पीके फ़िल्म देखी। बेहद निराश हुआ।
मैंने सोचा था कि जब इतना विरोध हो रहा है, तो ज़रूर उसमें कोई गहरा राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श होगा। जब हिंदुत्व की ताकतें इस कदर तिलमिला रहीं हैं, तोड़फ़ोड़ कर रही हैं, तो ज़रूर उसकी कोई वजह होगी।
यह वजह मुझे नहीं दिखाई दी। पीके एक मामूली स्वच्छ पारिवारिक कॉमेडी है, जिसमें मुख्यतः पाखंडी बाबाओं, लेकिन अन्य धर्म के पाखंडों पर भी चुटकी ली गई है। यहां तक कि इसमें नास्तिकता का विमर्श खोजने की कोशिश भी बेकार है। फ़िल्म की कथानक कसी हुई है, अभिनय अच्छा है, दर्शकों को बांधे रखती है, उसका आनंद लेने के लिये बजरंगी बंदरों से थोड़ी से अधिक बुद्धि काफ़ी है।
अमर्त्य सेन की एक किताब का नाम है The Argumentative Indian. इस फ़िल्म को देखने के बाद मेरे दिमाग में दो नाम गूंजे - The Howling Indian, The Vandalising Indian.
तार्किकता के साथ धर्म पर चोट का किस्सा काफ़ी पुराना है। फ़्रांसीसी क्रांति से पहले ही वोल्तेयर अपने उपन्यास कांदीद की रचना कर चुके थे। ईसाई मठों में यौन दुराचार पर दिदेरो का उपन्यास The Nuns लिखा गया था। उसके बाद से असंख्य रचनायें व फ़िल्में आई हैं। मौलवियों के पाखंड पर बनी ईरानी फ़िल्म The Lizard मुझे बेमिसाल लगी। पाकिस्तानी फ़िल्म बोल या खुदा के लिये की जितनी धार है, पीके वहां तक नहीं जाती है। जैसा कि मैंने कहा, यह एक मामूली स्वच्छ पारिवारिक कॉमेडी है। ऐसी ही थीम पर सत्यजित रे ने अपनी फ़िल्म महापुरुष बनाई थी।
मेले में अचानक नकली बवाल या भगदड़ के ज़रिये पॉकेटमारों को मौका दिया जाता है। पीके को लेकर शोरगुल का भी यही मकसद है।
लेकिन क्या ये बंदर तय करेंगे कि मुझे कौन सी फ़िल्म देखनी चाहिये और कौन सी नहीं। मैं मल्टिप्लेक्स में आये दर्शकों को देख रहा था। ये क्योटोवासी अधिकतर मोदी के मतदाता थे। सबके चेहरे पर मुस्कान थी। हॉल में भी रह-रहकर हंसी गूंज रही थी। क्या वे बजरंगी बंदरों का हुक़्म मानेंगे ?
O- उज्ज्वल भट्टाचार्या
उज्ज्वल भट्टाचार्या, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक चिंतक हैं, उन्होंने लंबा समय रेडियो बर्लिन एवं डायचे वैले में गुजारा है। वह हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।