इरफान हबीब

सबसे पहली बात तो यह है कि मैं 1857 के विद्रोह को औपनिवेशिक शासन के बृहत्तर संदर्भ में रखना चाहूंगा। बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जिनमें अनेक इतिहासकार भी शामिल हैं, जो अब यह मानने लगे हैं कि हमारी पाठयपुस्तकों में और इतिहास में औपनिवेशिक शासन की जो आलोचनाएं हैं, उनमें कुछ ज्यादती हुई है। अब से दो-तीन साल पहले, एन.सी.ई.आर.टी. की पाठयपुस्तकों में अनेक इतिहासकारों ने यह बात चलाई भी थी। लेकिन, मुझे लगता है कि हम 1857 के विद्रोह को और उसके चरित्र को तब तक नहीं समझ सकते हैं, जब तक हम यह नहीं समझते कि भारत के लिए और वास्तव में किसी हद तक पूरी दुनिया के लिए ही उपनिवेशवाद का क्या अर्थ रहा था और इस औपनिवेशिक शासन के साथ भारत किस तरह जुड़ा हुआ था और खास तौर पर भारतीय सेना के सिपाही उसके साथ किस तरह जुड़े हुए थे।अव्वल तो उपनिवेशवाद का अर्थ था लगातार भारत के संसाधनों का दोहन कर बाहर ले जाया जाना। प्रसंगत: कह दूं कि एन.सी.ई.आर.टी. ने हाई स्कूल के बच्चों के लिए अब जो पाठयपुस्तकें लगाई हैं, उनमें से व्यावहारिक मायने में यह पहलू गायब ही है। बहरहाल, यह उस समय जीवन का एक तथ्य था। इस तरह निचोड़ा जाने वाला राष्ट्रीय आय का 3-4 फीसद हिस्सा, बेशक छोटा सा लग सकता है। लेकिन, याद रहे कि औद्योगिक क्रांति के दौरान ब्रिटेन में बचतों का स्तर वास्तव में 6 फीसद से ज्यादा नहीं था। इससे कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है कि साल दर साल, कैसी तबाह करने वाली लूट हो रही थी। 1854 से 1855 तक यानी विद्रोह से पहले के दो वर्षों में ही, भारतीय तटकर संबंधी रिकार्डों के अनुसार, भारत के लिए आयातों के मुकाबले निर्यातों की अधिकता यानी यह लूट 5.8 करोड़ रु. की आंकी गई है। उस जमाने की कीमतों के हिसाब से यह बहुत बड़ी रकम थी। इस लूट का मतलब यह है कि हिंदुस्तानी जनता को बढ़ते हुए फालतू कराधान का शिकार बनाया जा रहा था। और कराधान में यह बढ़ोतरी, जो ब्रिटिश शासन के कर बंदोबस्तों के रूप में सामने आई थी, सबसे ज्यादा बोझ उन इलाकों पर डाल रही थी जिन्हें महालवाड़ी इलाकों के नाम से जाना जाता था। करों का यह अतिरिक्त बोझ उतना ज्यादा स्थायी बंदोबस्ती के इलाकों पर और मद्रास प्रेसिडेंसी में रैयतवारी इलाकों पर नहीं पड़ रहा था, क्योंकि यहां पर करों का हिस्सा अपेक्षाकृत ज्यादा अवधि के लिए तय होता था। इसके विपरीत महालवाड़ी इलाकों में अपरिहार्य रूप से करों का यह बोझ ज्यादा था। वास्तविक मूल्य का हिसाब लगाएं तो 1819 से 1856 के बीच महालवाड़ी इलाके में, जिसमें उत्तर प्रदेश, मध्य भारत के हिस्से, हरियाणा आदि आते थे, कर के बोझ में पूरे 70 फीसद की बढ़ोतरी हुई थी। इसलिए 1839 से 1859 के बीच, ज्यादातर जिलों में 50 फीसद तक मामलों में जमीनें इस हाथ से उस हाथ चली गई थीं। इसका अर्थ यह है कि किसानों के और जमींदारों के लिए, भूमि की समस्या और कराधान की समस्या बहुत ही नाजुक होती जा रही थी। याद रहे कि यही इलाका विद्रोह का हृदय साबित हुआ था। यही वह क्षेत्र था जहां से बंगाल आर्मी के सिपाही आए थे और उनके बारे में कहा जाता है कि वे बस वर्दी पहने हुए भारतीय किसान थे। ये किसान छोटी-छोटी जमीनों पर मालिकाना हक रखने वाले किसानों के परिवारों से थे, जिस पर मैं जरा आगे चलकर चर्चा करूंगा।दूसरा घटनाविकास था, उस चीज का विकास जिसे मुक्त बाजार का साम्राज्यवाद कहते हैं। 1833 के चार्टर कानून के बाद तो अंगरेजी और औद्योगिक विनिर्माता, भारत में व्यावहारिक मायने में शुल्क माफी के साथ ही आ रहे थे। इसका अर्थ यह है कि बड़े पैमाने पर भारतीय सूत कातने वालों और बुनकरों का रोजगार छिन रहा था। कार्ल मार्क्स ने इसकी ओर ध्यान खींचा था और जहां तक भारतीय बुनकरों का सवाल है, उनके लिए तो इसे मार्क्स ने मानव जाति का सफाया ही करार दिया था। भारत के कपड़े के कुल उपभोग के चौथाई हिस्से से ज्यादा की पूर्ति