........कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी......

संजीव ‘मजदूर’ झा.

25 जून से जंतर-मंतर पर एक अध्यापक, उन्मादी भीड़ द्वारा किए गए सांप्रदायिक हत्या के विरोध में 7 दिनों तक के उपवास से अपना विरोध दर्ज करा रहा है. इस विरोध को किसी एक आधार पर व्याख्यायित नहीं किया जा सकता है. क्योंकि यह सिर्फ किसी भीड़ का विरोध नहीं है और ना ही किसी एक जुनैद के पक्ष में समर्थन के रूप में समझा जाना चाहिए.

यह विरोध उस मानसिकता का विरोध है जो इस तरह के सांप्रदायिक भीड़ को पैदा करती है.

यह विरोध उस व्यवस्था का विरोध है जो इंसानों के बीच समानता का नहीं बल्कि असमानता का पाठ पढ़ाता है और यह विरोध उस समय के प्रति भी है जो हमें व्यक्तिकता में उलझे रहने के लिए प्रेरित करते हुए समाज से काटने का काम करता है. इसलिए इस विरोध को इसकी व्यापकता में समझने की आवश्यकता है.

मैं हमेशा से इस बात पर जोर देकर कहता रहा हूँ कि दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के शिक्षक विरोध की उस परंपरा को भी कायम रखे हुए हैं जो शिक्षक जैसे सामाजिक पदों की गरिमा को बरकरार रखे हुए है अन्यथा ज्यादातर विश्वविद्यालयों और उनके शिक्षकों को सत्ता के अधीन होने में ही सुख की प्राप्ति होती है. यदि ऐसा नहीं होता तो ‘विश्वविद्यालय साहित्य के कब्रिस्तान हैं’ और विश्वविद्यालय ज्ञान के कब्रिस्तान हैं’ जैसे आलेख नहीं लिखे गए होते.

ऐसे समय में डॉ. प्रेम सिंह द्वारा सात दिनों के इस अनशन से शिक्षा व्यवस्था की वह परिभाषा और सुदृढ़ होती है जिसमें उसके सामाजिक सरोकारों की बातें लक्षित होती हैं. इस अनशन को राज्य से निडरता के प्रतीक के रूप में भी व्याख्यायित किए जाने की आवश्यकता है. राज्य जिस मानसिकता के कारण भोजन से लेकर पहनावे तक में अलगाववादी रवैये को प्राथमिकता दे रही है उसका विरोध वाजिब भी है और जरूरी भी. किसी भी स्थिति में क्या यह संभव है कि एक अध्यापक अपने छात्रों में हिन्दू और मुस्लिम होने के आधार पर फ़र्क करे? या फिर क्षेत्र के आधार पर प्राथमिकता को तय करे? यदि नहीं तो यह उस शिक्षक का कर्तव्य भी हो जाता है कि अपने आस-पास इस तरह की स्थितियों का खुले तौर पर विरोध करे. डॉ. प्रेम सिंह राज्य के ख़िलाफ यह विरोध कर रहे हैं और उनके विश्वविद्यालय और अन्य जगहों से उनके समर्थन में आए लोग यह स्पष्ट रूप से संकेत दे रहे हैं कि वे सभी इस मानसिकता के खिलाफ हैं.

डॉ. प्रेम सिंह के विरोध के सैद्धांतिक तौर-तरीकों पर बहस की जा सकती है लेकिन किसी भी आधार पर यह तर्क नहीं गढ़ा जा सकता है कि उनकी मांगें गैर-सामाजिक हैं. इसलिए यह जरुरी हो उठता है कि अपने-अपने स्तर से उनके पक्ष में, उनकी मांगों में, उनके इस विरोध में सहयोग किया जाए. क्योंकि यह सहयोग किसी प्रेम सिंह का सहयोग करना नहीं है बल्कि उस मानसिकता का सहयोग करना है जिसके केंद्र में अलगाववादी व्यवस्था का विरोध है.

उनके इस विरोध पर बहुत कुछ कहने-सुनने से अधिक मैं हस्तक्षेप के इस मंच से अपील करना जरुरी समझता हूँ. इसलिए मैं अपील करता हूँ कि –

“ दिल्ली और देश भर के छात्रों से मेरा अपील है कि उस शिक्षक के साथ खड़े हो जाइए जो सिर्फ आपको शिक्षित करना ही अपनी जिम्मेदारी का इतिश्री नहीं समझता है, बल्कि आपके लिए एक ऐसे समाज की स्थापना के लिए भी संघर्षशील है जो आपको एक बेहतर समाज देना चाहता है. ऐसा समाज जहाँ हिन्दू-मुस्लिम या ऊँच-नीच का भेद-भाव न हो. इसलिए जरुरी है कि उनके इस प्रतिरोध में खुल कर उनका सहयोग करें ताकि भेद-भाव की राजनीति करने वाले भी यह समझ सकें कि उनके द्वारा लगातार हमारी हत्या पर भी हमारे अन्दर कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी.”

इसलिए जो दिल्ली में हैं वे जंतर-मंतर पहुंचें और जो बाहर हैं वे लिखकर-बोलकर, कविता से, लेख से व्यंग्य से जैसे भी बन पड़े सहयोग करें. ध्यान रहे हमारे भविष्य के लिए प्रतिबद्ध हमारे अध्यापकों को हमसे निराशा न प्राप्त हो.

डॉ. प्रेम सिंह और दिल्ली में उनके साथ खड़े सभी साथियों के लिए इन्कलाब जिंदाबाद.