खूनी व्यापम- चरित्र निर्माताओं के रक्तरंजित प्रताप
खूनी व्यापम- चरित्र निर्माताओं के रक्तरंजित प्रताप
खूनी व्यापम : क्या कभी काण्ड के असली सूत्रधार गिरफ्त में आ सकेंगे
आज़ाद हिन्दोस्तां में भ्रष्टाचार का मसला सुर्खियों में रहता आया है, जिसने कई सियासतदानों के सितारे गर्दिश में ला दिए या निचले स्तर पर सक्रिय कइयों को सलाखों के पीछे जाना पड़ा। मगर यह पहली बार हो रहा है कि किसी घोटाले से जुड़े लोग - फिर वह चाहे अभियुक्त की श्रेणी में आते हों या गवाह की श्रेणी में, एक-एक करके रहस्यमय मौत का शिकार हुए हों और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी हो। मध्य प्रदेश व्यावसायिक परीक्षा महामंडल के बैनर तले मेडिकल परीक्षाओं में भरती से लेकर वनरक्षक तथा अन्य पदों पर भरती में प्रदेश व्यापी स्तर पर हुई अनियमितताएं - जिनमें संघ के वरिष्ठ नेताओं से लेकर, राज्य के गवर्नर तक, मुख्यमंत्री कार्यालय से लेकर तमाम बड़े नौकरशाहों तक सभी किसी न किसी स्तर पर संलिप्त रहे हों - जिसे ‘ व्यापम घोटाले ’ के तौर पर संबोधित किया जा रहा है, स्वतंत्र भारत का पहला ऐसा घोटाला है, जिसके बारे में अभी भी यह नहीं कहा जा सकता कि वह और कितने लोगों को लील देगा।
ताज़ा समाचार के मुताबिक जहां मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान - जो काफी समय तक सीबीआई जांच का विरोध करते रहे हैं‘ उन्होंने उसके प्रति सहमति दर्ज की है। अभी महज दो दिन पहले उन्होंने उच्च न्यायालय के तहत स्पेशल टास्क फोर्स द्वारा इस मामले में की जा रही जांच की बात करते हुए सीबीआई जांच से इन्कार किया था। स्पष्ट है कि पार्टी के अन्दर और बाहर उन पर जो भारी दबाव पड़ा, जहां उनके कुर्सी जाने की संभावना भी बनती दिख रही थी, उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया है। उनके पहले मुख्यमंत्री पद पर विराजमान रही सुश्री उमा भारती - जो इन दिनों केन्द्रीय मंत्रिमंडल में हैं - उन्होंने इन रहस्यमयी मौतों को लेकर यह बयान दिया था, कि वे खुद भी इस मामले में डरी हुई हैं कि कहीं उनके अपने लोगों पर भी आंच न आएं।
यह खूनी व्यापम जहां भाजपा के नेतृत्व की अकर्मण्यता एवं संलिप्तता की एक मिसाल पेश करता है, वहीं यह उनके नेताओं की मानसिकता को, गहरी असंवेदनशीलता को भी उजागर करता है, जहां मौतों को लेकर राज्य के ग्रहमंत्री बाबूलाल गौड़ - जो पूर्व मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं - यह बयान देते हैं कि ‘जो पैदा होता है, उसे एक न एक दिन जाना होता ही है’, राज्य के वरिष्ठ मंत्री कैलाश विजयवर्गीज आज तक के पत्राकार अक्षय सिंह की मौत पर बेतुका सा बयान देते हैं कि ‘उनसे बड़ा पत्रकार कोई नहीं है’ या केन्द्रीय मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य सदानन्द गौड़ा, इस काण्ड को एवं उससे जुड़ी मौतों को ‘हल्का मुददा’ घोषित करते हैं।
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चार्जशीट में दसवें नम्बर पर खुद गवर्नर रामनरेश यादव का भी नाम दर्ज है, जिन्हें अपने पद के चलते ही गिरफ्तार नहीं किया गया है, जबकि इसमें दर्ज बाकी सभी जेल में हैं। गवर्नर के खिलाफ दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट में किसी वीरपाल सिंह का बयान दर्ज है, जिसे गिरफ्तार किए जाने के बाद उसने बताया था कि उसने गवर्नर के सरकारी आवास पर रामनरेश यादव के सुपुत्र शैलेश यादव को दस प्रत्याशियों की सरकारी अध्यापक के पद पर भरती के लिए तीन लाख रुपए दिए थे। ध्यान रहे कि इन्हीं शैलेश यादव की मार्च महिने में लखनऊ में अचानक मौत हुई थी। दिलचस्प यह भी है, जहां भाजपा ने सत्ता में आने के बाद कांग्रेस सरकार द्वारा नियुक्त तमाम राज्यपालों को बदला है, वहीं व्यापम घोटाले में नाम आने के बावजूद रामनरेश यादव पर भाजपा की नज़रे इनायत बनी हुई है। स्पष्ट है कि भाजपा जानती रही है कि उन्हें अगर पद से मुक्त किया गया तो वह इस काण्ड के कई अन्य सूत्रधारों के बारे में पर्दाफाश कर सकते हैं।
आखिर क्या है व्यापम घोटाला ?
मध्यप्रदेश के व्यावसायिक परीक्षा महामंडल - जिसे संक्षेप में ‘व्यापम’ कहा जाता है, उसे जरिए सरकारी नौकरियां एवं मेडिकल कालेजों में प्रवेश के काम का संचालन होता है। ख़बरों के मुताबिक अब तक हजारों की तादाद में प्रत्याशियों ने चाहे सरकारी नौकरी पाने के लिए या मेडिकल कालेजों में प्रवेश के लिए पैसे दिए - जिनमें मंत्रियों से लेकर नौकरशाह तक, व्यापारियों से लेकर साधारण क्लर्कों तक हजारों लोग शामिल रहे हैं। एक आपराधिक गिरोह की तरह यह सब काम करते रहे हैं, जिसमें मेडिकल परीक्षा में फर्जी प्रत्याशियों को इम्तिहान दिलाने से लेकर उनकी मार्कशीट बदल देने जैसे काम होते रहे हैं।
यूं तो वर्ष 2000 से ही ऐसे छिटपुट मामले सामने आते रहे हैं, मगर चीजें उतनी संगठित रूप में नहीं चलती थीं, भाजपा के सत्तारोहण के बाद यह मामला अधिक संगठित रूप में चलने लगा, यह अकारण नहीं कि भाजपा के पूर्व शिक्षा एवं संस्क्रति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा, जो संघ के प्रचारक रहे चुके हैं, वह तथा उनके कई करीबी साल भर से अधिक वक्त से जेल की सलाखों के पीछे हैं।
‘हमसमवेत’ के अपने आलेख http://www.humsamvet.in/humsamvet/?p=2313 में अलका गंगवार एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती हैं कि मध्यप्रदेश में दस हजार से अधिक शासकीय सेवा की भर्तियों में घोटाला एवं पिछले सात सालों से प्री मेडिकल टेस्ट में प्रवेश के इस सिलसिले को लेकर जिसमें 45 से अधिक लोग आधिकारिक तौर पर मारे जा चुके हैं, 2,000 लोग जेल में बन्द हैं और 500 फरार हैं, उसके बारे में ‘उच्च न्यायालय की निगरानी में गठित एसआईटी् के अनुसार जगदीश सागर, पंकज त्रिवेदी, नितिन महेन्द्रा, पूर्व मंत्री लक्ष्मीकान्त शर्मा वे सरगने हैं जिन्होने 10 हजार करोड़ का घोटाला संचालित किया। लेकिन यह बात गले नही उतरती क्योंकि ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......
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सत्ता के शीर्ष प्रतिष्ठान वल्लभ भवन से मात्र 500 मीटर की दूरी पर स्थित व्यापम में इतना सब होता रहा और शीर्ष सत्ता को इसकी खबर तक नहीं लगी, यह कैसे संभव है ? साल 2009 में यह मामला विधानसभा में उठने के बाद भी सभी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और व्यापम के सरगना काम करते रहे। घोटाले का सरकार को पता न हो यह अविश्वसनीय है।’
इसमें कोई दोराय नहीं कि इस काम को व्यापम कार्यालय के नौकरशाह चन्द दलालों के साथ अंजाम नहीं दे सकते थे, जब तक उन्हें उपर से शह न हो। यह अकारण नहीं, मामले को उजागर करनेवाले व्हिसलब्लोअर बार-बार खुद शिवराज सिंह एवं उनकी पत्नी की इस मामले में संलिप्तता की बात कर रहे हैं।
निश्चित तौर पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश एवं निगरानी में सीबीआई जांच करे तो असली सूत्रधारों की ओर पहुंचने की थोड़ी संभावना बनती है, मगर इस बात की गारंटी नहीं की जा सकती क्योंकि केन्द्र में सत्तासीन भाजपा - जिसके मातहत सीबीआई आती है - वह इस बात की पूरी कोशिश करेगी कि पूरी जांच असली सूत्रधारों तक न पहुंचें। हम देख सकते हैं कि किस तरह सोहराबुददीन फर्जी मुठभेड मामले में जमानत पर चल रहे अमित शाह को जब निचली अदालत ने बरी किया तो वही सीबीआई ने इसके खिलाफ अपील अभी तक नहीं लगायी, अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ है जब मालेगांव बम धमाकों को मामले में पब्लिक प्रोसिक्यूटर रोहिणी सालियान ने यह साक्षात्कार दिया कि किस तरह नेशनल इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी की तरफ से उस पर दबाव डाला जा रहा है कि वह मालेगांव बम धमाके के मामलों में तेजी न दिखाए। यहां तक हम लोग यह भी देखते हैं कि मार्च माह तक सारधा घोटाले में उलझी त्रणमूल कांग्रेस के कई नेताओं को सीबीआई ने पकड़ा, मगर जबसे उसने भाजपा के साथ पींगे बढ़ानी शुरू की है, सीबीआई की रफ्तार सुस्त हो गयी है।
वैसे अगर अतीत को मार्गदर्शक माने और भाजपा के अपने रेकार्ड को देखें तो ऐसे कई मामले दिखते हैं, जहां अग्रणी नेताओं के मामलों में जबरदस्त अपारदर्शिता बरती जाती है। ‘व्यापम’ घोटालों में पिछले साल संघ के वरिष्ठ नेता सुरेश सोनी तथा उसके दिवंगत सुप्रीमो सुदर्शन का भी नाम उछला था कि उन्होंने अपने आत्मीयों को मदद पहुंचायी, मगर तुरंत उस ख़बर को रफादफा कर दिया गया।
चाहे व्यापम घोटाला हो या ललितगेट का मामला हो या महाराष्ट्र के मंत्रियों के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोप हों, हम देख सकते हैं कि जनाब नरेन्द्र मोदी, जिन्होंने सत्ता पर आने के पहले यह ऐलान किया था कि वह भ्रष्टाचार को काबू में करेंगे, उनका मौन चर्चा का विषय बना हुआ है। सत्ता में आने के एक साल बाद ही लोग जान रहे हैं कि भाजपा की कथनी एंव करनी में कितना अंतर होता है।
भाजपा जो अपने आप को चरित्र निर्माण के लिए प्रतिबद्ध कहे जानेवाले संघ का ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......
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आनुषंगिक संगठन है, उसके इस दोहरे व्यवहार के कई किस्से बयां किए जा सकते हैं। याद है यूपीए की सत्ता के दिनों में भाजपा के केन्द्रीय मुख्यालय से ‘चोरी गए 2.5 करोड़ रूपए’ का प्रसंग। हां, भाजपा का वही केन्द्रीय मुख्यालय जहां राजग के पहले संस्करण के दिनों में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण तहलका पत्रिका द्वारा किए गए स्टिंग आपरेशन में पकड़े गए थे, जब वह ‘हथियारों के सौदागर’ के तौर पर प्रस्तुत पत्रकार से ‘नोटों की गड्डियां’ लेते दिखाई दिए थे। इस मामले में हुई पार्टी की फजीहत के बाद उन्हें अध्यक्ष पद से रूखसत किया गया था, अलबत्ता बाद में पार्टी ने यह भी कहा था कि जनाब बंगारू पार्टी के लिए ही यह चन्दा ले रहे थे।
पार्टी मुख्यालय से यह चोरी 26 दिसम्बर 2008 को चिन्हित की गयी थी जब पार्टी के डेप्युटी अकौंटस आफिसर नलिन टंडन , क्रिसमस के अवकाश समाप्ति के बाद दफ्तर लौटे थे। गौरतलब था कि इस मामले में रहस्य इस वजह से गहराया था क्योंकि न खजाने का ताला टूटा था और न ही तिजोरी को तोड़ा गया था। इस बात के भी संकेत थे कि कोईभी बाहरी व्यक्ति वहां नहीं पहुंचा था। उन दिनों मीडिया में जारी एसएमएस पूरे किस्से को बयां कर रहा था ‘ ना ताला टूटा ना तिजोरी, फिर भी भाजपा मुख्यालय से ढाई करोड़ चोरी’।
रेखांकित करनेवाली बात यह है कि यह समूचा प्रसंग - जिसने समूची पार्टी को बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर किया था और उसकी इस अक्षमता को रेखांकित किया था कि वह बेदाग लोगों को करीब लाने में अक्षम है - अब लगभग विस्मृत हो चला है। इस अन्तराल में पार्टी मुख्यालय के शीर्ष पद पर कइयों की आवाजाही हुई है, फिलवक्त़ कोईभी उसे याद करना भी नहीं चाहेगा। मगर क्या यह सवाल कभी पूछा ही नहीं जाएगा कि निजी गुप्तचर एजेंसी ने किस ‘अन्दरूनी’ चोर को चिन्हित किया और अपने आप को ‘अलग कहलानेवाली पार्टी’ ने क्या कदम उठाया ? निश्चित ही ऐसे सवाल उठाना खूनी व्यापम के आलोक में बहुत खतरनाक काम साबित हो सकता है।
-सुभाष गाताडे


