कौन हैं सुन्नी, कहां है सुन्नियत…….?
ज़ुलैख़ा जबीं
हर बार की तरह इस बरस भी जश्ने ईद मिलादुन्नबी के लिए मस्जिदें दुल्हन की तरह सजाई गयी हैं गली, मोहल्ले, सड़कें, रंगीन झंडियों और क़ुमक़ुमी रंगीन झालरों से जगमगाते हर तरफ़ नज़र आ हैं.
इस्लामी लेहाज़ से ये महीना आख़िरी पयम्बर मो.रसूलुल्लाह(सअव) की पैदाइशका है इसलिए इस दिन को अपनी अपनी अक़ीदत के मुताबिक़
सभी मुसलमान बड़े एहतराम और धूमधाम से मनाते आए हैं-मगर अब दिनों दिन, हर बरस जश्ने पैदाइश के समारोह भव्य से भव्यतम होते जा रहे हैं (पिछले दो दशकों पे ग़ौर किया जाए तो हर बरस यौमे पैदाइश जलसों का तामझाम ज़्यादा से ज़्यादा दिखावों में बदलने लगा है)
ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि एक ʺपरंपरागत तौरʼʼ पे अब ईद मिलादुन्नबी का शालीन जश्न ʺहिंसक ज़िदʼʼ की तरह दिखाई पड़ने लगा है जिसका ग्राफ़ हर बरस बढ़ता ही जा रहा है।
बड़े पैमाने पे की जा रही तैयारियां, शहर भर को सजाने के लिए झंडियां, बैनर्स, झालरें, आतिशबाज़ियां, रौशनियां और इस दिन के लिए दौड़ने वाली गाड़ियां और दूसरे कई तरह के इन्तेज़ामात के लिए पानी की तरह रूपया भी ख़ूब बहाया जाता है.
इतने आला दर्जे के इन्तेज़ामात को देखकर तो कहीं से नहीं लगता कि मुल्क का मुसलमान ग़रीब, पिछड़ा और ख़स्ताहाल है.

हर उस जगह जहां मुस्लिम हैं, जश्न मनाने के लिए बजट बनाया जाता है और फिर इलाक़े के मुसलामानों से वसूला जाता है. ये वो दर्द है जो बाहर से नज़र नहीं आता.
सब जानते हैं कि ज़्यादातर मुसलमान मोहल्ले, बस्तियों में रहते हैं. ये बताने की ज़रूरत नहीं कि उनका रोज़गार भी छोटा मोटा, रोज़ कमाने, रोज़ खाने जैसा होता है. इनमें ज़्यादातर मज़दूर होते हैं वो भी असंगठित क्षेत्र के. अतः रोज़ी भी कोई हज़ारों रूपए दिहाड़ी की नहीं होती. मोटर मेकैनिक (ऑटो चालक, सायकिल रिक्शा चालक, चाय पान की गुमटी लगाना, रेहड़ियां लगाना) सब्ज़ी का ठेला लगाना, हाथ ठेला खींचना या फिर कपड़े या अन्य सामानों की फेरी लगाने जैसे रोज़गार से कितनी आमदनी हो सकती है, उसपर सुरसा के खुले मुंह सी बढ़ती महंगाई. कमाने को सिर्फ़ दो हाथ खाने वाले कई पेट. गुनाह में भागीदारी के डर से ऐसी ग़ैर इस्लामी रवायत को बेबस ग़रीब मुसलमान ढ़ोने के लिए मजबूर हैं-
हर बरस के दर्ज़नों दिनों के जश्न मनाने के रिवाज़ का अगर मोटा मोटी हिसाब लगाया जाए तो मुल्क भर में अरबों रूपए इलेक्ट्रीशियन, टेंट वालों, फ्लैक्स से झंडे, बैनर बनाने वालों डीजे और टैक्सियां चलाने वालों पर ख़र्च किये जाते हैं.

अगर इसका पांचवां या छठा हिस्सा भी इस्लामी तौर तरीक़ों को नज़र में रखते हुए ख़र्च किया जाए (जिसकी मिसाल अल्लाह के रसूल सअव अपनी ज़िन्दगी में मय सहाबा और सहाबियों के क़ायम कर गए हैं) तो एक भी मुस्लमान ग़रीब, बीमार, अशिक्षित, बेरोज़गार, पिछड़ा, नशेड़ी, अपराधी बन ही नहीं सकता...
जो इस्लाम, इंसानी समाज से ग़ैरबराबरी, बेइन्साफ़ी, ग़ैरइंसानी (अमानवीय) ज़ुल्म&ज़्यादतियों (उत्पीड़न अत्याचार) बूढ़ों, बच्चों, औरतों, ग़ुलामों के साथ शोषण के ख़िलाफ़ रणनीतिक योजना के तहत 1500बरस पहले एक किताब (क़ुरआन) की शक्ल में लिखित आदेश की तरह आया. जिस नीति से समाजी ज़िन्दगी जीने के तौर तरीक़े और दिक़्क़तों से उबरने के लिए, मौजूदा व्यवस्था के तहत फ़ैसले लेकर, नीतियां बनाकर, समाज में सुकून, अमन, चैन और सभी को बराबर से इन्साफ़ देने की मंशा के तहत, यह मानते हुए कि इंसान सामाजिक प्राणी है, विविधताओं वाले समाज में आपसी मोहब्बत, ख़ुलूस, इख़लाक़, रहमदिली, हमदर्दी के साथ किस तरह रहा जाए, इस तरीक़े का किरदार लेकर एक मुसलमान की ज़िन्दगी का ख़ाका तैयार किया गया हो, उस मज़हब की छीछालेदर उसके मानने वालों ने ही कर रखी है.
ग़ौर तलब है कि मिलादुन्नबी के निकाले जाने वाले जुलूस में एक ख़ास मर्दाना हुलिये में, निश्चित ड्रेसकोड में, कलफ़ लगे कपड़ों की तरह अकड़ कर चलते मर्दों के हुजूम में कितने ऐसे होंगे जो ख़ुद को सुन्नी कहाने में फ़ख़्र महसूस करते हैं, मगर अपने रसूल सअव की एक भी सुन्नत पे ज़र्रा बराबर भी अमल नहीं करते।
उस जुलूस में ज़्यादातर ऐसे मर्द होंगे जो शराब, गुटखा या दूसरे कई तरह के नशे के आदी होंगे और बेशर्मी से सड़कों पे पीक उड़ाते नज़र आएंगे. ब्याज और सूद का धंधा करके, रिश्वतें खाकर अपनी बिल्डिंगें खड़ी किए हुए कई मर्द उस जुलूस में नज़र आएंगे (क़ुरआन ने ऐसे रोज़गार की कमाई को हरामकारी क़रार दिया है)

क़ाबिले ग़ौर बात ये है कि उस जुलूस में शायद ही कोई मर्द ऐसा होगा जिसका पहला निकाह अपने उम्र से बड़ी किसी ग़रीब की कम ख़ूबसूरत बेवा या तलाक़ शुदा बेटी से किया गया हो।
उस जुलूस में शायद ही कोई ऐसा मर्द हो जिसने अपनी बहन और बेटियों को जायदाद में उनका हिस्सा दिया/ दिलवाया हो।
शायद ही कोई ऐसा मर्द उस जुलूस में होगा जिसने अपनी पहली बीवी की मौत के बाद दूसरी शादी किसी उम्रदराज़ या बच्चों वाली, तलाक़शुदा या बेवा से की होगी।
यहाँ ऐसे बहुत मर्द मिल जायेंगे जो बग़ैर किसी जायज़ वजह के (जो क़ुरआन में बताई गई है) कई औरतों से शादी रचाए होंगे या बग़ैर निकाह के किसी औरत से जिस्मानी रिश्ता क़ायम किये होंगे (जो खुलेआम मौजूदा निकाही बीवी के हुक़ूक़ छीन रहे होंगे)
उस जुलूस में शायद ही कोई मर्द ऐसा होगा जो अपनी या अपने बेटों की शादी किसी ग़रीब की लड़की से बग़ैर दहेज लिए किया हो-
शायद ही कोई ऐसा मर्द उस जुलुस में होगा, जिसने अपने घर के चारों तरफ़ के 160 पड़ौसी घरों के लोगों की परवाह कर रहा हो- और जिसके पड़ौस में बीमार परेशान कई वक़्तों का फ़ाक़ा (भूखे पेट) करने वाले, ग़रीबी के एवज़ जो अपने अज़ीज़ों का इलाज न करवा पा रहे हों, अपने बच्चो को अच्छी तालीम न दिलवा पा रहे हों, दहेज़ न जुटा पाने की वजह से जवान बेटी का निकाह न पढ़वा पा रहे हों, तलाक़शुदा बेटी को उसका जायज़ हक़ न दिलवा पाने की बेचारगी में ज़िंदा न हों-
उस जुलूस में शायद ही कोई मर्द ऐसा होगा जिसने अपनी बीवी की पिटाई न की हो या उसके साथ माँ, बहन की गालियों से न पेश आया हो।
उस जुलुस में शायद ही कोई मर्द ऐसा हो जिसने अपनी बीवी की मर्ज़ी के बग़ैर या उसके माहवारी के दिनों में, ज़बरदस्ती जिस्मानी रिश्ता क़ायम न किया हो-
उस जुलूस में शायद ही कोई मर्द ऐसा हो जो सर पे टोपी और चेहरे पे दाढ़ी रखी होने के बावजूद सड़क से गुज़रती पर्दा नशीन खवातीनों के जिस्म का अपनी आँखों से पोस्टमार्टम न किया हो-
उस जुलूस में शायद ही कोई मर्द ऐसा हो जो अपने ख़ुद के बच्चे को दूध पिलाने पर माँ (अपनी बीवी) को खुशी से तोहफ़े या सौग़ात दिया करता हो—
ये सब वे सुबूत हैं जो एक मुसलमान मर्द पे फ़र्ज़ और वाजिब दोनों हैं. जिसका पालन रसूल सअव ने अपनी ज़िन्दगी में हर रोज़ किया है- यही नहीं सहाबियों और उस दौर के आशिक़े रसूलों ने ख़ुद पे इन नियमों को आदत बना लिया और अपनी अगली पीढ़ियों में इसे ट्रांसफ़र भी किया—
लेकिन आज हिन्दोस्तानी मुस्लिम समाज में ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आ रहा है- जो दिखाई दे रहा है वो बेहद डरावना और ख़तरनाक है— मुसलमानों ने अपनी तो क्या ग़ैर औरतों की भी इज़्ज़त करना छोड़ दिया है- मर्दों की तो छोड़िये- नाबालिग बेटे हैवानों की तरह छोटी बच्चियों @औरतों का बेरहमी से बलात्कार करते हैं, उन्हें जान से मार डालते हैं- अगर कोई क़ानून की गिरफ्त में आता भी है तो नाबालिग होने की आड़ में छूट जाता है (निर्भया का बलात्कारी क़ातिल) मगर मुस्लिम मआशरा (समाज) इस तरफ से अपनी जुबां और आँखें मूँद लेता है-
मन मुआफ़िक़ दहेज़ न ला पाने के एवज़ बहुओं की पिटाई की जा रही है उन्हें घर से बेघर किया जा रहा है— यहाँ तक की उन्हें ज़िंदा जला दिया जा रहा है- बेटियों और बहुओं के साथ घरेलू हिंसा के ऐसे ऐसे कारनामे अंजाम दिए जा रहे हैं कि सुनकर रूह कांप जाए— बग़ैर किसी गंभीर वजह के, बग़ैर औरत को बताये, उसकी मंजूरी के बग़ैर एक ही बार में तीन तलाक़ कह कर, ज़लील करके औरतों को घर से निकाल दिया जाता है, पारिवारिक मसलों के निपटारे के नाम पे बनी शरई अदालतें बग़ैर तफ़्सील जाने, बग़ैर ये तफ़्तीश किये कि तलाक़ की असली वजह क्या है एकतरफ़ा शौहर के बताये हुए पे यक़ीन करके, तलाक़नामे पर दस्तख़त की, मुहर ठोंक दी उनका काम ख़त्म…
झूठ, फ़रेब, मक्कारी और चापलूसी की बदबूदार दलदल में गले तक डूबे ये मुसलमान मर्द, किस तरह रसूल (सअव) के वारिस होने का दावा कर सकते हैं? जिनके हाथ अपने ही बच्चों, औरतों और बूढ़ों के ख़ून से सने हैं- भला ये किस तरह रसूल (सअव) की सच्चाई का अलम उठा सकते हैं? ये रसूल की सुन्नत अदा करने वाले मर्दे मुजाहिदों की सफ़ें (क़तार) हरगिज़ नहीं हो सकते हैं….
मर्दवादी नेज़ाम (व्यवस्था) के पोषक, मनुस्मृति पूजक, मिलादुन्नबी के जुलूस में उमड़े इस मरदाना हुजूम को अंधे, गूंगे, बहरे, ज़ालिम मर्दों की भीड़ ही कहा जा सकता है… आशिक़े रसूल (सअव) नहीं ……!