फ़रहाना रियाज़
किसी संस्कृति को अगर समझना है तो सबसे आसन तरीक़ा है हम उस संस्कृति में महिलाओं के हालात समझने की कोशिश करें क्यूँकि स्त्रियाँ समाज के सांस्कृतिक चेहरे का दर्पण होती हैं।
अगर किसी देश में महिलाओं का जीवन उन्मुक्त है तो सीधा सा मतलब निकलता है कि उस देश का समाज उन्मुक्त समाज है। जब इस बात को हम भारतीय समाज के सन्दर्भ में देखते हैं तो हम पाते हैं कि भले ही भारतीय समाज में महिलाओं ने सामाजिक , आर्थिक राजनैतिक तौर पर कितनी भी उन्नति कर ली हो लेकिन इन सबके बावजूद अगर हम महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ रहे अत्याचारों पर नज़र डालें तो आज भी मैथलीशरण गुप्त की ये पक्तियाँ “अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,आँचल में है दूध और आँखों में है पानी” समाज में महिलाओं की स्थिति पर सटीक बैठती हैं ।
अभी हाल ही की घटनाओं पर नज़र डाली जाए तो अश्लील संदेश' भेजने को लेकर राज्य के मानवाधिकार आयोग के अधिकारी के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराने वाली एक युवा महिला आईएएस अधिकारी का ये कहना 'मैं बस यही दुआ कर सकती हूं कि इस देश में कोई महिला ना जन्मे' हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति की असल हक़ीक़त दिखाने के लिए काफी है।
कोई ऐसा दिन नहीं होता है जब देश के किसी कोने से महिला अत्याचार की ख़बर न पढने को मिलती हों । महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों की खबरों को रोज़-रोज़ पढ़कर हम भी इसके इतने आदि होते जा रहे हैं, जब तक इस तरह की घटनाएँ देश की राजधानी या किसी बड़े शहर में घटित होती हैं तब ही इस तरह की घटनाओं पर समाज गंभीर दिखाई देता है थोड़े दिन धरने, प्रदर्शन होते हैं जिसके नतीजे में जाँच का आश्वासन ,मुआवजा दिया जाता है और फिर हम सब भूल
जाते हैं।
रोज़-रोज़ हो रही इन घटनाओं को देखकर मन व्यथित है। आखिर कैसे इन अपराधों पर अंकुश लगेगा।
अगर देखा जाए देश में महिला सुरक्षा के लिए कड़े क़ानून बनाये गये हैं।
राजधानी दिल्ली में 16 दिसंबर 2012 को हुए निर्भया गैंगरेप के बाद दण्ड विधि (संशोधन) 2013 पारित किया गया और ये क़ानून 3 अप्रैल 2013 को देश में लागू हो गया । इस क़ानून में प्रावधान किया गया कि एसिड अटैक करने वाले को 10 वर्ष की सज़ा और रेप के मामले में पीड़िता की अगर मौत हो जाती है तो बलात्कारी को 20 वर्ष की सज़ा इसके अलावा महिलाओं के विरुद्ध अपराध की एफ़आईआर दर्ज नहीं करने वाले पुलिसकर्मी को भी दंडित करने का प्रावधान है। इस क़ानून के मुताबिक़ महिलाओं का पीछा करने और घूर-घूर कर देखने को भी ग़ैर ज़मानती अपराध घोषित किया गया है। लेकिन इतने कड़े क़ानून होने के बावजूद भी अपराधियों के मन में सज़ा का भय नहीं हैं क्यूँकि अक्सर मामलों में देखा जाता है कि क़ानून में अपराधियों के बच निकलने के सारे रास्ते मौजूद होते हैं।
अपराधियों के हौसले कितने बुलंद हैं इसका अंदाज़ा हम हरियाणा में हुई उस घटना से लगा सकते हैं जिसमें गैंगरेप की शिकार एक लड़की के साथ ज़मानत पर आये आरोपियों ने उसी लड़की के साथ दुबारा गैंगरेप किया। इस घटना को मद्देनज़र रखते हुए अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि क़ानूनी प्रावधानों से ऐसी घटनाओं को रोकने में कितनी मदद मिलेगी ?
इस घटना के मद्देनज़र रखते हुए यही सवाल उठता है कि क्या कारण है कि देश में महिला सुरक्षा के लिए कड़े क़ानून बनाये जाने के बाद भी ये घटनाएं कम नहीं हो रही हैं ?
दरअसल महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ रहे इन जघन्य अपराधों की असल वजह हमारे समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता है।
समाज में महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रही इन घटनाओं को रोकने के लिए हमें समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता में बदलाव लाना ही होगा। हमारे समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता की कितनी गहरी पैठ है इस बात का अंदाज़ा, निर्भया गैंगरेप में मुख्य आरोपी ड्राइवर मुकेश जिसे इस जघन्य हत्याकांड में फांसी की सज़ा मिली हुई थी, के ‘निर्भया डाक्यूमेंट्री’ में दिए गये बयान से लगा सकते हैं, जिसने रेप के लिए निर्भया को ही ज़िम्मेदार ठहराते हुए उसके चरित्र पर ही ऊँगली उठा दी थी।
जो बलात्कारी जानता है कि उसको फाँसी की सज़ा सुनायी जा चुकी है और वो मरने वाला है, लेकिन फिर भी उसके अंदर ज़रा भी डर नहीं, वो ज़रा भी नहीं बदला! उल्टे वो अपने कृत्य को ही सही ठहरा रहा है।
मुकेश तो खैर ज़्यादा पढ़ा लिखा नहीं था लेकिन इस केस में बचाव पक्ष के वकील द्वारा ‘डाक्यूमेंट्री’ में दिए गये बयान ने हमारे सभ्य, प्रगतिशील समाज की कलई खोल दी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘मेरी बेटी अगर रात को अगर अपने पुरुष मित्र के साथ बाहर निकलती तो उसे तेल छिड़क कर जिंदा जला देता’।
इसी तरह ऐसे मामलों राजनेताओं द्वारा दिए गये ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयान भी समाज की मानसिकता को ज़ाहिर करते हैं।
यही पितृसत्तात्मक मानसिकता हमारे समाज मे महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों को बढ़ावा दे रही है । इन अपराधों को रोकने के लिए इस पुरुष प्रधान मानसिकता में बदलाव लाना ही होगा तभी महिलाओं की स्थिति में सुधार हो सकता है । इसका मतलब यह नहीं है कि पुरुष समाज के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलकर भड़ास निकाली जाए क्यूँकि सभी पुरुषों की सोच ऐसी नहीं होती बल्कि हमें उस मानसिकता पर प्रहार करना होगा जो स्त्री विरोधी है। इसकी शुरुआत हमें घर से करनी होगी अपने बच्चों को लिंग-भेद वाली परवरिश से बचाना होगा। समाज में परिवार या खानदान की इज्ज़त का प्रतीक सिर्फ बेटियों को न बनाकर ये ज़िम्मेदारी बेटों के कंधे पर भी डालनी होगी। उनकी परवरिश के दौरान ऐसी शिक्षा देनी होगी कि वो इस बात को समझें कि महिलाएं भी इंसान हैं और हर इंसान के मानवाधिकारों की सुरक्षा करना हमारा कर्तव्य है जिससे वो अपनी माँ बहन बेटी के साथ दूसरी महिलाओं को भी सम्मान देना सीखें।
महिलाओं को स्वयं भी अपने लिए आवाज़ उठानी होगी क्यूँकि अकसर देखा जाता है कि जब भी किसी धर्म, जाति, राजनैतिक दल से जुड़े लोग दूसरे धर्म जाति, राजनैतिक दल की महिला को निशाना बनाते हैं तब उनके परिवार, धर्म, जाति, दल से जुडी महिलाएं भी इस तरह की घटनाओं में उनका साथ देती हैं, उनका बचाव करती हैं। इसलिए पुरुषों के साथ महिलाओं को स्वयं में भी बदलाव लाना ही होगा उनको ये सोचना होगा कि किसी की माँ ,बहन,बीवी बेटी होने से पहले वह स्वयं भी एक महिला हैं तभी महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे इन अत्याचारों को रोका जा सकता है अन्यथा इसके गंभीर परिणाम हम सबको भुगतने पड़ेंगे क्यूँकि आज पीड़िता कोई और है कल हम भी इसी लाइन में खड़े मिल सकते हैं।
फ़रहाना रियाज़, स्वतंत्र टिप्पणीकार व पत्रकार हैं।