प्रसिद्ध भाषाशास्त्री जी एन देवी (G.N. Devy) बीती दो अक्तूबर से उपवास पर हैं। वे भारत के, खास तौर पर महाराष्ट्र, बंगाल, तमिलनाडू, केरल, गुजरात और पंजाब के भारतीय नवजागरण के क्षेत्र के नौजवानों से पूछ रहे हैं कि क्या वे शादी के वक्त जाति और धर्म के बंधनों को भूलने के लिये तैयार हैं ? जिस दिन उन्हें कम से कम एक सौ नौजवानों की हामी का पत्र मिल जाता है, वे उसी दिन भोजन करते हैं। न मिलने पर उनकी घोषणा है कि वे जल तक ग्रहण नहीं करेंगे। उनका यह कार्यक्रम 10 अक्तूबर तक चलेगा। वे देखना चाहते हैं कि क्या इन क्षेत्रों के नौजवान नवजागरण की शिक्षाओं को पूरी तरह से भुला चुके हैं ? ‘क्या भारत लाइलाज तालिबानी मानसिकता में प्रवेश कर चुका है ?’ इसी शीर्षक से ‘टेलिग्राफ’ के 7 अक्तूबर के अंक में उनका एक लेख “Has India slid into an irreversible Talibanization of the mind?” आया है, जिसमें वे लिखते हैं :

“यदि किसी और देश का विद्यार्थी पिछले एक सौ साल में भारत में सांप्रदायिक दंगों की सूची को देखेगा तो वह समझेगा कि भारत के लोग अन्य धर्म के लोगों की हत्या में ही ज्यादा से ज्यादा लगे रहते हैं। यह सच न होने पर भी इतिहास के ठोस तथ्य ऐसा ही कहते हैं। वही बच्चा जब भारत में धर्मों के इतिहास को देखेगा तो पायेगा कि भारत धर्मशास्त्र का सबसे उर्वर इलाका रहा है। लेकिन पिछली दो सदी में यदि किसी को धार्मिक विचारकों, देवदूतों, साधु-संन्यासियों, तांत्रिकों, नाना पंथ के गुरुओं की सूची बनानी हो तो वह छात्र भारी उलझन में पड़ जायेगा। तब उसके सामने सवाल रहेगा कि क्या भारत अध्यात्म की भूमि है या धार्मिक कट्टरपंथियों का यातना-गृह ? यह समस्या टिम्बकटू से आए किसी छात्र की ही नहीं है। भारत में ही हममें से अधिकांश अक्सर इसी सम्भ्रम के शिकार हो जाते हैं।”

वे कहते हैं कि कुछ-कुछ यही स्थिति धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा की है। इसके शब्दकोश के अर्थ का कोई मायने नहीं है। इसी प्रकार नरसिंह मेहता के प्रसिद्ध भजन ‘वैष्णव जन‘ की ‘पीर पराई’ का तो हमारे व्यवहारिक जीवन में कोई मतलब ही नहीं है। आने वाली पीढ़ी यदि हमारे वक्त को ‘मूर्खता का युग’ (Age of Agnosia) कहे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

उपवास के दौर के अब तक के अपने अनुभव को श्री देवी ने बेहद आश्चर्यजनक बताया है और लेख के अंत में वे लिखते हैं कि “अब मैं टिंबकटू की काल्पनिक लड़की को लिख पाऊंगा कि भारत अब भी मानवीय और सद्भावनापूर्ण हो सकता है। मैं उससे हाल के समय में लिखी गई इतिहास की किताबों पर न जाने के लिये कहूंगा। बल्कि मैं भारत के स्कूलों के सभी बच्चों से कहूंगा वे किसी को भी उन्हें धर्म और जाति के निंदनीय पिंजड़े में कैद करने की अनुमति न दें। धर्म सृजन की पवित्रता का उत्सव होता है, जहां भी जीवन है उसे ईश्वरीय मानने का न कि सत्ता को पाने और आपस में लड़ाइयों का हथियार।”

हम यहां उनके लेख को साझा कर रहे हैं :

https://www.telegraphindia.com/opinion/has-india-slid-into-an-irreversible-talibanization-of-the-mind/cid/1710132

अरुण माहेश्वरी