कुछ इस कदर बदहवास हुए आंधियों से लोग/ जो पेड़ खोखले थे, उन्हीं से लिपट गए
कुछ इस कदर बदहवास हुए आंधियों से लोग/ जो पेड़ खोखले थे, उन्हीं से लिपट गए
भविष्य में ‘जन अपराधों की भूमि’ के तौर पर न जाना जाए ‘दुनिया का यह सबसे बड़ा जनतंत्र’
"अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का वक्त़’ अब आ गया है" & "गैरबराबरी को बढ़ावा दे रहा है नवउदारवादी पूंजीवाद का मॉडल"
समय से रूबरू हम-3
-सुभाष गाताडे
'Democracy in India is only a top-dressing on an Indian soil, which is essentially undemocratic.'
- Ambedkar
पिछले दिनों एक विचार चक्र के दौरान युवाओं के एक समूह के साथ बात करने का मौका मिला था, मैंने वहाँ मौजूद सहभागियों से यही जानना चाहा कि उनके हिसाब से जनतंत्र के सामने किन किन किस्म की चुनौतियों से हम आज रूबरू हैं ? आम तौर पर जैसा होता है पहले किसी ने जुबां नहीं खोली, मगर थोड़ी ही देर बाद अधिकतर लोगों ने अपनी बात रखी।
एक बेहद छोटे मगर मुखर अल्पमत का कहना था कि भारत जैसे पिछड़े मुल्क में, जो इतने जाति, समुदायों, सम्प्रदायों में बंटा है, वहाँ जनतंत्र कभी पनप नहीं सकता। उनके लिए इसे ठीक करने का एक ही नुस्खा था कि मुल्क की बागडोर - कमसे कम दस साल के लिए - एक डिक्टेटर के हाथों में सौंप दो, सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान - जो हमारे साथ ही आज़ाद हुआ था - से लेकर अन्य कई मुल्कों का जिक्र किया, जिन्हें भारत की तरह तीसरी दुनिया के देशों में ही शुमार किया जा सकता है, जो लगभग उसी दौरान आज़ाद हुए, मगर जहाँ लोकतंत्र कभी जड़ जमा नहीं सका, और उनके साथ भारत की तुलना करने को कहा !
मगर वह मानने को तैयार नहीं थे। वह इसी बात की रट लगा रहे थे कि एक ‘अदद डिक्टेटर’ क्यों समस्याओं को ठीक कर सकता है।
वैसे जानकार बता सकते हैं कि एक डिक्टेटर की यह ख्वाहिश समूचे भारतीय समाज के प्रबुद्ध हिस्से में विचित्र ढंग से फैली दिखती है, जिसका एक पैमाना हम हिटलर - जो अपनी कर्मभूमि में आज भी एक तरह से ‘बहिष्कृत’ है - की आत्मकथा ‘माइन काम्फ’ की भारत के बुकस्टॉलों या पटरी पर लगी दुकानों के बीच ‘लोकप्रियता’ से देख सकते हैं। (http://indiaopines.com/popularity-of-mein-kampf-in-india/ )
एक स्वीडिश राजदूत ने भारत यात्रा के बारे में अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहीं लिखा था कि ‘उसे यह देख कर हैरानी होती है कि भारत में किताबों की प्रतिष्ठित दुकानों में भी हिटलर की आत्मकथा देखने को मिलती है, और पुस्तक विक्रेताओं के हिसाब से उनके खरीदार कम नहीं हो रहे हैं। एक तानाशाह के लिए मुन्तजि़र कहे जा सकने वाले लोगों में से एक तबका उन अभिजातों का दिखता है, जिन्हें यह बात सख्त़ नापसन्द है कि गरीब गुरबा या दमित-उत्पीड़ित तबके के लोग भी इन दिनों सियासत में दखल बना रहे हैं।
वे जो ‘अदद डिक्टेटर’ के हिमायती थे, उन्हें छोड़ कर कइयों ने ‘संस्थागत जनतंत्र’ बनाम ‘ प्रत्यक्ष जनतंत्र’ की बात छेड़ी। उनका कहना था कि संसदीय व्यवस्था के रूप में हमारे यहाँ जो संस्थागत जनतंत्र साठ साल से आकार लिया है, वही समस्याओं की जड़ में है; जिसमें सहभागी को पांच साल में या नियत समय में एक बार वोट डालने का और अपने शासक चुनने का अधिकार मिलता है, राज्य के रोजमर्रा के संचालन में, नीतिनिर्धारण में उसकी अप्रत्यक्ष भागीदारी ही बन पाती है।
उनका कहना था कि राज्यसत्ता के संचालन में लोगों की इस औपचारिक सी भागीदारी को समाप्त कर उसे अगर ठोस शक्ल देनी हो तो ‘प्रत्यक्ष जनतंत्र’ बेहतर तरीका हो सकता है। इसके अन्तर्गत हर मोहल्ला अपना खुद का घोषणापत्र तय करेगा, शासन एवं विकास के हर पहलू पर पूरा नियंत्रण कायम करेगा, जहाँ लोग अपने ‘भले’ के हिसाब से निर्णय लेंगे, और समुदाय के जीवन में बसे सांस्कृतिक मूल्यों एवं नैतिक मानदण्डों की हिमायत करेगा और उन्हें व्यवहार में लाएगा।
मैंने उनसे यह समझने की कोशिश की सम्पत्ति, सत्ता एवं जाति, धर्म, नस्ल आदि के आधार पर बंटे एक विशाल समाज में, जहाँ अभी भी व्यक्ति के अधिकार की अहमियत पूरी तरह से स्थापित नहीं हो सकी है, जहाँ वह अगर अपने हिसाब से रहना चाहे, प्यार करना चाहे या जिन्दगी बसर करना चाहे तो उसे तमाम वर्जनाओं से गुजरना पड़ता है, जहाँ अपनी सन्तानें अगर अपनी मर्जी से शादी करना चाहें तो पंचायतों के फैसलों के नाम पर उनके मां बाप उन्हें खुद खतम करते हों, या जहाँ ‘हम’ और ‘वे’ की भावना इतने स्तरों पर, इतनी दरारों पर उजागर होती हो और जहाँ उत्पीड़ित समुदायों को प्रताड़ित करने के लिए पुलिस बल पर आतंक मचाने या दंगा कराने की बात बहुत अजूबा न मालूम पड़ती हो, वहाँ पर उनका नुस्खा कैसे काम करेगा ? मेरी समझ से यह एक सख्त/स्ट्राँग जनतंत्र की अवधारणा थी जिसमें ‘राज्यसत्ता का विकेन्द्रीकरण किया गया हो और बेहद सक्रिय नागरिक स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के माध्यम से उसका संचालन करते हों।’
कइयों ने उन तमाम बातों का जिक्र उन्होंने किया, जो उनके दैनंदिन जीवनानुभव पर आधारित थी। यह तमाम ऐसी परिघटनाएं, बातें थी जिनसे उनका रोज का साबिका पड़ता है या मीडिया के माध्यम से आए दिन उनके इर्द गिर्द बहस मुबाहिसा होता रहता है। उनके मुताबिक अगर जनतंत्र इन समस्याओं का समाधान कर सके तो वह सुचारू रूप से चल सकता है।
उनके बहुमत का यही मानना था कि अगर प्रणालियाँ ठीक से चलने लगें, कानून ठीक से काम करे तो इन चुनौतियों से निजात पायी जा सकती है। लुब्बेलुआब यही था कि जनतंत्र की प्रणाली- फिर चाहे न्यायपालिका हो, कार्यपालिका हो, विधायिका हो- ठीक से काम करने लगें तो सबकुछ बेहतर हो जाएगा। कहीं भी इस बात की ओर संकेत नहीं था कि एक पिछड़े समाज में जनतंत्र के आरोपण में और एक विकसित समाज में जनतंत्र के आगमन में क्या कोई अन्तर हो सकता है या नहीं। और क्या ऐसी प्रणालियाँ सामाजिक बनावट की छाप से स्वतंत्र रह सकती हैं ?
निश्चित तौर पर ऐसी बातचीत की अपनी सीमाएं होती हैं, और यह बातचीत भी किसी खास निष्कर्ष तक पहुंचे बिना ही समाप्त हो गयी।
गौरतलब था कि किसी ने भी अपनी सामाजिक बनावट की पड़ताल की बात नहीं की थी। साम्प्रदायिक दंगों की बात चली थी, समाज में बढ़ते घेट्टोकरण की बात चली थी, जातिगत हिंसा या जेण्डरगत हिंसा की बढ़ती बर्बरता पर भी बहस चली थी। इनकी मौजूदगी से वह इत्तेफाक कर रहे थे, मगर उनके लिए ऐसी घटनाएं एबरेशन्स के तौर पर, विसंगतियों के तौर पर मौजूद थी, जिन्हें ठीक किया जा सकता था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभी मुख्यधारा में हावी उस प्रभुत्वशाली विमर्श के कायल थे कि भारतीय समाज मूलतः एक सहिष्णु समाज है और अगर चन्द तबकों के खिलाफ हिंसा का प्रगटीकरण होता है तो उसकी वजह नैमित्तिक होती है, उसकी कोई ढांचागत जड़ों को तलाशा नहीं जा सकता।
निश्चित तौर पर मैं उन युवाओं को दोष देना नहीं चाहता, वह उन्हीं बातों को दोहरा रहे थे, जो बातें समाज में अक्सर सुनने को मिलती हैं।
आखिर कौनसी ऐसी बातें हैं जो हमारे अपने समाज के बारे में कही जा सकती हैं, जो उसकी सामाजिक बनावट की विशिष्टता को रेखांकित करती हों।
विडम्बना यही है कि जहाँ एक तरह हिंसा सर्वव्यापी दिखती है, मगर यह बात सर्वमान्य नहीं है। इसके विपरीत लोगों को हमारी संस्कृति में सहिष्णुता की कथित महान परम्परा के गुणगान करने में संकोच नहीं होता और एक विषमतामूलक, श्रेणीबद्ध सामाजिक प्रणाली के अन्तर्गत जो रोजमर्रा की पाशविकता और सतत संगठित हिंसा दिखती है, उसकी पड़ताल करने की भी कोशिश नहीं होती। इस बात को भुला दिया जाता है कि यह एक ऐसा मुल्क है जो अहिंसा के सन्त की महानता की बात करता है, वहाँ एक किस्म की हिंसा को न केवल ‘वैध’ कहा जाता है बल्कि उसे पवित्राता का भी दर्जा दिया जाता है। एक ऐसा समाज जहाँ लोगों का एक छोटा हिस्सा जो रक्त की शुद्धता और उच्च कुल में जनम का दावा करता हो, जिसे अपनी हरकतों के लिए दैवी स्वीकृति हासिल हो और जिसमें अन्यों के - मेहनतकश अवाम का विशाल हिस्सा, शूद्रों, अतिशूद्रों का - अमानवीयकरण करने का सिलसिला यथावत जारी रहता हो, कटघरे में खड़ा होने से बच निकलता है। इन विभिन्न उत्पीड़ित तबकों के खिलाफ हिंसा को आदिम काल से धार्मिक स्वीकृति मिलती रही है और आधुनिकता के आगमन ने भी व्यापक परिदृश्य में कोई तब्दीली नहीं की है।
एक हिन्दू पुरूष या स्त्री, जो कुछ भी वह करते हैं, वह धर्म का पालन कर रहे होते हैं। एक हिन्दू धार्मिक तरीके से खाना खाता है, पानी पीता है, धार्मिक तरीके से नहाता है या कपड़े पहनता है, धार्मिक तरीके से ही पैदा होता है, शादी करता है और मृत्यु के बाद जला दिया जाता है। उसके सभी काम पवित्र काम होते हैं। एक धर्मनिरपेक्ष नज़रिये से वह काम कितने भी गलत क्यों न लगें, उसके लिए वह पापी नहीं होते क्योंकि उन्हें धर्म के द्वारा स्वीकृति मिली होती है। अगर कोई हिन्दू पर पाप करने का आरोप लगाता है, उसका जवाब होता है, ‘ अगर मैं पाप करता हूँ, तो मैं धार्मिक तरीके से ही पाप करता हूँ।’
(‘द अनटचेबल्स एण्ड द पॅक्स ब्रिटानिका’ - डाक्टर भीमराव अम्बेडकर )
गौरतलब है कि ऐसी कई प्रथाओं एवं श्रेणीबद्धताओं का प्रभाव जिनकी जड़ हिन्दू धर्म में देखी जा सकती है, वह अन्य धर्मावलम्बियों के व्यवहार में भी नज़र आती है। इस्लाम, ईसाइयत, बौद्ध धर्म में जातिभेद - जिसकी कल्पना बाहर नहीं की जा सकती है उसका यहाँ के लोगों के जीवनविश्व में वजूद बना हुआ है। अपने आप परिवार भी जबरदस्त हिंसा का स्थान है। भारत एकमात्र ऐसा मुल्क है जहाँ एक विधवा को अपने मृत पति की चिता पर जलाया जाता रहा है। अगर पहले नवजात बेटी को अधिक बर्बर तरीके से मारा जाता था आज की तारीख में माता पिता टेक्नोलोजी में आयी तरक्की के सहारे यौनकेन्द्रित गर्भपात का सहारा लेते हैं। यह अकारण नहीं है कि भारत एकमात्र मुल्क है जहाँ अभी भी 330 लाख महिलाएं गायब हैं।
तीस साल का वक्त़ होने को है जब इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्तर पर सिखों को हमले का निशाना बनाया गया था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक गणराज्य की राजधानी दिल्ली में एक हजार से अधिक निरपराध जलती टायरों को गले में डाल कर बर्बर ढंग से मारे गए। हर कोई जानता है कि वह कोई स्वतःस्फूर्त हिंसा नहीं थी। आज भले ही बहुत कम लोग उस रक्तरंजित दौर के याद करना चाहें मगर यह सच है कि उन दिनों समाज के प्रबुद्ध तबके के हिस्सों ने शासक पार्टी की शह पर अंजाम दी गयी इस हिंसा को औचित्य प्रदान किया था और उसे लोगों की ‘स्वाभाविक प्रतिक्रिया’ कहा था। वर्ष 2002 में सूबा गुजरात में सत्ताधारी पार्टी की शह पर अंजाम दी गयी हिंसा को भी उसके अंजामकर्ताओं ने उसी तरह ‘क्रिया-प्रतिक्रिया’ के आवरण में पेश किया था।
कई तरीके हो सकते हैं जिसके माध्यम से बाहरी दुनिया के सामने भारत को प्रस्तुत किया जाता है, प्रोजेक्ट किया जाता है। कुछ लोगों के लिए वह दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है, जबकि बाकियों के लिए वह दुनिया की तेज गति से चल रही अर्थव्यवस्था है जिसका अब विश्व मंच पर ‘आगमन’ हो चुका है। लेकिन शायद ही कोई हो यह कहता है कि वह ‘जनअपराधों की भूमि’ है जहाँ ऐसे अपराधों के अंजामकर्ताओं को शायद ही सज़ा मिलती हो। जनमत को प्रभावित करने वाले लोग कहीं भी उस अपवित्र गठबन्धन की चर्चा नहीं करते हैं जो सियासतदानों, माफियागिरोहों और कानून एवं व्यवस्था के रखवालों के बीच उभरा है जहाँ ‘जनअपराधों को अदृश्य करने’ की कला में महारत हासिल की गयी है। और ऐसे जनअपराधों के निशाने पर - धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के लोग, सामाजिक श्रेणियों में सबसे नीचली कतार में बैठे लोग या देश के मेहनतकश - दिखते हैं।
क्या कोई इस बात पर यकीन कर सकता है कि 42 दलितों - जिनमें मुख्यतः महिलाएं और बच्चे शामिल थे - का आज़ाद हिन्दोस्तां का ‘पहला’ कतलेआम तमिलनाडु के तंजावुर जिले के किझेवनमन्नी में (1969) में सामने आया था जहाँ तथाकथित उंची जाति के भूस्वामियों ने इसे अंजाम दिया था, मगर सभी इस मामले में बेदाग बरी हुए क्योंकि अदालती फैसले में यह कहा गया कि ‘इस बात से आसानी से यकीन नहीं किया जा सकता कि उंची जाति के यह लोग पैदल उस दलित बस्ती तक पहुंचे होंगे।’ गौरतलब है कि कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में मजदूरों ने वहाँ हड़ताल की थी और अदालत में भले ही उन शोषितों को न्याय नहीं मिला होगा मगर वहाँ के संघर्षरत साथियों ने भूस्वामियों के हाथों मारे गए इन शहीदों की स्मृतियों को आज भी संजो कर रखा है, हर साल वहाँ 25 दिसम्बर को - जब यह घटना हुई थी - हजारों की तादाद में लोग जुटते हैं और चन्द रोज पहले यहाँ उनकी याद में एक स्मारक का भी निर्माण किया गया।
अगर हम स्वतंत्र भारत के 60 साला इतिहास पर सरसरी निगाह डालें तो यह बात साफ होती है कि चाहे किझेवनमन्नी, या हाशिमपुरा (जब यू पी के मेरठ में दंगे के वातावरण में वहाँ के 42 मुसलमानों को प्रांतीय पुलिस ने सरेआम घर से निकाल कर भून दिया था 1986), ना बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बम्बई में शिवसेना जैसे संगठनों द्वारा प्रायोजित दंगों में मारे गए 1,800 लोग (जिनका बहुलांश अल्पसंख्यकों का था, 1992 और जिसको लेकर श्रीकृष्ण आयोग ने अपनी रिपोर्ट भी दी है), ना ही राजस्थान के कुम्हेर में हुए दलितों के कतलेआम (1993) और न ही अतिवादी तत्वों द्वारा किया गया कश्मीरी पंडितों के संहार (1990) जैसे तमाम मामलों में किसी को दंडित किया जा सका है। देश के विभिन्न हिस्सों में हुए ऐसे ही संहारों को लेकर ढेर सारे आंकड़े पेश किए जा सकते हैं।
और हम यह भी देखते हैं कि उत्तर पूर्व और कश्मीर जैसे इलाकों में, दशकों से कायम सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम जैसे दमनकारी कानूनों ने सुरक्षा बलों को एक ऐसा कवच प्रदान किया है कि मनगढंत वजहों से उनके द्वारा की जाने वाली मासूमों की हत्या अब आम बात हो गयी है। हम सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मणिुपर की फर्जी मुठभेड़ों को लेकर बनाए गए सन्तोष हेगड़े कमीशन की रिपोर्ट हालिया रिपोर्ट पढ़ सकते हैं और जिन चुनिन्दा घटनाओं की जांच के लिए उन्हें कहा गया था उसका विवरण देख सकते हैं। बहुत कम लोग इस तथ्य को स्वीकारना चाहेंगे कि कश्मीर आज दुनिया का सबसे सैन्यीकृत इलाका है और विगत दो दशकों के दौरान वहाँ हजारों निरपराध मार दिए गए हैं।
आप यह जान कर भी विस्मित होंगे कि किस तरह ऐस जनअपराधों को या मानवता के खिलाफ अपराधों को सत्ताधारी तबकों द्वारा औचित्य प्रदान किया जाता है या वैधता दी जाती है, जहाँ मुल्क का प्रधानमंत्री राजधानी में सिखों के कतलेआम के बाद - जिसे उसकी पार्टी के सदस्यों ने ही अंजाम दिया - यह कहता मिले कि ‘जब बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन हिलती ही है।’ या किसी राज्य का मुख्यमंत्री उसके अपने राज्य में मासूमों के कतलेआम को न्यूटन के ‘क्रिया प्रतिक्रिया’ के सिद्धान्त से औचित्य प्रदान करे।
ऐसे तमाम बुद्धिजीवी जो ‘हमारी महान संस्कृति’ में निहित सहिष्णुता से सम्मोहित रहते हैं और उसकी समावेशिता का गुणगान करते रहते हैं, वह यह जान कर आश्चर्यचकित होंगे कि किस तरह आम जन, अमन पसन्द कहलानेवाले साधारण लोग रातों रात अपने ही पड़ोसियों के हत्यारों या बलात्कारियों में रूपान्तरित होने केा तैयार रहते है और किस तरह इस समूचे हिंसाचार और उसकी ‘उत्सवी सहभागिता’ के बाद वही लोग चुप्पी का षडयंत्र कायम कर लेते हैं। बिहार का भागलपुर इसकी एक मिसाल है - जहाँ 1989 के दंगों में आधिकारिक तौर पर एक हजार लोग मारे गए थे, जिनका बहुलांश मुसलमानों का था - जहाँ लोगाईं नामक गांव की घटना आज भी सिहरन पैदा करती है। दंगे में गांव के 116 मुसलमानों को मार दिया गया था और एक खेत में गाड़ दिया गया था और उस पर गोबी उगा दिया गया था।
निस्सन्देह अल्पसंख्यक अधिकारों के सबसे बड़े उल्लंघनकर


