कोई भी सरकार हो जब टकराव होता है तो कीमत पत्रकार को ही चुकानी पड़ती है
कोई भी सरकार हो जब टकराव होता है तो कीमत पत्रकार को ही चुकानी पड़ती है
अंबरीश कुमार
यह बंजर नदी है। मंडला के जंगल से गुजरती हुई जंगल को बांटती हुई।
अपना मन जंगल में ज्यादा लगता है। इसी नदी के किनारे आज जब चर्चा हुई किसी ने पत्रकार नेहा दीक्षित का सवाल उठाया और बताया कि एक पत्रिका के संपादक को हटना पड़ा।
अपनी सक्षिप्त टिप्पणी थी कि सिर्फ भाजपा सरकार यह कर रही हो ऐसा नहीं है।
पंद्रह साल पहले बस्तर में मेधा पाटकर नगरनार स्टील प्लांट के मुद्दे पर जब मेरे साथ जगदलपुर गई तो उनपर जानलेवा हमला हुआ। जोगी की सरकार थी। अपना भी टकराव हुआ और अंततः एक्सप्रेस प्रबंधन ने मेरा तबादला कर दिया।
तब वे संपादक भी नहीं बोले जो आज बोल रहे हैं।
यह कांग्रेस का राज था।
बहनजी के राज में हिंदुस्तान टाइम्स के लखनऊ के संपादक सीके नायडू को सिर्फ एक फोटो प्रकाशित होने की वजह से हटा दिया गया मुख्यमंत्री के दबाव में तबभी कोई बड़े संपादक नहीं बोले।
भाजपा से अपनी नहीं बनती पर विरोध तो उन गैर भाजपा नेताओं का भी होना चाहिए जिन्होंने पत्रकारों से राजनैतिक बदला लिया है।
नेहा दीक्षित का समर्थन करते हुए इसपर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। हम भी इस तरह किसी संपादक को हटाये जाने का विरोध करते हैं, पर कांग्रेस ने भी यह किया था यह बताते हुए।
कोई भी सरकार हो जब टकराव होता है तो कीमत पत्रकार को ही चुकानी पड़ती है।


