जब तक इस देश के नागरिक नागरिकता, संविधान और लोकतंत्र के साथ बाबासाहेब के अवदान कावस्तुगत मूल्यांकन करने लायक नहीं होंगे, कयामत की यह फिजां बदलेगी नहीं।
शब्दों का मोल अनमोल है।
शब्द का मतलब अभिव्यक्ति है तो उसकी बुनियादी आवश्यकता संवाद है क्योंकि संवाद सामाजिक प्रयोजन है और मनुष्य सामाजिक प्राणी है। सभ्यता का मतलब भी यही सामाजिकता है, जिसका आधार संवाद है। निरंतर विमर्श है।
संवाद और विमर्श ही दरअसल हमारा इतिहास है, घटनाओं और रटने वाली तारीखों का घटाटोप मनुष्यता का इतिहास नहीं है, वह शासकों का इतिहास है।
मुक्त बाजार ने हमें अपनी मातृभाषाओं और बोलियों से बेदखल कर दिया है और भारत जो गाँवों का देश है, कृषिजीवी प्रकृति से अपने अस्त्व को जोड़कर जीने वालों का देश है, इसे हम भूलते जा रहे हैं और इसी के साथ भूलते जा रहे हैं साझा चूल्हे की हजारों सालों की विरासत जो शासन किसी का भी रहो हो, अनार्यों, आर्यों, द्रविड़ों, शकों, हुणों, कुषाणों, पठानों, मुगलों या पुर्तगालियों, फ्रासिंसियों या अंग्रेजों का, जब तक कृषि निर्भर अर्थ व्यवस्था रही है, जब तक देशज उत्पादन प्रणाली रही है और अटूट अक्षत रहे हैं तमाम तरह के उत्पादन संबंध, वह साझा चूल्हा किसी न किसी तरह जारी रहा।
मुक्त बाजार ने उस साझा चूल्हे को तहस नहस कर दिया है और मातृभाषाओं और बलियों से बेदखल हम लोग संवाद और विमर्श की भाषा से भी बेदखल हो गये हैं। बाजार, साहित्य, कला, संस्कृति में अकेले व्यक्ति के भोग का कार्निवाल है।
उस साझे चूल्हे के बिना न यह समाज सभ्य समाज बने रह सकता है और न आदिम बर्बर मूल्यों के आधार पर किसी राष्ट्र या राष्ट्रीयता का कोई अस्तित्व है।
संविधान और लोकतंत्र की बुनियाद लेकिन वही साझे चूल्हे की विरासत है।
संवाद और विमर्श जो प्राचीन काल में शास्त्रार्थ की परंपरा भी है, को जीवित किये बिना न संविधान बच सकता है और न लोकतंत्र।
संविधान दिवस मनाने का प्रयोजन उस संवाद और विमर्श के लिये है जो मनुष्य और प्रकृति के नैसर्गिक रिश्ते से ही संभव है, बाजार की दखलंदाजी और राजनीतिक शासकीय वर्चस्व के इस परिवेश में जो सिरे से असंभव है।
हम अमूमन भूल जाते हैं कि इस देश में जैसे हिमालय, विंध्य, अरावली, सतपुड़ा के पहाड़ है, जैसे हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी है, जैसे गंगा यमुना कृष्णा गोदावरी झेलम ब्रह्मपुत्र नर्मदा नदियां है, जैसे सुंदरवन और पेरियार के अरण्य हैं, जैसे मरुस्थल और रण है, वैसे विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में अलग-अलग नस्ल, अलग अस्मिता और औलग अलग पहचाने के लोग हैं।
जैसे किसी प्राकृतिक अंश को छोड़ दें या तोड़ दें तो देश का भूगोल नहीं बनता, वैसे ही राष्ट्र के जीवन की मुख्यधारा से किन्ही जनसमुदाय को बहिष्कृत करने से भी राष्ट्र नहीं बनता। खंड-खंड नस्ली भेदभाव की प्रजा अस्मिताओं का नाम राष्ट्र नहीं होता।
मुक्त बाजार में दरअसल वही हो रहा है। मोदी सरकार के 6 महीने के कामकाज से बाजार और इंडस्ट्री तो बहुत खुश हैं, लेकिन धनाढ्य नवधनाढ्य संपन्न तबके के अलावा जैसे इस देश में किसी अवसर, किसी अधिकार, किसी संसाधन पर किसी का हक नहीं है ।
मुक्त बाजार में दरअसल वही हो रहा है। यह वंचित जनता देश की बहुसंख्य आबादी है, जिनका नस्ली सफाया ही मुक्त बाजार में राजकाज है।
इसीलिए बुनियादी समस्य़ाएं तब तक सुलझ ही नहीं सकती जब तक कि भारतीय नागरिक की नागरिकता के साथ देश में लोकतंत्र को बहाल नहीं किया जा सकता और जब तक न कि प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण नहीं होता।
मनुष्यता और प्रकृति के विध्वंस से कोई राष्ट्र फिर राष्ट्र नहीं रह जाता वह सुपरपावर भले ही मान लिया जाय, उस राष्ट्र की कोई आत्मा नहीं होती। न उसकी कोई देह है।
हम मौलिक अधिकारों, नीति निर्देशक सिद्धांतों, संविधान, संवैधानिक रक्षाकवच, प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दे उठाकर बार-बार आपकी नींद में खलल डालने की बदतमीजी क्यों कर कर रहे हैं, इसको थोड़ा दिमाग लगाकर समझें।
इन्ही तमाम प्रसंगों में अंबेडकर के अवदानों की चर्चा होनी चाहिए न कि रिजर्वेशन और कोटा के लिए अंबेडकर जुगाली का अभ्यास।
अबाध विदेशी पूंजी, निजीकरण, आटोमेशन, विनिवेश, निविदा अनुबंध आजीविका नौकरियों के जमाने में रिजर्वेशन औक कोट अब सिर्फ जनप्रतिनिधियों को अरबपति करोड़पति बनाने का खेल है, उसका वजूद है नहीं, जो है उसे मुक्त बाजार खत्म करने वाला है।
तो क्या सिरे से गैर प्रासंगिक हो जाएंगे अंबेडकर, प्रश्न यही है।
जो आरक्षण और कोटा के लाभार्थी नहीं रहे कभी, जैसे मेहनतकश तबके और देश की आधी आबादी महिलाएं, उनके लिए अंबेडकर की क्या प्रासंगिकता रही है न उन्हें मालूम है और न अंबेडकरी दुकानदारों और अंध अनुयायियों को। जिन्हें मालूम है, वे बतायेंगे भी नहीं। क्योंकि अंध विश्वास और धर्मांध उन्माद राष्ट्रीयता उनका कारोबार है।
अंबेडकर अछूतों के मसीहा हैं जिन्हें संघ परिवार अब विष्णु का अवतार बनाकर उनके मंदिर खोलकर वैदिकी कर्मकांड बजरिये बहुजन वोट बैंक साध लेगा, महज इस कारण से हम अंबेडकर की भूमिका की चर्चा नहीं कर रहे हैं।
धर्म अधर्म धर्मनिरपेध अंध आस्था के विमर्श के बदले हमने संविधान और लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में संवाद और विमर्श का यह विकल्प जिस परिदृश्य में चुना, उसके तहत इस देश के संसद में भी संविधान और संविधान दिवस पर किसी चर्चा होने के आसार नहीं हैं।
धर्म-अधर्म, धर्मनिरपेक्ष अंध आस्था के विमर्श के बदले हमने संविधान और लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में संवाद और विमर्श का यह विकल्प जिस परिदृश्य में चुना, उसके तहत केसरिया कारपोरेट नरेंद्र मोदी सरकार के 6 महीने पूरे हो गए हैं। बाजार बल्ले-बल्ले है क्योंकि इस सरकार से बाजार, इंडस्ट्री को काफी उम्मीदें हैं।
O- पलाश विश्वास
पलाश विश्वास । लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।