क्या संघ को गाय और बीफ से जुड़ी उसकी रणनीति के राजनीतिक दुष्परिणाम दिखाई देने लगे
क्या संघ को गाय और बीफ से जुड़ी उसकी रणनीति के राजनीतिक दुष्परिणाम दिखाई देने लगे
अरुण माहेश्वरी
आज के 'टेलिग्राफ' में प्रकाशित राधिका रामाशेषन की रिपोर्ट बहुत अच्छी तरह से बताती है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कौन से राजनीतिक गणित को मद्देनज़र रखते हुए गो रक्षकों के विरुद्ध बोलना शुरू किया है।
वे इस बात को साफ़ देख रहे हैं कि उनके नीचे की जमीन पूरी तरह से खिसकने लगी है। जिस गुजरात में एक समय में दलित समाज का उन्हें समर्थन मिला था, वे उन्हें मुसलमानों के खिलाफ उतारने में सफल हुए थे, उसी गुजरात में इसी बीच दलितों के एक बड़े हिस्से ने अपनी जिंदगी में प्रताड़ना और वंचना के ठोस अनुभवों से बौद्ध धर्म को अपना कर आरएसएस के हिंदुत्व के खिलाफ अपने को लामबंद करना शुरू कर दिया है।
ऊना की घटना के बाद दलित समाज के अंदर पनप रहे विद्रोह के इस भाव ने उग्र रूप लेना शुरू कर दिया है।
दलितों को भाजपा से अलग-थलग करने में बीफ के प्रति आरएसएस वालों के रवैये की भी एक बड़ी भूमिका है। दलित समाज के एक तबके के खान-पान में बीफ उसी प्रकार शामिल है जैसे मुसलमानों में और केरल जैसे प्रदेश में आम हिंदुओं में प्रचलित है।
बीफ के खिलाफ अभियान चला कर संघी समाज में मुसलमानों के विरुद्ध नफ़रत के साथ ही दलित समाज के विरुद्ध भी नफ़रत फैला रहे थे।
गोरक्षकों की बढ़ी हुई गुंडागर्दी के मूल में भी यही था।
अब जब महाराष्ट्र की तरह ही गुजरात और उत्तरप्रदेश में भी दलितों के बीच ब्राह्मणवादी आरएसएस के लोगों के खिलाफ तीव्र रोष ज़ाहिर होने लगा है, तब न सिर्फ मोदी को, बल्कि आरएसएस के लोगों के भी होश फ़ाख्ता होने लगे हैं।
पहली बार आरएसएस के प्रवक्ता ने भी गोगुंडों के खिलाफ एक बयान जारी किया है। जब मोदी ने गोगुंडों को लताड़ा तब भी आरएसएस के लोग इसे एक सत्ता-लोभी की बहक बता कर उड़ाने की कोशिश की थी। लेकिन अब खुद आरएसएस ने यह बयान जारी करके बता दिया है कि उनकी गाय और बीफ से जुड़ी सारी रणनीति के राजनीतिक दुष्परिणाम उसे दिखाई देने लगे हैं।
(अरुण माहेश्वरी की फेसबुक टाइमलाइन से साभार )


