अब तो जागो बहरी सरकार, आत्महत्याओं का सिलसिला खेत से चलकर संसद के दरवाजे तक पहुंच गया है
आत्महत्याओं का मजाक बनाना हमारी आदत हो गई है।
गुलाम भारत में जब देश के मजदूरों के खिलाफ अंग्रेज सरकार कानून पास करने की कोशिश कर रही थी, तब संसद में बम फैंककर शहीदे आजम भगत सिंह ने बहरी सरकार को मजदूरों की आवाज सुनाने की कोशिश की थी, आज देसी राष्ट्रवादी सरकार जब किसानों के खिलाफ भूमि अधिग्रहण कानून पास करने की कोशिश कर रही है, तो संसद से चंद कदमों की दूरी पर राजस्थान के एक युवा किसान गजेन्द्र ने फांसी के फंदे पर झूलकर इस गूंगी बहरी सरकार को किसानों की आवाज सुनाने की कोशिश की है। दोनों मामले संसद मार्ग थाने में दर्ज किए गए थे। शहीदे आजम भगत सिंह को गिरफ्तार करके संसद मार्ग थाने लाया गया था, गजेन्द्र के मृत शरीर को लाया गया है। गजेन्द्र क्रांतिकारी नहीं था, हो सकता है देश में लाखों निराश किसानों की तरह वह भी यही मानता हो, कि सरकार के पास उसकी बदहाली दूर करने का कोई रास्ता नहीं है और जलालत की जिंदगी को खत्म कर देना चाहिए। पर यह भयानक है, कि आत्महत्याओं का सिलसिला खेत से चलकर संसद के दरवाजे तक पहुंच गया है। आत्महत्या की यह घटना एक मुख्यमंत्री के सामने हुई, जबकि देश के प्रधान कुछ कदम दूरी पर बैठे थे। इस घटना पर दुख केजरीवाल न भी जताया, प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसे राष्ट्रीय शर्म बताकर शोक जताया, पर क्या गजेन्द्र ने आत्महत्या केवल शोक मनाने के लिए की थी, उसकी मांग इस देश के बदहाल किसानों की दशा सुधारने की थी, उस पर किसी ने भी बात नहीं की।
असल में आत्महत्याओं का मजाक बनाना हमारी आदत हो गई है। जिस समय गजेन्द्र के शरीर को उतारा जा रहा था, तब दूर से देखकर ही लग रहा था, कि उसकी मौत हो गई है, पर उसके बाद भी केजरीवाल की सभा चलती रही, नेताओं को एक जिंदगी से अधिक अपने भाषणों और उपलब्धियों के बखान की चिंता थी। यही मुद्दा बन गया और इस पर राजनीति शुरु हो गई। मीडिया के लिए भी इस आत्महत्या को तमाशा बनाने की बहाना मिल गया। सारी खबरें राजनैतिक हो गई, मुद्दा दब गया। रही बात रैली की, तो उसमें सभी नेताओं का भाषण केवल इसी बात पर केन्द्रित था, कि केजरीवाल कितने महान हैं, उन्होंने 50 हजार रुपए हैक्टेयर मुआवजा दिया, मोदी ऐसा नहीं कर रहे हैं।
भाई इन नेताओं को कौन समझाए, किसान खैरात नहीं चाहता, अगर ऐसा होता, तो वह मेहनत क्यों करता। उसे उसके श्रम का सही दाम चाहिए, वह इस देश के विकास में अपना योगदान देना चाहता है, जो हमेशा से देता रहा है। उसे खैरात नहीं सही नीतियां चाहिए, जिससे खेती को बढ़ावा मिल सके और गांव में सम्पन्नता आ सके। सरकार अगर उसे खेती बेचकर सम्पन्न बनाना चाहती है, तो उसे किसी प्रधानमंत्री से पूछने की जरुरत नहीं है, यह काम तो वह कभी भी कर सकता है, तमाम लोग गांव छोड़कर शहरों में बस भी गए उन्होंने ऐसा करने के लिए किसी सरकार से सलाह नहीं ली।
शहीद किसान गजेन्द्र सिंह के बारे में बताया गया है, वह सामाजिक रुप से काफी सक्रिय था, उसने राजनीति की शुरुआत भाजपा से की थी, बाद में समाजवादी पार्टी से एक बार चुनाव भी लड़ चुका था, 2013 में वह कांग्रेस में आ गया था और कुछ समय पहले ही आम आदमी पार्टी से जुड़ा था। इससे दो बातें साफ हैं, पहला तो वह इन सभी पार्टियों की नीतियों को अंदर से देख चुका था और निराश था, दूसरा वह सम्पन्न किसान था, जिसकी फसल इस साल खराब हो गई थी, इसलिए आर्थिक हालत काफी खराब थे और उसे काम करने के लिए घर से निकाल दिया गया था। असल में किसानों की आत्महत्या तो काफी समय पहले से हो रही हैं, पर इस साल ये घटनाएं उन इलाकों में हो रही हैं, जहां अपेक्षाकृत सम्पन्नता है, आत्महत्या वे कर रहे हैं, जो बड़े किसान माने जाते हैं।
दरअसल में पिछले कुछ समय से खेती में एक बड़ा बदलाव आया है। पहले छोटे किसान बड़े किसानों के खेत बटाई पर किया करते थे, पर अब बड़े किसान छोटे किसानों के खेत ले लेते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि खेती की लागत बढ़ गई है और सारा काम मशीनों से होने लगा है। छोटे किसान यह बात जानता है, कि साल भर मजदूरी करने के बाद भी उसे कुछ नहीं मिलने वाला, इसलिए वह अपनी खेती बड़े किसान के सुपुर्द कर खुद पलायन कर शहर में मजदूरी करने चला जाता है। अब बड़ी लागत लगाकर जो किसान खेती करता है, वह बड़े कर्ज में डूब जाता है। पी साईंनाथ के अध्ययन के अनुसार जो किसान नगद फसल अधिक करते हैं, वे ही अधिक आत्महत्या करते हैं, क्योंकि लागत बड़ी होती है, पर इस बात देखने में आ रहा है, कि जो किसान गेहूं जैसी परंपरागत खेती कर रहे हैं, वे भी आत्महत्या कर रहे हैं।
इस पर भी सरकारों का रुख भारी नकारात्मक है, वह इस बात को मानने को तैयार ही नहीं है, कि किसान कर्ज के कारण आत्महत्या कर रहा है। किसानों की आत्महत्या के जो कारण सरकार बताती है, उसे सुनकर ही शर्म आती है। मध्य प्रदेश में किसान आत्महत्या को लेकर सरकार ने जो कारण बताए थे, उसमें एक किसान की आत्महत्या का कारण उसकी बकरियों का मरना बताया गया था, जिनका दुख वह सह नहीं सका। इस देश में कोई बाप के मरने पर नहीं मरता, पर बकरी के मरने पर आत्महत्या कर लेता है? इसी प्रकार दूसरे किसान के बारे में बताया गया था, कि उसकी बहन ने उसे मुरगा बनाकर नहीं खिलाया था, इसीलिए उसने आत्महत्या की। बाकी किसानों के बारे में पत्नी से झगड़ा, पागलपन की दौरा, बीमारी जैसे कारण बताए गए थे। यह कारण उस सरकार ने बताए थे, जिस सरकार का मुखिया खुद को किसान का बेटा बताता है।
असल में सरकारें कभी भी गरीबों को लेकर संवेदनशील होती ही नहीं हैं, इसीलिए वे राजनीति तो कर सकती हैं, पर गरीबों के लिए सक्रिय नहीं हो सकती। लगातार खबरें आ रही हैं, कि पटवारी मुआयना करने नहीं जा रहे, जो अनाज बारिश की वजह से खराब हो गया है, वह खरीदा नहीं जा रहा, सरकारी खरीदी में लापरवाही की जा रही है, मंडियों में व्यापारी किसानों को लूट रहे हैं, इन पर सरकारें चिंता तो व्यक्त करती है, पर कार्रवाई कुछ नहीं करतीं। केन्द्र राज्य को दोषी ठहराता है, राज्य केन्द्र को। नई सरकार ने परेशानी और बढ़ा दी है, एक तो खाद की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी की है, दूसरा समर्थन मूल्य पर जो सरकारें बोनस किसानों को देती थीं, उसके लिए साफ मना कर दिया है। आने वाले दिनों में सरकारी खरीब बंद करने और खाद को बाजार के हवाले करने की तैयारी है। सरकार चाहती है, कि अगर भूमि अधिग्रहण विधेयक पास न हो पाए, तब भी हालात ऐसे हो जाएं, कि किसान खुद अपनी जमीन परेशान होकर पूंजीपतियों के हवाले कर दे।
भारत शर्मा
भारत शर्मा, लेखक देशबंधु के दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक रह चुके हैं।