशास्त्र का गणित ठीक उलटे समीकरण प्रस्तुत कर रहा है. जब-जब किसान, खेत और पशुओं में लगातार कमी आई है तब-तब सरकार के आंकड़े फसल, पशुपालन और दुग्श उत्पादन, में सकल घरेलू उत्पाद का सबसे बेहतरीन रिजल्ट पेश करता हुआ नजर आया है. यह कैसा समीकरण है. यह कैसा गणित है? जो आम आदमी की सारी व्यवहारिक और सैद्धांतिक परिभाषा को भ्रमित कर नये समीकरणों के साथ जीडीपी को और बेहतर बताता है. वो भी खेती, दूध और पशुपालन के आधार पर. यह समझ से बाहर है.
“देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि एवं पशुपालन पर निर्भर है। छोटे व सीमांत किसानों के पास कुल कृषि भूमि की 30 प्रतिशत जोत है। इसमें 70 प्रतिशत कृषक पशुपालन व्यवसाय से जुड़े है जिनके पास कुल पशुधन का 80 प्रतिशत भाग मौजूद है। स्पष्ट है कि देश का अधिकांश पशुधन, आर्थिक रूप से निर्बल वर्ग के पास है। भारत में लगभग 19.91 करोड़ गाय, 10.53 करोड़ भैंस, 14.55 करोड़ बकरी, 7.61 करोड़ भेड़, 1.11 करोड़ सूकर तथा 68.88 करोड़ मुर्गी का पालन किया जा रहा है। भारत 121.8 मिलियन टन दुग्धउत्पादन के साथ विश्व में प्रथम, अण्डा उत्पादन में 53200 करोड़ के साथ विश्व में तृतीय तथा मांस उत्पादन में सातवें स्थान पर है। यही कारण है कि कृषि क्षेत्र में जहाँ हम मात्र 1-2 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त कर रहे हैं वहीं पशुपालन से 4-5 प्रतिशत। इस तरह पशुपालन व्यवसाय में ग्रामीणों को रोजगार प्रदान करने तथा उनके सामाजिक एवं आर्थिक स्तर को ऊँचा उठाने की अपार सम्भावनायें हैं।“
जबकि ख़ुदकुशी के मामले में 2009 के आंकड़े बताए हैं कि 17638 किसानों ने जान दी. इसमें अभी किसान परिवार के अन्य लोगों का जिक्र शामिल नहीं है. यानी हर 30 मिनट पर एक मौत. यह कैसा विकास का ढांचा है? जहां किसान की तादाद में कमी के बावजूद पशुपालन में बढ़ोतरी हो रही है.
इन आंकड़ों के पेशेनजर बड़ी संख्या में किसान ख़ुदकुशी कर रहे हैं. यह दीगर बात है कि खेती और पशुपालन में इजाफा हो रहा है. एक और बात, बीमारी और भूखमरी से मरने वाले किसान और नेचुरल रिसोर्सेज़ में जहरीली खुराक बढ़ने की वजह से जो नये किसम की बीमारियाँ पैदा हुई या फिर महामारी से मरने वाले किसान बहुत बड़ी संख्या में असमय ही मौत की चपेट में आते जा रहे हैं. इन मौतों की गणना के लिए राज्य या सरकारी तन्त्र के पास क्या मापक यंत्र बना है? इन मौतों को रोकने के लिए खाका खींचा गया है ?
एक तरफ बूचड़खाने बढ़ रहे हैं दूसरी तरफ पशुपालन में इजाफा हो रहा है. बीफ के माँस उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है. दूध बेचने वाली कंपनियों की संख्या में कई गुना की तेजी आई है. ये किस तरह का इकोनामिक कॉरिडोर और इकॉनामिक ग्रोथ बेमियादी विकास दर का पैरामीटर है इसमें वृद्धि मापने का पारा किसानों की ख़ुदकुशी और खेती की जमीन में लगातार कमी होने, उत्पादन करने वाले पशुओं की कमी, बूचड़खाने में बढ़ोतरी के बावजूद लगातार बढ़ रहा है. सत्तातंत्र इसे बेहतर ग्रोथ और सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि के साथ देख रहा है. सत्तातंत्र की नजर में यह पैमाना विकास की तरफ तेजी से बढ़ता जा रहा है. इस पूरे तन्त्र के तरक्की के मापक यंत्र की पूरी विधि को हर नागरिक को समझने की जरूरत है.
आज़ादी के पहले 1935 तक 80 प्रतिशत कृषिभूमि पर निर्भरता के कारण कुल आबादी अच्छी फसल उत्पादन से बेहतर जिन्दगी बिता रही थी. तो आज़ादी के बाद 1947 में ही यह कृषि भूमि घटकर 70 प्रतिशत कैसे रह गई? 1965 तक यही कृषि भूमि 47 प्रतिशत और 90 तक आते आते कृषिभूमि 35 प्रतिशत रह गई. वर्तमान में यह कृषि भूमि मात्र 14 प्रतिशत बची है.
देश की 70 प्रतिशत आबादी अगर खेती और पशुपालन पर निर्भर है तो फिर 14 प्रतिशत कृषि भूमि से समूची आबादी को खाद्य-सामग्री कैसे मुहैया की जा सकती है. ये जोकि 30 प्रतिशत आबादी है शहरों में बसती है. खेती के अतिरिक्त और किन चीजों से ये रोज़ अपनी भूख मिटा सकते हैं. सरकार ने इस तरफ ध्यान केन्द्रित करने की बजाय रियल स्टेट बिजनेस में पूरी कृषि भूमि को शेयर बाज़ार के गिरते चढ़ते पारे में झोंक दिया है. ताकि अधिक से अधिक लैंड अक्वायर करके उसका उपयोग पूंजी को केन्द्रित करने के लिए किया जा सके.
गजेन्द्र की मौत से शुरू हुआ किसानों की ख़ुदकुशी की पड़ताल का अभियान खुदकुशी करते किसानों की ही कड़ी का एक जरूरी हिस्सा है. यह सभी मौतें राजनीतिक हत्या की तरफ साफ़ इशारा करती हैं इस एक मौत के बहाने तमाम किसान आत्महत्याएं, राजनीतिक हत्या के दायरे में साफ़ नजर आ रही हैं. लाखों किसान जो अब तक बीते दस बरस में राजनीतिक षड्यंत्र से मारे जा चुके हैं. अदालतें गवाह, सुबूत और परिस्थितियों पर गौर करें तो इन सभी मौतों को अगर राजनीतिक हत्या ही कहना ठीक होगा. इसके बाद ही इन्साफ के लिए कोई रास्ता निकाला जा सकता है. कोई भी आत्महत्या अगर राज्य के भीतर बिना किसी मानसिक बीमारी के राज्य की गलत नीतियों की वजह से होती है तो इसके लिए स्टेट मशीनरी या सत्तातंत्र सीधे तौर पर दोषी है. ख़ुदकुशी को कानून की नजर में अपराध कहकर राज्य अपने गुनाह से बरी है. नागरिकों की जिम्मेदारी निर्वहन न करके जन और लोक के दायरे और न्याय के ढाँचे से बचकर निकल भागा है. जहां सुरक्षा देने वाले हिफाजती दस्ते में भी किसान और मजदूर परिवारों की औलादें हैं. मगर राज्य की गुलामी करने का सुख लेने वाले यह सुरक्षा दस्ते फिलहाल असलियत से दूर हैं.
ख़ुदकुशी या प्राकृतिक आपदा से हुई नागरिकों की मौत के लिए मुआवजा कोई न्यायिक और संवैधानिक हल नहीं है. मुआवजे को सत्ता तंत्र के द्वारा दिए जाने वाला जुर्माना कहना शायद ज्यादा बेहतर होगा. इस पर भी गजब बात यह है कि यह जुर्माना भी आज की परिस्थिति के कतई अनुकूल नहीं है. यही मुआवजा अगर कोई नागरिक किसी सांसद की हत्या के बाद उसके परिवार को देने जाय तब क्या राज्य और न्यापालिका इसे बर्दाश्त करेगी? तब कैसा लगेगा? ख़ुदकुशी अगर अपराध है तो अपराधी कौन है? ख़ुदकुशी करने वाला या फिर वे हालात जिनकी वजह से किसी नागरिक को अपनी ही हत्या करनी पड़ी? अपराधी कभी भी अपराध करने के लिए खुदकुशी नहीं करता. तो फिर यह अपराध कौन कर रहा है? इस बात के लिए जो परिस्थितियाँ जिम्मेदार हैं उन हालात को पैदा करने वाला कौन है? इस मुद्दे पर कानूनविदों और सामाजिक संस्थाओं बौद्धिक संस्थानों के बीच लोकसंवाद के तहत खुलकर बात होनी चाहिए.
ऐसे हालत जिनमें कोई नागरिक आत्महत्या करे उन हालातों के लिए अगर राज्य दोषी है तो फिर राज्य के भीतर अपराध में प्रमुख तंत्र दोषी क्यों नहीं ठहराया जाता? ख़ुदकुशी जिन हालत में हुई उसके लिए सियासतदारों को सजा क्यों नहीं होनी चाहिए? अगर ख़ुदकुशी अपराध है तो यह कैसा अपराध है जिसमें अपराधी अपनी ही जान लेने को मजबूर है? वह ऐसा कैसे कर सकता है? अपराध में तो अपराधी दूसरे व्यक्ति की हत्या करता है याकि हत्या के लिए अपराधी समूह में शामिल होता है. मगर यह कैसा अपराध है जिसमें अपराधी ख़ुदकुशी करके भी अपराधी करार दिया जाता है और न्यायपालिका व राज्य उस अपराधी को दण्डित करने की बजाय मुआवजे की रकम अदा करता है?
सजा अगर किसी अपराधी को नहीं मिली. न ही राज्य दोषी पाया गया तो फिर मुआवजा या कहें कि राजकीय जुर्माना किस बात का? पहली बात यह कि ख़ुदकुशी की नौबत ही क्यों आने दी जा रही है?
..... जारी
डॉ. अनिल पुष्कर


