अरविंद भाई की कुछ ओवर तो बैटिंग देख लूँ!
राजनीति का रिवाज़ ऐसा है कि इसमें कपड़े धीरे-धीरे सफ़ेद होते जाते हैं और चेहरे धीरे-धीरे काले पड़ते जाते हैं।

अभिरंजन कुमार

आम आदमी पार्टी, काँग्रेस और जेडी (यू) को मेरी हार्दिक बधाइयां! जेडी (यू) को "छोटी वाली", आम आदमी पार्टी को "बड़ी वाली" और काँग्रेस को "बहुत बड़ी वाली!" लेकिन अरविंद केजरीवाल के काम का आकलन मैं लोकसभा चुनाव के बाद करूँगा, क्योंकि मैं मानता हूं कि लोकसभा चुनाव तक अब अन्य सभी राज्यों की तरह दिल्ली में भी सियासत ही होनी है। जैसी सियासत जिसकी यूएसपी है, वैसी सियासत वो करेगा। अरविंद भाई भी इसके अपवाद नहीं रहने वाले हैं।

अभी वे धुआँधार बल्लेबाज़ी करेंगे। आँख-कान मूँदकर छक्के-चौके लगाने की कोशिश करेंगे, बिल्कुल क्रिकेट के पिंच हिटर की तरह, क्योंकि उनपर जल्दी-जल्दी रन बनाने का दबाव है। लेकिन उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि दुनिया के बेहतरीन बल्लेबाज़ों में पिंच हिटरों का नहीं, बल्कि उनका नाम शुमार होता है, जो न सिर्फ़ पूरे मैच में, बल्कि पूरे करियर में कंसिस्टेंसी के साथ प्रदर्शन कर पाते हैं।

इस लिहाज से इस सरकार के पाँच साल के कार्यकाल की अगर 50 ओवर के वनडे मैच से तुलना करें, तो लोकसभा चुनाव तक महज चार-पाँच ओवर ही हो पायेंगे। और अभी तो पहले ओवर की गेंदें डाली जा रही हैं। इन शुरुआती ओवरों में आजकल पूरी दुनिया की क्रिकेट में धुआँधार बल्लेबाज़ी का चलन है। सो केजरीवाल भी वही करेंगे। लोकलुभावन घोषणाओं, योजनाओं और शिगूफ़ों के सहारे। उन्हें पता है कि इन ओवरों में अच्छा स्कोर कर लिया, तो बाद में आराम से बैटिंग का भरपूर मौका मिलेगा।

वैसे दिल्ली के लाखों लोगों की तरह मुझे भी केजरीवाल से काफ़ी उम्मीदें हैं। इसलिये कि हर नया आदमी एक नई सोच लेकर आता है और कुछ न कुछ नया ज़रूर करता है। आज के कई बेहद अलोकप्रिय नेता भी अपने शुरुआती दिनों में न सिर्फ़ काफ़ी लोकप्रिय थे, बल्कि उन्होंने कुछ न कुछ नया और दूसरों से अलग करने की कोशिशें भी कीं और समाज को लाभ भी मिला। हमारे बिहार के लालू यादव और नीतीश कुमार- दोनों के नाम इस संदर्भ में लिये जा सकते हैं।

दरअसल राजनीति का रिवाज़ ऐसा है कि इसमें कपड़े धीरे-धीरे सफ़ेद होते जाते हैं और चेहरे धीरे-धीरे काले पड़ते जाते हैं। जिनके चेहरे ज़्यादा काले और कपड़े ज़्यादा सफ़ेद नहीं हुये, वे राजनीति में ज़्यादा कामयाब नहीं हो पाए। हमारे वामपंथी भाई-बंधु इसके उदाहरण हैं। एबी बर्द्धन और गुरुदास दासगुप्ता जैसे बड़े कम्युनिस्ट आज भी केजरीवाल की तुलना में सस्ती, मैली और घिसी हुई कमीज़ पहनते हैं।

क्या आपको यह अजीब नहीं लगता कि सियासत के पहले कदम पर ही केजरीवाल को पहला बड़ा समझौता करना पड़ा- काँग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने का? क्या दूसरे, तीसरे और चौथे कदमों पर वह दूसरा, तीसरा और चौथा बड़ा समझौता नहीं कर लेंगे? आप मानें न मानें, मैं यह मानता हूँ कि काँग्रेस के समर्थन से सरकार बनाकर अपने आदर्श से वे नीचे गिरे हैं। इतना ही नहीं, उनके इस राजनीतिक व्यवहार से यह भी साबित हो गया कि काँग्रेस और भाजपा दोनों को आप चाहे जितना गरिया लें, लेकिन उनमें से किसी-न-किसी एक की झोली में जाकर आपको गिरना ही पड़ेगा। इन दोनों बड़ी पार्टियों के स्पर्श से दूर रहकर राजनीति करना इस वक़्त मुश्किल है।

ऐसे में मेरे मन में कई सवाल उठ रहे हैं-

क्या केजरीवाल ऊपर-ऊपर काँग्रेस के ख़िलाफ़ बोलते रहेंगे, लेकिन भीतर-भीतर उसके सामने घुटने टेक देंगे?
अगर केजरीवाल अपनी बात पर कायम रहते हैं, तो क्या शीला दीक्षित समेत दिल्ली काँग्रेस के बड़े नेताओं के ख़िलाफ़ सबूत जुटाकर उन्हें जेल भेजेंगे?
क्या लोकसभा चुनाव में भाजपा और नरेंद्र मोदी का रथ रोकने के लिये काँग्रेस दिल्ली में अपने आला नेताओं को बलि चढ़ जाने देगी?
क्या केजरीवाल यह समझ पा रहे हैं कि काँग्रेस उन्हें भाजपा के ख़िलाफ़ इस्तेमाल कर रही है और वे हो रहे हैं?
काँग्रेस और भाजपा दोनों को वे भले गरियाते रहे हों, लेकिन देश के लिये ज़्यादा बड़ा ख़तरा किसे मानते हैं?
लोकसभा में अगर दिल्ली विधानसभा जैसी त्रिशंकु स्थिति बनी, तो केजरीवाल किसके साथ जायेंगे- काँग्रेस-नीत संप्रग के साथ या फिर भाजपा-नीत राजग के साथ? अगर काँग्रेस या भाजपा के सहयोग से चंद्रशेखर, देवेगौड़ा और गुजराल की तरह उन्हें पीएम बनने का मौका मिला तो बन जायेंगे?
क्या केजरीवाल अलग टोपी, अलग नारे अपनाकर भी मायावती जैसी राजनीति करने वाले हैं? जब ज़रूरत पड़ी काँग्रेस के साथ, जब ज़रूरत पड़ी भाजपा के साथ? क्या आम आदमी पार्टी दूसरी बहुजन समाज पार्टी बनने वाली है?

मुझे लगता है कि केजरीवाल की असली परीक्षा इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द होनी है। वादों की फेहरिस्त का सवाल इसके बाद आयेगा। अभी तो उनको जितना समझ पा रहा हूँ, उससे यही लगता है कि जब तक वे सरकार चलाना चाहेंगे, तब तक काँग्रेस नेताओं के ख़िलाफ़ कुछ ख़ास नहीं करेंगे, लेकिन जब उन्हें लगेगा कि अब शहीद होने ही वाले हैं या फिर शहीद हो जाने में ही ज़्यादा फ़ायदा है, तो वे कुछ नेताओं की गर्दनें नापने की कोशिश कर सकते हैं।

बहरहाल, अभी मुझे कुछ ओवर अरविंद भाई की बैटिंग देखने दीजिये। इतना कबूल कर लेता हूँ कि फिलहाल उनकी बल्लेबाज़ी तकनीक और छक्के-चौके मुझे भी रोमांचित तो कर ही रहे हैं।

अभिरंजन कुमार, लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं, आर्यन टीवी में कार्यकारी संपादक रहे हैं।