हरियाणा के वरिष्ठ आईएएस अफसर अशोक खेमका का तबादला एक बार फिर तूल पकड़ता जा रहा है। हालांकि मुख्यमंत्री इसे रूटीन ट्रांसफर बता रहे हैं परंतु माना यह जा रहा है कि उनका तबादला माफियाओं के दबाब में किया गया है। हास्यास्पद बात तो यह है कि जिस बीजेपी को विपक्ष में रहते खेमका के तबादले में भ्रष्टाचार और ईमानदार अफसर को परेशान करने की साज़िश नज़र आती थी, सत्ता में आते ही उसी पार्टी को आज उनके ट्रांसफर पर चर्चा किया जाना फ़िज़ूल नज़र आ रहा है। बीजेपी लीडरों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि परिवहन आयुक्त के पद पर रहते हुए उन्होंने जो माइनिंग लॉबी पर शिकंजा कसा वह उनके ट्रांसफर का कारण नहीं है, तो फिर इतनी जल्दी रूटीन ट्रांसफर की नौबत क्यूँ आ गई?
दरअसल खेमका को देश के उन गिनेचुने ईमानदार अधिकारियों की फेहरिस्त में रखा जाता है, जो बिना किसी दबाब के अपने फ़र्ज़ को अंजाम देते आ रहे हैं। इसी कार्यशैली के कारण वह सदैव राजीनीतिक दलों की आँखों में खटकते रहे हैं। इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मात्र 23 वर्ष के प्रशासनिक कार्यकाल में यह उनका तकरीबन 46वां तबादला है। यानि प्रत्येक 6 माह में उनके तबादले का आदेश जारी कर दिया जाता है। वैसे तो खेमका का तबादला हमेशा से मीडिया की सुर्ख़ियों में रहा है, लेकिन इस बार यह मामला इसलिए भी ज़्यादा गरमा गया है क्यूंकि राज्य में बीजेपी की बहुमत वाली सरकार है जिसने कांग्रेस की एक दशक पुरानी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए खेमका के पूर्व तबादलों को भी एक प्रमुख मुद्दा बनाया था। यह वही खेमका हैं, जिन्होंने उस वक़्त राज्य और केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ कांग्रेस की शक्तिशाली अध्यक्षा के दामाद के भूमि सौदे को रद्द कर दिया था और कैग ने भी उनके स्टैंड को उचित ठहराया था।
सत्ता भले ही बदल गई हो लेकिन राजनीतिक दलों के नज़रिये और उनके कामकाज में कोई तब्दीली नहीं आई है। माफियाओं और पूंजीपतियों के साथ राजनीतिक दलों का गठजोड़ किसी से छुपा नहीं रह गया है। हालांकि यह साबित करना मुश्किल है, परंतु माना जाता है कि यही माफिया और पूंजीपति चुनाव के समय राजनीतिक दलों के पक्ष में माहौल बनाने और उन्हें आर्थिक लाभ पहुँचाने में परदे के पीछे से प्रमुख भूमिका अदा करते हैं। जिसके बदले सत्ता में आने पर राजनीतिक दल उन्हें लाभ पहुंचाते है। ऐसे में अशोक खेमका जैसे कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार अफसर उनकी राह में रोड़ा बनते हैं तो तबादला होना स्वाभाविक है। दूसरी ओर राजनीतिक दलों के साथ साठगांठ रखने वाले अधिकारी वर्षों तक मलाईदार पदों पर बने रहते हैं। जिन्हें विधानसभा अथवा लोकसभा चुनाव के दौरान चुनाव आयोग की सख़्ती के बाद हटाना मुमकिन हो पाता है।
यह पहली बार नहीं है जब देश में किसी ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी को सत्तासीन राजनीतिक दल का कोपभोजन होना पड़ा है। इससे पूर्व यूपी में दुर्गा शक्ति नागपाल का ट्रांसफर भी ऐसे ही राजनीतिक साजिश का हिस्सा था। देश का शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र होगा जहाँ किसी ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी को सत्तासीन राजनीतिक दल के करीबी माफियाओं अथवा पूंजीपतियों के विरुद्ध कार्रवाई करने पर पुरस्कृत किया गया होगा। अलबत्ता विपक्ष उसे अपने राजनीतिक फायदे के लिए अवश्य इस्तेमाल करता है और जब सत्तासीन होता है तो उसी अधिकारी की कार्यशैली उसे संविधान के दायरे से बाहर नज़र आने लगती है। हालांकि हरियाणा सरकार के एक मंत्री जिस प्रकार से खेमका के तबादले का खुलकर विरोध कर रहे हैं उससे राजनीतिक दलों के प्रति लोगों में सकारात्मक संदेश अवश्य जायेगा। आम आदमी को विश्वास होगा कि केवल सरकार के विरुद्ध जनक्रांति के अलख से उपजा राजनीतिक दल ही भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के प्रति गंभीरता का परिचय नहीं देता है।
अवश्य ही भ्रष्टाचार इस देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है, लेकिन वोट बैंक की खातिर राजनीतिक दलों का रवैया भी देश के विकास में एक बड़ी रुकावट बनती रहा है। जो एक ईमानदार और संविधान के दायरे में रहकर काम करने वाले अधिकारी के लिए दीवार बन जाती है। जबतक खेमका जैसे अधिकारियों का राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल होता रहेगा उस वक़्त तक भारत को विश्व शक्ति बनाने का प्रयास मुंगेरीलाल के हसीन सपने से अधिक कुछ नहीं है।
शम्स तमन्ना
स्वतंत्र पत्रकार