क्या स्वतंत्रता दिवस पर देश की आजादी पूर्णता और मजबूती की तरफ बढ़ती है?
क्या स्वतंत्रता दिवस पर देश की आजादी पूर्णता और मजबूती की तरफ बढ़ती है?
स्वतंत्रता दिवस के कर्तव्य-1
प्रेम सिंह
आत्मालोचन का दिन
पिछले स्वतंत्रता दिवस के ‘समय संवाद’ और उसके आगे-पीछे हमने जो लिखा, इस स्वतंत्रता दिवस पर उससे अलग कुछ कहने के लिए नहीं है। कहना एक ही बार ठीक रहता है। भले ही वह स्वतंत्रता जैसे मानव जीवन और मानव सभ्यता के संभवतः सर्वोपरि मूल्य के बारे में हो। दोहराव के भय से इस बार का ‘समय संवाद’ हम नहीं लिखना चाहते थे। फिर सोचा कि शासक वर्ग और उसका प्रस्तोता मीडिया दिन-रात दोहरावों की झड़ी लगाए रहते हैं तो हमें भी किंचित दोहराव के बावजूद अपनी बात कहनी चाहिए। आइए, भारी सुरक्षा घेरे में गांधी के आखिरी आदमी से बहुत दूर और ऊंचे आयोजित, छियासठवें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर देश की आजादी के बारे में कुछ चर्चा और सवाल करें। इस आशा के साथ कि सड़सठवें साल में देश की आजादी पर आए संकट को समझा जाएगा और उसका मुकाबला हो पाएगा।
जिस आजादी पर हासिल होने के दिन से ही अधूरी होने का ठप्पा लगा हो, हर स्वतंत्रता दिवस पर यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि वह उत्तरोत्तर पूर्णता और मजबूती की ओर अग्रसर है। अगर किसी वर्ष कोई ऐसी घटना या फैसला सरकार, राजनीति अथवा नागरिक समाज के स्तर पर हो गया हो, जिससे आजादी का अवमूल्यन हुआ हो और वह खतरे में पड़ी हो, तो स्वतंत्रता दिवस के मौके पर यह सुनिश्चित किया जाए कि वह गलती स्वीकार करके उसे ठीक कर लिया गया गया है। स्वतंत्रता दिवस यह देखने का भी मौका होता है कि वैचारिक और नीतिगत मतभेदों के बावजूद आजादी को पूर्ण और मजबूत बनाने के दायित्व पर सभी राजनीतिक पार्टियां, संगठन और नागरिक समाज एकमत हैं। भारत जैसे विषाल और बहुलताधर्मी देश में अलग-अलग समूहों की अपने हितों की चिंता वाजिब है, लेकिन इस मौके पर हम यह देखें कि समग्रता में उससे देश की आजादी की काट न हो। यह सुनिश्चित करें कि बुद्धिजीवी खास तौर पर सावधान हैं, ताकि नई पीढ़ी आजादी का मूल्य भली-भांति समझ कर अपना कर्तव्य निर्धारित करती और निभाती चले। स्वतंत्रता दिवस और उसके आगे-पीछे आजादी के तराने गाने, तिरंगा लहराने और शहीदों के गुणगान का तभी कोई अर्थ है। स्वतंत्रता दिवस पर हम यह सुनिश्चित करें कि देश की आजादी को सच्चा प्यार करके ही उसके लिए कुर्बानी देने वालों का सच्चा सम्मान किया जा सकता है।
सवाल है कि क्या प्रत्येक आने वाले स्वतंत्रता दिवस पर देश की आजादी पूर्णता और मजबूती की तरफ बढ़ती है? गलतियां अगर होती हैं तो क्या उनसे सीख लेने की कोई नजीर सामने आती है? आजादी के प्रति सभी सरकारों, राजनीतिक पार्टियों और नागरिक समाज का साझा संकल्प है? अपने हितों की चिंता करने वाले समूह समग्रतः आजादी की रक्षा का ध्यान करके चलते हैं? क्या देश के बुद्धिजीवी अपनी भूमिका में मुस्तैद हैं? क्या नई पीढ़ी आजादी के प्रति अपना कर्तव्य समझती है? क्या हम शहीदों का सच्चा सम्मान करते हैं?
बिना गहरी जांच-पड़ताल के पता चल जाता है कि ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं होने की चिंता भी ज्यादातर नेताओं से लेकर नागरिक समाज तक नहीं दिखाई देती। बल्कि कह सकते हैं कि पिछले 25 स्वतंत्रता दिवसों पर लाल किले से नवसाम्राज्यवादी गुलामी का परचम फहराया जाता रहा है। लाल किले के भाशण में बच्चों से लेकर नौजवानों तक आजादी को पूर्ण और मजबूत बनाने का संदेश नहीं दिया जाता। ज्यादातर मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियां, नागरिक समाज और बुद्धिजीवी आजादी के इस अवमूल्यन में बेहिचक षामिल हैं।
15 अगस्त 1947 को मिली राजनीतिक आजादी को अधूरा माना गया था। कहा गया था कि अभी आर्थिक आजादी हासिल करना है। पिछले करीब तीन दशकों में आर्थिक गुलामी का तौक गले में डाल कर राजनीतिक आजादी को भी लगभग गंवा दिया गया है। हर साल षानोषौकत से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाने और देशभक्ति का भारी-भरकम प्रदर्षन करने के बावजूद, लंबे संघर्ष के बाद हासिल की गई आजादी नहीं, नवसाम्राज्यवादी गुलामी पूर्णता और मजबूती की ओर बढ़ती जाती है। नवसाम्राज्यवादी गुलामी का गहरा रंग देखना हो तो कोई भारत आए। यहां कारपारेट पूंजीवाद की गुलामी में पगे नेताओं, खिलाडि़यों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, सिविल सोसायटी एक्टिविस्टों का उत्साह और उमंग देख कर लगता है मानो वे विज्ञापन की दुनिया के माॅडल हों! मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी मंडली ही नहीं, एपीजे अब्दुल कलाम और लालकृष्ण अडवाणी भारत के महाशक्ति बनने के गीत गाते नहीं थकते हैं। अधूरी आजादी का पूरा फायदा उठा कर भारत का षासक वर्ग कंपनियों के मुनाफे की वस्तु बन गया है।
इस उमंग भरे माहौल का दबदबा इतना ज्यादा है कि नवउदारवाद-विरोध की लघुधारा के कतिपय वरिष्ठ आंदोलनकारी और बुद्धिजीवी भी उसकी चपेट में आ जाते हैं। दोबारा पटरी पर आना उनके लिए कठिन हो जाता है। ऐसे में, नवउदारवादी नीतियों के चलते उच्छिष्ट का ढेर बना दी गई विषाल आबादी की दषा समझी सकती है। वह खटती और मरती भी है, और नकल भी करती है। इस तरह पूंजीवाद षासक वर्ग के साथ-साथ अपनी (गुलाम) जनता भी तैयार करता चलता है।
इस बीच आरएसएस से लेकर गांधीवादी, समाजवादी, मार्क्सवादी आदि सभी राजनीतिक-वैचारिक समूह आजादी पर आने वाले संकट और उसे बचाने की चिंता जता चुके हैं। लेकिन नवसाम्राज्यवाद की ताकत कहिए या आजादी की सच्ची चेतना का अभाव या दोनों, उस चिंता का खोखलापन अथवा कमजोरी जगजाहिर होते देर नहीं लगती। आजादी बचाने की पुकार उठती है और बुलबुले की तरह फूट जाती है। ऐसा नहीं है कि आजादी को बचाने के सच्चे प्रयास नहीं हुए या अभी नहीं हो रहे हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि इस मामले में शोर ज्यादा मचाया गया है। आजादी को बचाने के लिए ठोस विचार और रणनीति के तहत दीर्घावधि आंदोलन नहीं खड़ा हो पाया है। आज की हकीकत यह है कि आजादी बचाने की वास्तविक चिंता करने वाले लोग अब बहुत थोड़े और उपेक्षित हैं।
ऐसी स्थिति में स्वतंत्रता दिवस पर सर्वाधिक गंभीरता और प्राथमिकता से देश के पराधीन होते जाने की परिघटना पर विचार होना चाहिए। उसके बगैर न केवल नवउदारीकरण के दौर में भिखारी बना दी गई जनता के लिए हमारी चिंता का कोई हासिल नहीं है, हमारे प्रगतिषील, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष बौ़िद्धक कर्म का भी स्वतंत्र अर्थ नहीं रह जाता है। क्रांति के दावों की दयनीयता तो स्वयंसिद्ध है ही।
नवउदारवादी दौर में बने कारपोरेट इंडिया की सत्ता पर आरएसएस जब-जब धावा बोलता है, तब-तब सेकुलर खेमे के बुद्धिजीवी उसके ‘देशद्रोही’ चरित्र को उद्घाटित करने में लग जाते हैं। ऐसा करते वक्त वे अपने को देशभक्ति और आजादी का पक्का पैरोकार होने का प्रमाणपत्र देते ही हैं, सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह और कांग्रेस को भी वह थमा देते हैं। बार-बार दोहराई जाने वाली इस कवायद का कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकलता। न सांप्रदायिकता कम होती है, न नवउदारवाद थोड़ा भी पीछे हटता है। बल्कि दोनों कट्टर होते और एक-दूसरे में समाते जाते हैं। उस सम्मिलित कट्टरता के प्रहार से समाजवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की जमीन धसकती चली जाती है। भारत के संविधान में निहित समाजवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और संकल्प की रक्षा ही आजादी की रक्षा है। हमारी राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिकता की यही कसौटी हो सकती है।
जारी .....


