खान अब्दुल गफ्फार खान : अहिंसा और न्याय के अग्रदूत
खान अब्दुल गफ्फार खान की 35वीं पुण्यतिथि : भारत विभाजन और अहिंसा के प्रतीक को श्रद्धांजलि. सरहदी गांधी के नाम से प्रसिद्ध बादशाह खान ने अंग्रेजी शासन और पाकिस्तान सरकार के अत्याचारों के बावजूद अहिंसा और मानवता के सिद्धांतों का पालन किया।

खान अब्दुल गफ्फार खान की 35वीं पुण्यतिथि : भारत विभाजन और अहिंसा के प्रतीक को श्रद्धांजलि
- बाबरा नरसंहार और खुदाई खिदमतगार आंदोलन का संघर्ष
- अहिंसा के सिद्धांतों की सच्ची परीक्षा : बाबरा नरसंहार का संदर्भ
- बंटवारे के विरोध में बादशाह खान : इतिहास की प्रेरणा
- धर्म आधारित राजनीति और विभाजन : आज के भारत के लिए सबक
- बादशाह खान की प्रासंगिकता : अहिंसा और सामाजिक समरसता का संदेश
20 जनवरी 2025 को खान अब्दुल गफ्फार खान की 35वीं पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनकी ऐतिहासिक भूमिका, अहिंसा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और भारत विभाजन के खिलाफ उनके संघर्ष को याद करें। सरहदी गांधी के नाम से प्रसिद्ध बादशाह खान ने अंग्रेजी शासन और पाकिस्तान सरकार के अत्याचारों के बावजूद अहिंसा और मानवता के सिद्धांतों का पालन किया। बाबरा नरसंहार और खुदाई खिदमतगार आंदोलन जैसे ऐतिहासिक संदर्भ उनकी साहसिक भूमिका को रेखांकित करते हैं। मराठी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता डॉ सुरेश खैरनार के इस लेख से जानें, कैसे उनकी विरासत आज के भारत और विश्व के लिए प्रासंगिक है.....
खान अब्दुल गफ्फार खान की 35 वीं पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में विनम्र अभिवादन !
कल 20 जनवरी 2024 बादशाह खान को इस दुनिया से विदा होकर जाने को पैंतीस साल हो जायेंगे।
हालांकि उन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई के समय भी वर्तमान पाकिस्तान के किसी भी नागरिकों की तुलना में, अंग्रेजी राज में भी सबसे ज्यादा जेल और यातनाएं सहन की हैं. और भले ही उनका राजनीतिक सफर पहली बार आगरा के मुस्लिम लीग के अधिवेशन जो 1913 में शामिल होने से शुरु हुआ है. लेकिन 1940 के लाहौर प्रस्ताव के पाकिस्तान बनाने के सख्त खिलाफ लोगों में बादशाह खान अब्दुल गफ्फार खान, प्रथम श्रेणी के लोगों में से एक थे, और उनके इस निर्णय का खामियाजा उन्हें 15 अगस्त 1947 के बाद भी, मरते दम तक भुगतना पडा है.
भारत में रहकर पाकिस्तान के खिलाफ बोलना, लिखना और पाकिस्तान में रहकर बोलने - लिखने में जमीन आसमान का फर्क है. बादशाह खान को लगभग सौ साल का जीवन जीने को मिला था. और उनकी जिंदगी के सबसे बेहतरीन समय, लगभग एक चौथाई हिस्सा, पहले अंग्रेजी सल्तनत और बाद में पाकिस्तानी सरकार की जेल में गुजरी है. उन्होंने मरते दम तक पाकिस्तान का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया था.
और इतिहास की विडम्बना देखिये बैरिस्टर मुहम्मद अली जिन्ना और बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर, जो बिल्कुल भी धार्मिक विश्वास के शख्सियत नहीं थे, लेकिन धर्म के आधार पर एक मुल्क को बांटने की राजनीति को अमली जामा पहनाने में कामयाब हुए. और बादशाह खान महात्मा गाँधी के टक्कर के उस समय के सार्वजनिक जीवन में शायद ही कोई धार्मिक व्यक्ति होंगे, लेकिन धर्म को लेकर राजनीति कर के देश का बंटवारा करने के लिए दो बैरिस्टर जिन्ना और सावरकर जिम्मेदार है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी ने 14 अगस्त को बंटवारे के दिवस के रूप में मनाने की घोषणा दो साल पहले के स्वतंत्रता दिवस पर की है. और मैंने उनकी घोषणा का स्वागत करते हुए कहा, कि पचहत्तर साल के बाद ही सही अगर ईमानदारी से बंटवारे के कारणों की तलाश कर के, कौन-सी ताकतों के कारण भारत विभाजन हुआ ? इसके कारण अवश्य ढूंढने की आवश्यकता है. और उस समय बादशाह खान को याद किये बगैर इतिहास पूरा नहीं होगा.
भारत विभाजन का विरोध : सरहदी गांधी की ऐतिहासिक भूमिका
बंटवारे के बाद लगभग तेरह महिनों में बैरिस्टर जिन्ना इस दुनिया से रूख्सत पा गए थे. लेकिन बैरिस्टर सावरकर बंटवारे के बाद भी बीस साल जीवित थे. और बादशाह खान तैंतालीस (1990 के 20 जनवरी को उनका इंतकाल हुआ है !) 100 साल जीवित थे. और पाकिस्तान के निर्माण के विरोध में आधे समय जेल में बंद रहे. और उन्होंने अपनी लाल डगले या खुदाई खिदमतगारों की मदद से पाकिस्तानी सरकारों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था.
पाकिस्तान में बादशाह खान का संघर्ष और जेल जीवन
8 जुलाई 1948 को नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर सरकार ने खुदाई खिदमतगार संगठन के ऊपर बैन लगाने के बाद, एक हजार से भी ज्यादा खिदमतगारों को जेल में बंद कर दिया था, लेकिन उसके बावजूद 12 अगस्त 1948 मतलब पाकिस्तान की निर्माण होने के एक साल को दो दिन कम रहने के समय जलियांवाला बाग से भी भयंकर बाबरा नाम के गांव में चारसढ्ढा के पास एक मस्जिद में हुई, खुदाई खिदमदगारों की सभा के ऊपर, पाकिस्तानी सैनिकों ने गोलीबारी की, जिसमें दो हजार से अधिक लोगों को मारने की घटना हुई है. जिसमें औरतें और बच्चों का भी समावेश है. और वह कब्रिस्तान आज भी उस जगह पर, उस एरिया का सबसे बड़ा कब्रगाह के रूप में मौजूद है. और पाकिस्तान सरकार ने इस घटना की खबर को दबाने की पूरी कोशिश की. लेकिन यह घटना वह भी पाकिस्तान बनाने के एक साल के भीतर ही हुई है. और इसके अलावा पाकिस्तान की सेना ने विमानों से पख्तुन के हिस्से पर बमबारी भी की है.
और मेरे हिसाब से यह घटना में मुझे लगता है, कि अहिंसा की परीक्षा की जीती जागती मिसाल के तौर मैं इसे लेकर सोचता हूँ कि, सिर्फ अहिंसा परमो धर्मः बोलना, और इस तरह के हिंसा के बाद भी अहिंसा का पालन करना. और यह कौम सदियों से अस्त्र - शस्त्रों के साथ ही अपने जीवन यापन करने के लिए मशहूर लोगों के साथ लेकर अहिंसा का प्रयोग, शायद विश्व इतिहास में का हाल के दिनों का पहला प्रयोग लगता है. सरहद गांधी यह उपाधि ऐसे ही थोड़ी मिली होगी ?
सबसे बडी बात बादशाह खान ने महात्मा गाँधी के प्रभाव में रहने के कारण, अपने अनुयायियों को (जो कि सदियों से लड़ाईयां करते आए हुए, कौम के लोग थे.) इतना बड़ी संख्या में लोगों के मारे जाने के पश्चात भी, अपने साथियों को अहिंसा के सिद्धांत पर कायम रहने के लिए प्रेरित करते रहे. अहिंसा का कद इस घटना से कितना बड़ा हुआ है ? इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.
सर्वसाधारण जीवन जीते हुए, अहिंसा की बात करना बहुत आसान है. लेकिन इस तरह की घटनाओं में अपने आपको अहिंसा के सिद्धांत पर कायम रखना, यही अहिंसा की असली परीक्षा की घड़ी थी. और अहिंसा के सिद्धांत का बाबरा के नरसंहार में, यह प्रत्यक्ष प्रयोग किया है, जो नरसंहार डी. जी. तेंदुलकर (6 खंडों में 'महात्मा' के लेखक !) अपनी 'अब्दुल गफ्फार खान' नाम की किताब में जलियांवाला बाग के साथ तुलना करते हुए लिखते हैं "कि यह घटना इतनी भयंकर थी कि जलियांवाला कांड की तुलना में अधिक बर्बरता वाली घटना है".
महात्मा गाँधी के अन्य अनुयायियों में और, बादशाह खान अब्दुल गफ्फार खान साहब में यही मौलिक फर्क नजर आता है. काफी गांधीवादी लोग खान साहब से भी अच्छी तरह से अहिंसा के सिद्धांत पर प्रवचन देने वाले मुझे मालूम हैं. लेकिन अहिंसा का साक्षात प्रयोग करने वाले एक मात्र अनुयायी खान साहब ही थे.
और यही बात भारत विभाजन के खिलाफ जो भी लोग हैं, उन सभी की तुलना में सही- सही शख्सियत अगर कोई थी तो, वह भी बादशाह खान अब्दुल गफ्फार खान ही थे. और वह भी पाकिस्तान में रहते हुए बंटवारे को नकारते हुए कल्पना से परे है.
एक तरफ 'हिंदुत्व' नाम की किताब लिखना और, बंटवारे का विरोध सिर्फ मुंह से करने वाले लोगों की बुद्धि पर तरस आता है. इसमें से एक भी नमूने ने बंटवारे के खिलाफ कार्रवाई करने की कोशिश का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है. सिवाय अस्सी साल के निहत्थे महात्मा गाँधी की हत्या करने के अलावा. इस नपुंसक जमात का और कोई उदाहरण नहीं है.
उल्टा सांप्रदायिक राजनीति करने वालों ने ही भारत का बंटवारा किया है. और वह दोनों तरफ के (हिंदुत्ववादी और इस्लामिस्ट, और वह भी सिर्फ अपने स्वार्थ की राजनीति के लिए !) क्योंकि बैरिस्टर जिन्ना अपने खास लोगों के साथ की बातचीत में, अक्सर कहा करते थे कि "मैं इन जाहिल लोगों के लिए थोड़ा ही पाकिस्तान बना रहा हूँ ?" मतलब जिन्ना ने अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति करने के लिए ही बंटवारे की कृति को अंजाम दिया, ऐसा मेरा स्पष्ट मानना है. और हिंदुत्ववादी तत्वों ने उसे मदद ही की है. मोर्ले - मिंटो सुधार के निषेध के तौर पर कांग्रेसी सरकारों ने इस्तीफा दिया, तो उनकी जगह पर मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा की मिली जुली सरकारों के गठबंधन बना , वह भी लाहौर प्रस्ताव के बाद भी, इस कदम से हिंदुत्ववादी लोगों को इतिहास में अपने ही गिरेबान में झाँकना पड़ेगा. और पता चलेगा कि इनके इस कदम के कारण मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग को मान्यता मिली. किसके माथे पर दोष मढ़ कर हत्या कर दी ? जो आखिर तक बंटवारे के विरोध में रहने वाले महात्मा गाँधी की हत्या ? और आजकल उस कृत्य को महिमामंडित करने की होड़ लगी हुई है.
तथाकथित हिंदुत्ववादी किस तरह का विषवमन अल्पसंख्यक समुदायों से लेकर महात्मा गाँधी तक लगातार कर रहे हैं ? और वर्तमान सत्ता में बैठे हुए लोगों की मूक सहमति दिखाई दे रही है, यह और भी गंभीर बात है.
मुझे अब तक दो बार पाकिस्तान जाने का मौका मिला है. और एक बार तो वाघा बार्डर से होते हुए पाकिस्तानी पंजाब, सिंध और ब्लूचिस्तान के रास्ते ज़ाहेदान तक. मतलब ईरान के पाकिस्तान से लगे हुए ब्लूचिस्तान के हिस्से से ईरान में प्रवेश किया.
पंजाब के लोगों को पाकिस्तान के अन्य हिस्सों के लोगों से कितनी नफरत है, यह मैंने कदम- कदम पर देखा है. हमारे पंजाबी ड्राइवर को मेंटर के तौर पर, मैंने देखा कि, पंजाब से सिंध प्रांत में घुसने के पहले, उसने एक पेट्रोल पंप पर पेट्रोल लेने के लिए, हमारी गाड़ी खड़ी की, और हमारे साथ पंजाब पुलिस की दो गाड़ियों का काफिला (एक आगे और दूसरी पीछे) सिक्युरिटी गार्ड के साथ थी. तो सिक्युरिटी गार्ड ऐके 47 के साथ जाकर, पेट्रोल पंप पर भीड़ को हटाने लगे, तो मैंने ड्राइवर की बगल में ही सामने की सीट से देखा कि, पेट्रोल पंप के ऑफिस के शटर को बंद कर के एक नाटे से आदमी ने कहा कि, "अब आसिफ अली जरदारी भी आया तो मैं पेट्रोल पंप नहीं खोलने वाला." (उस समय जरदारी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे.) जैसे ही मैंने यह डायलॉग सुना, तो मैं अपने आप गाड़ी का दरवाजा खोल कर बाहर आकर उसे गले लगाकर, कहा कि "वाह क्या बात है, आज भी पाकिस्तान में यह जज्बा कायम है, यह देखकर बहुत ही अच्छा लग रहा है. आपने हमें पेट्रोल नहीं दिया तो भी चलेगा, मैं तो आपके जज्बे को सलाम करने के लिए आपको गले लगाया हूँ, " तो भीड़ में से लोगों ने कहा कि "यह हमारे मेहमान हैं, इन्हें पहले दे दीजिए." वह नाटा सा आदमी शायद पेट्रोल पंप का मालिक था. मुझसे कहा कि "देखिये यह आपके सिक्युरिटी वाले लोग, बंदूक दिखाकर पेट्रोल मांग रहे हैं. इसलिये मुझे गुस्सा आया!" तो मैंने कहा कि "यह वर्दी की गर्मी है, जो हमारे मुल्क में भी हम देखते रहते हैं." और उसने हमें पेट्रोल सबसे पहले दे दिया। पेट्रोल लेकर कुछ कदम ही आगे बढ़े होंगे, तो पंजाबी ड्राइवर ने कहा कि, "वह साला बलूच था. और यह सभी बलूच हरामखोर, गद्दार होते हैं." थोडी देर बाद सिंध प्रांत की शुरुआत हुई तो ड्राइवर ने कहा कि "और एक गद्दारी वाले लोगों के बीच आ गये." मतलब पाकिस्तान का युनिफिकेशन अभी भी नहीं हुआ है. और इससे भी ज्यादा ब्लूचिस्तान में हालात कश्मीर से भी बदतर है. इसलिए हमें कराची में बताया गया कि ब्लूचिस्तान में बहुत बवाल मचा हुआ है, इसलिए यहाँ से झायेदान हवाई जहाज से भेज रहे हैं. "
कराची से निकलने के घंटे भर में ही, क्वेटा एअरपोर्ट पर थोड़ी देर के लिए हमारे प्लेन को रूकना पड़ा था, तो मैं अपनी सीट से उतरकर एअरपोर्ट की जमीन पर उतरने के बाद देखा, कि हर दस फीट पर ऐके 47 और तोप लेकर गार्ड मुस्तैदी से खड़े थे. तथा बख्तरबंद गाड़ियों से पूरा एअरपोर्ट घिरा हुआ था. तो मैंने ग्राउंड स्टाफ को पूछा कि क्या यह आर्मी का एअरपोर्ट है ? तो वह बोला कि आप शायद जानते नहीं हैं, यह ब्लूचिस्तान है. और यहां पर बारह महीनों चौबीस घंटे बलूच के लोगों की आजादी की लड़ाई जारी है. इसलिए इस एअरपोर्ट पर इतनी ज्यादा सिक्योरिटी है. और यह एअरपोर्ट सिविल ही है. लेकिन मोस्ट सेसेंटिव सिक्योरिटी जोन की कॅटेगरी में आता है. इसलिए इतनी सिक्योरिटी दिखाई दे रही है.
हालांकि मुझे ब्लूचिस्तान की स्थिति के बारे में, हमारे कराची के होस्ट ने पूछा था कि "आप को कराची से ज़ाहेदान सड़क मार्ग से क्यों नहीं जाने दिया ?" हमने कहा कि कुछ सिक्युरिटी की बात बोल रहे थे. तो वह बोले किसकी सिक्युरिटी ? आप लोगों की या पाकिस्तान की ? मैंने पशोपेश में पड़कर पूछा कि "पाकिस्तान की सिक्युरिटी की क्या बात है ?" तो उन्होंने कहा कि "आप लोगों के क्वेटा पहुंचने पर एक लाख से अधिक लोग इकट्ठे होकर आपके स्वागत-सत्कार के लिए तैयार थे." मैंने कहा कि हमें अपनी जगह पड़ोसी भी ढंग से पहचानते नहीं हैं, और हम लोगों में कोई सचिन तेंदुलकर या शाहरुख खान भी नहीं है, कि हमारे लिये इतनी ज्यादा भीड इकट्ठा हों. तो उन्होंने कहा कि "वह अपने स्वतंत्र ब्लूचिस्तान की बात आप लोग फिलीस्तीन के जैसे ही उठाएंगे, इस आशा से आपके स्वागत-सत्कार के तैयारी में जुट गए हैं. और इसे देखते हुए पाकिस्तानी सेना के लोगों ने आपको सड़क मार्ग से कराची के आगे जाने की जगह सीधे हवाई जहाज में बैठा कर ज़ाहेदान पहुxचाने का निर्णय लिया है. और मैं भी जानबूझकर जैसे ही कराची के बाद कुछ समय भीतर विमान नीचे उतरा, तो मैंने एअर होस्टेस से पूछा कि ज़ाहेदान (Zahedan) आ गया ? तो एअरहोस्टेस ने कहा कि यह क्वेटा एअरपोर्ट (Quetta) है, और यहां पैंतालीस मिनट का स्टॉफओवर है. तो मैंने भी इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए मेरे घुटनों में दर्द होने लगता है, तो थोड़ा टहलने के लिए मैं नीचे उतरना चाहता हूँ. तो एअर होस्टेस ने कहा कि प्लीज आप सिर्फ प्लेन का चक्कर लगा सकते हैं. मेहरबानी करके ज्यादा इधर- उधर मत जाना, तो उस बहाने क्वेटा की जमीन पर पैर लगाने को मिला.
और सबसे महत्वपूर्ण बात ब्लूचिस्तान के साथ चल रहे पाकिस्तान के रवैये की झलक देखने को मिली. वैसे तो मुझे बलूच लड़ाई के बारे में काफी कुछ जानकारी मिलती रहती हैं. चालीस हजार से अधिक बलूच गायब हैं. और उनके मुक्ति के लिए क्वेटा से इस्लामाबाद के मार्च की खबरें मुझे मालूम थी. मतलब इस्लामाबाद से पंजाबी लॉबी, जो कि सेना, आईएसआई, प्रशासन से लेकर जुडीशिअरी और पुलिस, मीडिया के साथ ज्यादती की जानकारी से मैं अपडेट था. इसलिये मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि पचहत्तर साल के बावजूद पाकिस्तान की एकता नहीं बन पाई है. और यह भारत के लिए भी एक चेतावनी है, कि किसी एक भाषा या एक धर्म या एक ही संस्कृति जैसे मुद्दों पर अगर जोर जबरदस्ती करोगे, तो बगल का पाकिस्तान और उसी से लगकर एक और महत्वपूर्ण उदाहरण तथाकथित सोवियत रूस का है. जिसका गोर्बाचेव के ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोइका की घोषणा के बाद, 70 साल की फ़ौलादी कम्यूनिस्ट दीवार का 1990 में क्या हाल हुआ है ? अगर इनसे सबक नहीं ले सकते तो आप को भगवान राम भी नहीं बचा पाएंगे, इतना पक्का.
उसके पहले यात्रा के दौरान मेरी लाहौर के किले में कुछ स्वात वैली के लोगों के साथ, मुलाकात हुई थी. और वह दिन भी छह दिसम्बर का था. तो वह वहां कितना भयग्रस्त माहौल में हम लोग रहते हैं, यह दास्तान बता रहे थे. कराची में जिन्ना की मजार पर कुछ पीओके के लोग मिले. तो मुझे अकेले में हमारे बस में ले जाकर, अपना दुखड़ा रो- रोकर बता रहे थे, कि हमारे साथ कितने जुल्म हो रहे हैं.
आज से पचपन साल पहले बंगला देश की निर्मिति किस बात का प्रतीक है ? क्या भारत के तथाकथित हिंदुत्ववादियों को यह सब नहीं दिखाई देता है ? या जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं ? धर्म के आधार पर इस मुल्क का एक बार बंटवारा हुआ है, और आज पचहत्तर साल के बाद क्या आप लोगों की बुद्धि को लकवा हो गया है ? कि यह सब वास्तव देखकर नहीं लगता कि अब धर्म के आधार पर राजनीति करना गलत है. क्योंकि भारत का एक बंटवारा सिर्फ और सिर्फ धार्मिक आधार पर ही हुआ है.
बादशाह खान अब्दुल गफ्फार खान साहब की पैतींसवे पुण्यस्मरण दिवस पर इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या हो सकती है ?
डॉ. सुरेश खैरनार,
19 जनवरी 2025 ,
नागपुर.
Web Title: Pioneer of non-violence and justice- Khan Abdul Ghaffar Khan


