किसानों की जमीन लूट को रोकने में यूपीए का 2013 का कानून नाकाफी - अखिलेन्द्र
किसानों की जमीन लूट को रोकने में यूपीए का 2013 का कानून नाकाफी - अखिलेन्द्र

समग्र भूमि उपयोग नीति के लिए राष्ट्रीय आयोग वक्त की मांग
कृषि लागत मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए
प्राकृतिक आपदा के शिकार किसानों के सभी कर्ज माफ किए जाए
लखनऊ 17 अप्रैल 2015, यूपीए का 2013 का कानून किसानों की जमीनों की लूट को जमीन लुटेरों से रोकने में नाकाफी है इसलिए मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून संशोधन अध्यादेश के खिलाफ आंदोलन को तेज करते हुए हमें यूपीए शासन द्वारा 2013 में बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून के किसान विरोधी चरित्र को उजागर करना होगा। मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरुद्ध जारी आंदोलन को देशी-विदेशी कारपोरेट, उनके हित में काम करने वाली केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा विकास के नाम पर किसानों की जमीन लूट नीति के खिलाफ केन्द्रित करना होगा। आंदोलन को 2013 में बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून में दिए गए ‘सहमति और सामाजिक प्रभाव‘ के प्रावधानों तक ही सीमित नहीं रखना होगा बल्कि उस अवधारणा पर चोट करनी होगी जो जमीन को जीविका के संसाधन के रूप में न लेते हुए माल के रूप में बाजार की शक्तियों के हवाले करना चाहती है। मनमोहन और मोदी सरकार जमीन को जीविका के संसाधन के रूप में न लेकर इसे बाजार की वस्तु मानती हंै। इसलिए यूपीए और एनडीए की भूमि नीति में बुनियादी फर्क नहीं दिखता है।
यह बातें आल इण्डिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने प्रदेश इकाई की बैठक के बाद जारी अपने पे्रस बयान में कहीं।
उन्होंने कहा कि जमीन के सवाल को जीविका के साधन के रूप में लेते हुए राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन आज वक्त की मांग है। यह आयोग सीमाबद्ध समय में अपनी संस्तुति दे और जब तक राष्ट्रीय आयोग की संस्तुति नहीं आ जाती तब तक कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए जमीन के अधिग्रहण पर रोक लगायी जाए। साथ ही बाजार मूल्य के नाम पर किसानों की जमीन पूंजीपतियों को खरीदने की छूट न दी जाए। कारपोरेट आधारित विकास माडल की जगह किसान आधारित विकास का माडल ही न केवल किसानों के लिए बल्कि देश के सम्पूर्ण विकास के लिए बेहद जरूरी है। पिछले पच्चीस सालों से चल रहे उदार अर्थनीति का भयावह परिणाम किसान आत्महत्या, बेकारी, महंगाई और संसाधनों की लूट है। इसलिए जरूरी है कि सहकारी खेती और कृषि आधारित कल कारखानों के विकास के लिए आंदोलन किया जाए जिससे की हमारा राष्ट्रीय अर्थतंत्र मजबूत हो, बेकारी, महंगाई और किसानों की आत्महत्या से छुटकारा मिल सके।
उन्होंने बेमौसम बरसात व ओलावृष्टि से देश में किसानों की फसलों के भारी नुकसान और किसानों की हो रही मौतों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए सरकारों से इस प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए किसानों को वाजिब मुआवजा, विशेष पैकेज और किसानों के कर्जे माफ करने की मांग उठाई गई। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार द्वारा 33 फीसदी से ऊपर नुकसान वाले किसानों को ही मुआवजे की घोषणा किसानों के साथ छलावा है। मुआवजे के नाम पर कुछ सौ रु. की राहत किसानों के जले पर नमक छिडकने जैसा है। जाहिर है, सरकारों का किसानों के प्रति रुख बेहद संवेदनहीन व अमानवीय है। सरकारों द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य व उसके आधार पर मुआवजे की बात ही तर्कसंगत नहीं है क्योंकि सरकारों का न्यूनतम समर्थन मूल्य ही लागत मूल्य से काफी कम है। लागत और मूल्य आयोग की सिफारिशों तक को सरकार मानने के लिए तैयार नहीं है। उन्होंने मांग की कि लागत और मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए और इसकी सिफारिशों को बाध्यकारी बनाया जाए। अभी तक विदर्भ में किसानों की आत्महत्याओं की घटनायें सुनने को मिलती थीं लेकिन जिस तरह उत्तर भारत में किसानों की मौतों की घटनायें सामने आ रही हैं यह एक बडे कृषि संकट को प्रदर्शित करती हैं। देश की कृषि विकास दर शून्य पर आकर टिक गई है व ऋणात्मक विकास को प्रदर्शित कर रही है। किसानों की अर्थव्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है।
श्री अखिलेन्द्र ने सोनभद्र जनपद में कनहर नदी पर बन रहे बांध से विस्थापित हो रहे परिवारों पर हुए गोलीकाण्ड की कड़ी निंदा करते हुए कनहर बांध परियोजना में डूब रहे क्षेत्र का भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के तहत पुनः अधिग्रहण करने के लिए अध्यादेश जारी करने और वर्तमान कानून के अनुसार विस्थापितों के सम्मानजनक पुर्नवास की व्यवस्था करने की राज्य सरकार से मांग की है।


