क्या नरेंद्र मोदी का जादू सचमुच टूट चुका है?-हिंदुत्ववादी प्रधानमंत्री की मुश्किलें
क्या नरेंद्र मोदी का जादू सचमुच टूट चुका है?-हिंदुत्ववादी प्रधानमंत्री की मुश्किलें
August 11,2016 09:23
हिंदुत्ववादी प्रधानमंत्री की मुश्किलें 0
क्या नरेंद्र मोदी का जादू सचमुच टूट चुका है? पिछले हफ्ते की दो अलग-अलग किंतु आपस में जुड़ने वाली महत्वपूर्ण घटनाओं से तो ऐसा ही लगता है। यह छाप तब और भी पक्की हो जाती है, जब हम यह और जोड़ लेते हैं कि उक्त घटनाओं का संबंध गुजरात से है, जिसे राजनीतिक हलकों में नरेंद्र मेादी की राजनीतिक जागीर की तरह देखा जाने लगा था। इनमें पहली घटना तो 2014 के चुनाव के बाद, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा गांधीनगर में मुख्यमंत्री के पद पर अपनी उत्तराधारी बनाकर बैठायी गयी, आनंदी बेन पटेल के मुख्यमंत्री पद छोडऩे और अंतत: विजय रूपानी के गुजरात का नया मुख्यमंत्री बनाया जाना ही है।
मुख्यमंत्री पद के लिए रूपानी के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी साबित हुए नितिन पटेल के लिए गुजरात में भाजपा की सरकार में संभवत: पहली बार उप-मुख्यमंत्री बनाए जाने से, साफ हो जाता है कि इस संक्रमण को कम से कम एकदम निरापद तो किसी भी तरह से नहीं कहा जा सकता है। बहरहाल, गुजरात में भाजपा की सरकार के नये मुख्यमंत्री के चुनाव में हुई इस खींचतान के संकेतों की चर्चा हम आगे करेंगे। यहां तो हम इतना ही रेखांकित करना चाहेंगे कि गुजरात के अगले विधानसभाई चुनाव से करीब साल भर पहले आनंदी बेन पटेल की मुख्यमंत्री पद से छुट्टी किए जाने का, उनके कुछ ही महीनों में 75साल पूरे करने से, जिसे भाजपा तथा खुद आनंदी बेन की ओर से औपचारिक कारण के रूप में पेश किया है, शायद ही कोई संबंध है। दूसरी ओर इस फैसले का, सोमनाथ-गीर जिले के अंतर्गत उना में कथित गोरक्षकों द्वारा गोहत्या के संदेह के नाम पर, मरे पशुओं की खाल उतारने का काम करने वाले सात दलितों की बर्बर पिटाई की पिछले महीने के पूर्वार्द्ध की घटना से, जिसे हमला करने वालों ने इंटरनेट पर अपनी ‘बहादुरी’ का वीडियो डालकर सारी दुनिया को दिखाया भी और इस घटना पर देश भर में तथा सबसे बढ़कर गुजरात में आयी जबर्दस्त प्रतिक्रिया से, काफी सीधा संबंध है।
बेशक, विधानसभाई चुनाव से ठीक-ठाक पहले आनंदी बेन पटेल से छुट्टी पाने के भाजपा के मोदी-शाह नेतृत्व के फैसले का एक यही कारण नहीं था। वास्तव में इससे काफी पहले, आरक्षण की मांग को लेकर एक हद तक भाजपा नेतृत्व की नजर से अप्रत्याशित रूप से भड़के हार्दिक पटेल के नेतृत्व वाले पटेल आंदोलन को बिना ज्यादा राजनीतिक नुकसान के संभालने में आनंदी बेन की विफलता ने, काफी पहले ही उनके मुख्यमंत्री पद पर बने रहने को मुश्किल बना दिया था।
पटेल आंदोलन के प्रकटत: दबाए जाने की पृष्ठïभूमि में हुए ग्रामीण निकायों के चुनावों में लंबे अर्से के बाद कांग्रेस को भाजपा को काफी अंतर से पछाड़ने के बाद तो, एक तरह से आनंदी बेन की कुर्सी का फैसला ही हो गया था। इस लिहाज से उनके इस दावे में शायद ही कोई अतिरंजना हो कि उन्होंने तो दो महीने पहले ही भाजपा आलाकमान से मुख्यमंत्री पद छोडऩे की अपनी इच्छा जता दी थी। फिर भी, दो महीने पहले उनकी इच्छा के स्वीकार न किए जाने और अब उनसे एक प्रकार से इस्तीफा देने के लिए कह दिए जाने के बीच का जो अंतर है, वह साफ तौर पर उना की घटना के खिलाफ गुजरात में सामने आए दलितों के अभूतपूर्व उभार का ही नतीजा है।
इस जनउभार में उना की घटना के करीब दस दिन बाद हुआ जबर्दस्त गुजरातव्यापी बंद तो शामिल था ही, इसके अलावा अहमदाबाद में हुई दलितों की विशाल रैली भी शामिल थी, जिसमें मरे पशु उठाने तथा ठिकाने लगाने का परंपरागत काम ही बंद करने की शपथ ली गयी थी। वास्तव में इस अहमदाबाद रैली के चंद घंटों में ही आनंदीबेन फेसबुक पर अपने इस्तीफे का एलान कर चुकी थीं।
दूसरी घटना जैसे पहली का ही क्रमिक विकास हो, ठीक उस रोज हुई जब गुजरात में, बहुत से अनुमानों को झुठलाते हुए, आनंदी बेन के उत्तराधिकारी के रूप में विजय रूपानी के चुनाव का एलान किया गया। इस चुनाव की अपनी ही लंबी कहानी है, जिस पर हम बाद आएंगे। यहां सिर्फ इतना कि अगर खासतौर पर दलितों के गुजरात में भाजपा-आरएसएस राज के खिलाफ जबर्दस्त तरीके से सड़कों पर उतरने के सामने, आनंदी बेन की जगह पर रूपानी का मुख्यमंत्री के पद पर बैठाया जाना, इसका परोक्ष संकेत था कि गुजरात में दलितों की नाराजगी ने भाजपा-आरएसएस को गंभीर चिंता में डाल दिया है, तो नई-दिल्ली में अमरीकी शैली के एक टॉउनहाल आयोजन में प्रधानमंत्री मोदी ने ‘दिन में गोरक्षक रात में अपराधियों’ के खिलाफ बाकायदा हमला बोलकर प्रत्यक्ष रूप से, इन बढ़ते हिंदुत्ववादी हमलों पर दलितों की नाराजगी को दूर करने की कोशिश की थी, जिसे बाद में आंध्र प्रदेश में उन्होंने दोहराया भी। गोभक्तों और गोरक्षकों का अंतर रेखांकित करने तथा 80 फीसद गोरक्षकों की गाय के लिए आस्था संदिग्ध बताने और गोमाता के लिए कसाइयों से ज्यादा खतरा पॉलिथीन से बताने के बावजूद, प्रधानमंत्री मोदी के इस ‘गुस्से’ में भी महत्वपूर्ण चुप्पियां थीं, जो बहुत छुपी हुई भी नहीं थीं।
सबसे बड़ी चुप्पी तो इसी तथ्य में छिपी हुई थी कि तथाकथित गोरक्षकों को अपनी करनियों से तथा चुप्पियों से दो साल तक बढ़ावा देते रहने के बाद ही, प्रधानमंत्री का यह गुस्सा जागा है! इसमें खुद नरेंद्र मोदी के अपने 2014 के चुनाव अभियान में देश में ‘पिंक क्रांति’ यानी गोवध को बढ़ावा देने के लिए अपने विरोधियों पर हमले करने से लेकर, पिछले दो साल में भाजपा की सरकारों द्वारा गोवध से लेकर गोमांस खाने तक पर रोक के कड़े कानून बनाए जाने और संजीव बलियान जैसे केंद्रीय मंत्रियों से लेकर संघ परिवार के विभिन्न बाजुओं द्वारा तथाकथित गोरक्षकों की गुंडागर्दी को बढ़ावा दिया जाने तक शामिल हैं।
वास्तव में प्रधानमंत्री को और उनके पीछे-पीछे आरएसएस को भी तब इन तथाकथित गोरक्षकों की हरकतों से चिंता हुई, जब उन्होंने अपने हमलों का दायरा चमड़े का काम करने वाले दलितों बढ़ा दिया। वर्ना गोमांस खाने की अफवाह पर अखलाक की हत्या से लेकर, गोतस्करी पकड़ने के नाम पर राजस्थान, हिमाचल तथा झारखंड में मवेशियों का कारेाबार करने वाले मुसलमानों की हत्याओं और जाहिर है कि मवेशी लाने-ले जाने वाले ट्रकों आदि पर उससे कई गुना ज्यादा हमलों तक तो, प्रधानमंत्री ने मौन ही साधे रहना बेहतर समझा था। यहां तक कि खुद भाजपा नेताओं समेत उनके अपने संघ परिवारियों द्वारा अखलाक के परिवार के लोगों पर ही गोहत्या के लिए एफआइआर दर्ज कराए जाने जैसा विद्रूप सामने आने पर भी, उनकी अंतरात्मा नहीं जागी। तब तक मुख्यत: मुसलमानों को निशाने पर लेने के चलते यह गुंडई, हिंदुत्ववादी गोलबंदी यानी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में मददगार जो थी। पर इस हिंदुत्ववादी गुंडागर्दी की आंच दलितों तक पहुंचते और खासतौर पर इसके खिलाफ दलितों के विद्रोही तेवर देखते ही, उन्हें इन हरकतों के समाज के लिए विभाजनकारी होने का बोध हो गया। यहां पहुंचकर ये हरकतें हिंदुत्ववादी विचारधारा के ब्राह्मणवादी चरित्र के बावजूद, येन-केन-प्रकारेण, दलितों के एक हिस्से को उसके साथ लामबंद करने की, उनकी राजनीतिक परियोजना में पलीता जो लगा रही थीं। लेकिन, इसके साथ ही गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी पर प्रधानमंत्री के रोष की सीमा भी सामने आ गयी।
एक ओर अगर प्रधानमंत्री के उक्त बयान के फौरन बाद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी एक हद तक प्रधानमंत्री की बात का अनुमोदन करते हुए, गोरक्षा के नाम पर कानून अपने हाथ में लेने वालों से खुद को अलग किया, तो दूसरी ओर आरएसएस के प्रवक्ताओं ने गोरक्षा के नाम पर 80 फीसद लोगों के दूकानें चला रहे होने प्रधानमंत्री के बयान से सिर्फ असहमति ही नहीं जतायी है, आग्रहपूर्वक यह भी ध्यान दिलाया कि अगले ही रोज, हैदराबाद के अपने बयान में प्रधानमंत्री ने खुद भी ‘बयान-सुधार’ कर लिया था। हैदराबाद में उतना ही गरजने के बावजूद उन्होंने खुद ही ‘मुट्ठीभर गोरक्षकों’ को ही समाज को बांटने वाला कहा था! इसलिए, अचरज नहीं कि इन गतिविधियों से जुड़े विहिप तथा बजरंग दल जैसे संगठनों की प्रतिक्रिया से ऐसा नहीं लगता है कि संघ परिवार, आम तौर पर अपने प्रभाव क्षेत्र में आने वाले इन तत्वों पर पूरी तरह से अंकुश लगाना तो दूर रहा, आसानी से इनसे खुद को अलग कर सकता है या अलग करना चाहेगा।
कथित गोरक्षक गिरोहों के प्रति भाजपा समेत संघ परिवार की यह दुविधा, जिससे उसके पधानमंत्री भी पूरी तरह से अछूते नहीं लगते हैं, स्वाभाविक है। आखिरकार, वे संघ परिवार के ही तो लड़ाकू बाजू हैं, जो गाय को हिंदू धार्मिक पहचान के चिन्ह से आगे, उग्र सांप्रदायिक गोलबंदी का हथियार बनाने तक पहुंचाते हैं। आखिरकार, इस गोरक्षा का निशाना स्पष्ट रूप से मुस्लिमविरोधी जो है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस राजनीतिक लक्ष्य के लिए, गोसेवा का शायद ही कोई उपयोग होगा। अचरज नहीं कि केंद्र में और राज्यों में भी भाजपा के सत्ता में आने के बाद, जितनी तेजी से गोरक्षा कार्रवाइयां बढ़ी हैं, वैसी तेजी से गोसेवा गतिविधियां नहीं बढ़ी हैं, हालांकि उनके लिए खजाने खोल दिए गए हैं।
फिर भी, 20 फीसद से ज्यादा दलित आबादी और एक शक्तिशाली दलित राजनीतिक पार्टी वाले उत्तर प्रदेश और 30 फीसद से ज्यादा दलित आबादी वाले पंजाब में, दलितों के हिंदुत्ववादी ताकतों के खिलाफ खड़े होने का जो नतीजा हो सकता है, वह तो बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन, खास बात यह है कि आबादी में सिर्फ 9 फीसद होने के बावजूद, गुजरात के दलितों ने मोदी के नेतृत्व में गढ़े गए उस हिंदुत्ववादी राजनीतिक वर्चस्व में दरारें डाल दी हैं, जिसकी सतह के नीचे बढ़ती सामाजिक सामाजिक-आर्थिक असमानता की सचाइयों को छुपा दिया गया था। यह संयोग ही नहीं है कि तथाकथित ‘गुजरात मॉडल’ के नाम पर, सबसे बढ़कर प्रचार के बल पर व्यावहारिक मानों में छुपा ही दी गयी गहराते कृषि संकट से लेकर, रोजगार तथा सार्वजनिक सुविधाओं के बढ़ते अभाव तक की सचाइयों को, सबसे पहले आर्थिक रूप से संपन्न तथा सामाजिक-राजनीतिक रूप से प्रभावशाली और कई दशकों से भाजपा का मुख्य-आधार रहे, पाटीदार समुदाय के विद्रोह ने ही, एक विस्फोट के साथ सामने ला दिया था। अब दलितों की बगावत से गुजरात मॉडल के पूरे तामझाम के ही बिखरने की शुरूआत होती लग रही है।
इसीलिए, अचरज की बात नहीं है कि मोदी-शाह जोड़ी ने तुरंत कार्रवाई की है। उन्होंने आनंदीबेन के जबर्दस्त विरोध और पटेल लॉबी के भारी दबाव के बावजूद, गुजरात की राजनीति के लिए एक तरह से नये रूपानी को मुख्यमंत्री के पद पर बैठाया है, जिनकी एक प्रमुख योग्यता अगर आरएसएस का सौ फीसद वफादार होना है, तो दूसरी विशेषता ऐसे व्यापारी समुदाय से होना है, जिसका गुजरात की आबादी में वजन बहुत कम है। यह साफ तौर पर इसका संदेश देने की कोशिश है कि अब भाजपा सरकार, सामाजिक रूप से या संख्याबल में कमजोर तबकों का और ख्याल रखेगी। हां! संख्याबल में थोड़े होते हुए भी मुसलमान उनके कल्पित पाले से ही बाहर हैं।
प्रधानमंत्री ने बादशाह और राजा के अपने किस्से से, जिसमें राजा को हराने के लिए बादशाह युद्ध में गायों को आगे खड़ा कर देता है, एक तरफ तो इसकी पुष्टि की है कि मुसलमानों से ही गायों की रक्षा की जानी है। दूसरी ओर, इस किस्से के जरिए, जिसका राजा लोकख्याति के हिसाब से दलित पासी जाति का राजा सुहेल देव था, जिसकी उत्तर प्रदेश में बहराइच में महमूद गजनी के भतीजे से लड़ाई हुई बताते हैं, उन्होंने दलितों को यह याद दिलाने की कोशिश की है कि सब कुछ के बावजूद उनका स्थान तो गोरक्षक हिंदुत्ववादी कतारों में ही है।


