माओवादी हमले और भारतीय राष्ट्र-राज्य
अरुण कुमार

हाल हाल तक माना यह जा रहा था कि माओवादियों पर भारत सरकार ने अँकुश लगाने में सफलता हासिल कर ली है। 1994 के बाद पहली बार 2012 में ही आतंकवादी हिंसा की केजुअलिटी तीन अंकों (804) में पहुँची थी। 2011 में यह संख्या 1073 थी और 2001 में सर्वाधिक 5839। वर्ष 2001 से इस पर कुछ अँकुश लगने जैसी स्थिति – आँकड़ों में, दिखने लगी। वर्ष 2008 में इस अँकुश की स्थिति में थोड़ी गड़बड़ जरूर दिखी। मगर कुछ ज्यादा नहीं।

माओवादी उग्रवाद जनित हिंसा के आँकड़ों की यदि बात करें तो 2004 के सितम्बर में जब एक किस्म के आपद-धर्म की स्थिति में माओवाद को मानने वाले दो धड़ों, जो सशस्त्र क्रान्ति में विश्वास करने का दावा करते रहे – पी।डब्ल्यू।जी। और माओइस्त कम्युनिस्ट सेन्टर (एम्।सी।सी।), ने मिलकर एक पार्टी सी।पी।आई।(माओवादी) बना ली तो उसकी मारक क्षमता बढी दिखने लगी। देश के प्रधानमन्त्री ने इस के बाद ही माओवादियों को ग्रेवेस्ट इन्टरनल सिक्योरिटी थ्रेट बताना शुरू किया। मगर इन माओवादियों की हिंसा में भी, हाल के दिनों में, नाटकीय कमी दर्ज़ की गयी थी। 2010 में जहाँ माओवादियों की हिंसा में मरने वालों की संख्या 1080 दर्ज़ की गयी वहीँ 2011 में यह घट कर मात्र 602 रह गयी थी। 2012 में तो यह मात्र 367 रह गयी।

उग्रवाद के आँकड़ो पर काम करने वालों के मुताबिक देश के कुल 640 जिलों में से 252 जिले माओवादी, इस्लामी, एथनिक और हिन्दुत्ववादी उग्रवाद से प्रभावित हैं। इनमे से 173 जिलों में माओवादियों का प्रभाव है। यानी अधिकांश जिलों में माओवादी ही प्रभावशाली हैं। 15 जम्मू –कश्मीर के जिलों को इस्लाम उग्रवाद प्रभावित माना गया है और 64 नार्थ ईस्ट के जिलों को ऐथनिक उग्रवाद प्रभावित माना गया है। हिन्दुत्ववादी उग्रवाद बहुत कम ही जिलों में हैं, लगभग नगण्य। शायद वे अभी जनता के बीच अपनी जगह नहीं बना सके हैं। संतोष करने के लिये कहा जा सकता है कि जहाँ सन 2010 में उग्रवाद प्रभावित जिलों की संख्या 310 थी वह अब घट कर 252 पर आ गयी है। शायद यह इसलिये क्योंकि इसी बीच 2009-10 के सालों में माओवादियों के बड़े बड़े नेताओं की रहस्यमय हत्याएं हुयीं और उनके बड़े बड़े नेता गिरफ्तार भी किये गये। इसमें पश्चिम बंगाल की राजनीति का भी बड़ा हाथ है जहाँ रणनीतिक अवसरवाद के तहत किशन जी के नेतृत्व में माओवादियों ने तृणमूल काँग्रेस की ममता बनर्जी के साथ हाथ मिला कर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के काडर राज के खिलाफ मोर्चा खोला था और जहाँ सत्ता में आने के बाद सत्ता के द्वारा अपनी जरूरतों के मुताबिक किशन जी की हत्या कर दी गयी और माओवादियों को जंगल महाल छोड़ कर, सरकारी

शब्दावली में जिसे रेड कोरिडोर तथा माओवादियों की भाषा में एम्.ओ.यू कोरिडोर कहा जाता है, के इलाकों में, जाने को बाध्य कर दिया गया। मगर उसके बावजूद भी 2012 के आँकड़ों के मुताबिक माओवादी आर्म्ड काडरों की संख्या 8,600 आँकी गयी जबकि 2006 में यह संख्या 7,200 आँकी गयी थी। इसके अलावा 38,000 जन मिलिशिया की संख्या आँकी गयी है। सरकार के पास इस के कोई आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं कि माओवादियों के पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पी.एल.जी.ए) के पूरावक्ती क्रान्तिकारियों की मदद करने वाले अनाम समर्थकों की संख्या कितनी है।

अभी अभी 25 मई को छत्तीसगढ़ के बस्तर रीजन के सुकमा इलाके की दर्भा घाटी में माओवादियों ने एम्बुश लगा कर हमला किया और काँग्रेस पार्टी की परिवर्तन यात्रा पर इस सशस्त्र हमले में अपने सबसे पुराने और सबसे महत्वपूर्ण दुश्मन, सेल्फ-स्टाइल्ड विजिलान्ते - सलवा जुडुम के प्रणेता महेंद्र कर्मा, प्रदेश काँग्रेस कमिटी चीफ नंदकुमार पटेल, पूर्व विधायक उदय मुदलियार, सहित 29 महत्वपूर्ण कांग्रेसियों की हत्या कर दी। काँग्रेस के महत्वपूर्ण नेता पंडित विद्या चरण शुक्ल सहित 30 अन्य गम्भीर रूप से घायल कर दिये गये। मगर ध्यान रहे कि इन नेताओं के पर्सनल गार्डों की, इन माओवादियों ने जब उनके एम्युनिसन समाप्त भी हो गये तो भी, उनकी जानें नहीं लीं। इस बार उन्होंने सिर्फ अपने राजनीतिक दुश्मनों को ही निशाना बनाया।

अभी अभी यूपीए सरकार के नौ साल पूरे करने के अवसर पर केन्द्र की काँग्रेसी सरकार की ओर से जो 2004-13 की “हैण्डबुक ऑफ़ गवर्नमेन्ट एचिव्मेन्ट” जारी की गयी है उसमें भी सरकार की ओर से अपनी पीठ थपथपाते हुये कहा गया है कि सरकार के द्वारा “ होलिस्टिक मैनर में सेक्युरिटी, डेवलपमेन्ट, स्थानीय समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा को मद्दे नजर रखते हुये गुड गवर्नेन्स के काम किये गये हैं जिसने लेफ्ट विंग एक्सट्रीमिस्टस (एलडब्ल्यूई) प्रभावित इलाकों में जादुई असर दिखाना शुरू कर दिया और इन इलाकों में हिंसा के मामले घटे हैं और इस इनटेगरेटेड एक्सन प्लान के लागू किये जाने से घटी हुयी हिंसा के साथ ग्रोथ ट्राजेक्त्री चार्ट आउट करने में बड़ी उपलब्धि हासिल हुयी है।“

अभी हाल हाल में 13 मार्च,2013 को केन्द्रीय गृह सचिव आर.के. सिंह ने पार्लियामेन्ट्री स्टेण्डिंग कमिटी को बताया था कि छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में स्थिति बिलकुल बदल गयी है और अब स्थिति यह है कि अब हम (सरकार) उनको खदेड़ रहे हैं और माओवादी भागे फिर रहे हैं। ओडिशा में भी यही स्थिति है। इतना ही नहीं गड़चिरोली में भी अब यू-टर्न की स्थिति है। हम खदेड़े चल रहे हैं और माओवादी भागे फिर रहे हैं।

अब जरा छत्तीसगढ़ की सरकार की बातें करें। वहाँ के गृह राज्य मन्त्री ननकी राम कंवर ने विगत 15 अप्रैल 2013 को आन्तरिक सुरक्षा पर हुयी मुख्यमन्त्रियों की

बैठक में डॉक्टर रमण सिंह की ओर से शिरकत करते हुये अपनी पीठ थपथपाते हुये कहा था “छत्तीसगढ़ सरकार ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में कंक्रीट मेजर्स लिये हैं और हमने पाया है कि हमारे कल्याणकारी योजनाओं और अन्य पहलों के परिणामस्वरूप नक्सल मिनेस को कन्टेन (चेक) कर लिया गया है।” अब पता नहीं दर्भा घाटी के इस माओवादी एक्शन को भाजपा सरकार अपने किस कन्टेनमेन्ट के दायरे में रखती है।

एक ओर यूपीए सरकार के नौ साल के एचीवमेन्ट के दावे, दूसरी ओर आर. के. सिंह और ननकी राम कंवर के बयानात और तीसरी ओर 6 सितम्बर 2012 को डी.जी. और आई.जी. पुलिस की बैठक में केन्द्रीय गृह मन्त्री सुशील कुमार शिंदे का बयान “नक्सलवाद आज भी हमारे लिये एक गम्भीर चुनौती है। सूचनाएँ हैं कि उनके आर्म्ड ट्रेंड काडरों की संख्या में इजाफा हो रहा है, उनकी मिलिट्री क्षमता बढ़ रही है, नए बटालियन बन रहे हैं और उन्होंने अपने शस्त्रागार की क्षमता इनडीजीनस तरीके से काफी बढ़ा ली है” को एक साथ रखकर देखने से स्थिति कुछ साफ़ होगी। वह यह है कि माओवाद को रोकने में कोई भी सरकार - चाहे वो काँग्रेस की केन्द्र या राज्य सरकारें हों या भाजपा की राज्य सरकारें सफल नहीं हो सकती हैं, सबों की स्थिति एक ही जैसी है। “को बड छोट कहत अपराधू”। कोई इस सम्बन्ध में वन-अपमेनशीप का दावा नहीं कर सकता है।

अब जरा सरजमीं पर आकर देखा जाये जहाँ एक ओर ये राजनीतिक पार्टियाँ सरकारों में आने के बाद किस प्रकार माओवादियों के सफाए का दावा और कृत्य भी करती हैं वहीँ जब ये पार्टियाँ चुनावों में जाती हैं तो किस प्रकार उनसे उनके प्रभाव क्षेत्र के इलाकों में उनसे तालमेल भी करती हैं। 2011 में पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में तृणमूल काँग्रेस, 2008 के छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनाव में भाजपा, 2009 के झारखण्ड विधान सभा चुनाव में झामुमो, 2004 के आंध्र प्रदेश विधान सभा चुनाव में काँग्रेस ने जिस तरह माओवादियों से सौदेबाजी की यह किसी से छुपी हुयी बात नहीं रह गयी है। इससे और किसी बात का पता लगे या नहीं लगे, माओवादियों की ताकत और उनके जनाधार को सभी पार्टियाँ स्वीकार करती हैं इस तथ्य पता तो लग ही जाता है।

ऊपर के तथ्य स्पष्ट बताते हैं कि “मर्ज बढ़ता गया ज्यों- ज्यों दवा की”। और माओवाद है, कि मानता नहीं, बढ़ता ही चला जाता है। मगर, आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है ? किसी भी मर्ज़ का इलाज, उसके सही डायग्नोसिस पर ही निर्भर करता है। मगर यहाँ है कि भारतीय राष्ट्र-राज्य इस डायग्नोसिस के मामले में ही मूलभूत गलती कर जाता है क्योंकि वो इस बीमारी के डायग्नोसिस के वक्त स्वयं ही सेलेक्टिव अम्नेजिया का शिकार हो जाता है। वो उन तथ्यों और घटनाओं को मद्दे-नजर नहीं रख पाता जो इस बीमारी की जड़ में हैं और जहाँ से इस बीमारी के कीटाणुओं को पोषक तत्व मिलते हैं।

माओवाद हो या कोई अन्य किस्म का उग्रवाद उसके पनपने के भौतिक आधार समाज संरचना के अन्दर ही होते हैं और जब राष्ट्र-राज्य उन कारणों को नजर-अंदाज़ कर बीमारी को सिर्फ उपरी लक्षणों के आधार पर डायग्नोज कर उसका इलाज करना चाहेगा तो वो बीमारी बढ़ती चली जायेगी और भले ही कभी ऐसा लगे कि बीमारी समाप्त हो गयी है, उसके कीटाणु समाज के अन्दर पनपते ही रहेंगे जो समय पाकर उभर आयेंगे। माओवाद की बीमारी भी कुछ ऐसी ही है। इसका इलाज भी महज़ प्रशासनिक तरीके से नहीं किया जा सकता है। इस इलाज में भारतीय राष्ट्र राज्य के सभी अंगों - सिर्फ विधायिका तथा कार्यपालिका ही नहीं, खुद न्यायपालिका को भी अनिवार्यतः मिलिट्री प्रेसिजन के स्तर का समन्वय दिखाना पड़ेगा। न सिर्फ विधायिका और कार्यपालिका वरन न्यायपालिका को भी, बल्कि उसको कुछ अतिरिक्त ही, सीजर्स वाइफ की तरह दिखना पड़ेगा क्योंकि सभी मिलकर ही स्टेट-पॉवर का निर्माण करते हैं। मगर राज्य-व्यवस्था के ये सभी अंग आज की तारीख में सेलेक्टिव अम्नेसिया के शिकार दिख रहे हैं। न्यायपालिका कभी-कभी तो उचित निर्णय लेती दिखती भी है मगर जनता की ओर से जब पूरी तस्वीर देखने की कोशिश की जाती है तो उस वक्त उसकी भी तस्वीर खण्डित और गरीब-विरोधी ही नजर आती है। न्यायपालिका को भी कम-अज-कम देश के गरीबों, कामगारों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों आदि कमजोर वर्गो के मामलों में तो अनिवार्यतः अतिरिक्त सम्वेदना दिखलानी ही पड़ेगी। ऐसा इसलिये क्योंकि कोई भी नागरिक – खासकर गरीब और कमजोर - न्यायपालिका को अपने अन्तिम सहारे के रूप में देखना चाहता है। मगर जब उसे वहाँ भी सहारा नहीं नजर आता तभी और सिर्फ तभी, वो न्याय के लिये नन-स्टेट एक्टर की ओर झाँकने लगता है जहाँ से वह माओवाद जैसे और/या अन्य किस्म के सहारे की तलाश में निकल पड़ता है। ऐसे ही हालातों में इन नन-स्टेट एक्टरों को खाद, पानी मिलती है, उन्हें जनाधार प्राप्त होता है, जिसका इलाज सिर्फ मिलिट्री और पुलिस के जरिये नहीं किया जा सकता है।

आज कौन नहीं जानता है कि भारत के संविधान में जिस “समाजवाद” का जिक्र है भारत की धरती पर वो समाजवाद माइक्रोस्कोप लेकर खोजने से भी नहीं मिलेगा। क्योंकि जहाँ एक ओर “एंटिला” का अस्तित्व है वहीँ दूसरी ओर बकौल अर्जुन सेनगुप्ता रिपोर्ट, देश के बहुलांश को दैनिक 20 रूपये से कम कमाई पर गुजारा करना पड़ता है। जहाँ की कम्पनियाँ अपने मजदूरों को वैधानिक मजदूरी भी नहीं देती वहीँ मजदूरों को सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचने के बाद भी न्याय नहीं, न्यायादेश पर, संतोष करना पड़ता है और फिर दशकों का समय लग जाता है तब भी, उन्हें वाजिब वैधानिक मजदूरी नहीं मिल पाती। इस अधिकारी से उस अधिकारी तक, इस कोर्ट से उस कोर्ट तक, तारीख पर तारीख और कोर्ट दर कोर्ट न्याय के लिये दशकों भटकते मजदूर, प्रक्रियागत

न्याय-व्यवस्था के शिकार, जिस बीच उनकी बेटियों की शादियाँ रुक जाती हैं, बेटों की पढ़ाई समाप्त हो चुकी होती है, कई मजदूर और उनके परिजन इलाज के अभाव में दुनिया छोड़ चुके होते हैं और इधर मालिकान अपने बैटरी ऑफ़ लॉयर्स की ताक़त से जुडिसियल प्रोसेस का मिसयूज/ अब्यूज करते हुये न्याय को बर्षों खींच मजदूरों की दुर्दशा का मज़ाक उड़ाते हुये मज़ा लेते रहते हैं और इन घटनाओं को मिसाल के तौर पर पेश कर मजदूरों को कम मजदूरी पर बंधुआ मजदूरों जैसी स्थिति में काम करने के लिये विवश कर रहे होते हैं। ऐसी स्थितियों में माओवादियों की बढ़त या मानेसर (मारुति) जैसी घटनाओं को कैसे रोका जा सकता है ? यह एक यक्ष प्रश्न भारतीय राष्ट्र-राज्य के समक्ष दरपेश है जिसका जवाब खोजे बिना माओवाद और इस जैसी अन्य परिघटनाओं की बढ़त नहीं रोकी जा सकती। भारतीय गणराज्य को गण की चिन्ता करनी ही

होगी तभी और सिर्फ तभी माओवाद जैसी परिघटनाओं को रोका जा सकता है। वर्ना यह असम्भव है और यहाँ है कि इस बीमारी का इलाज़ पुलिस और सैनिक कार्रवाइयों में खोजा जा रहा है जो बिलकुल गलत दिशा में ले जाती है। हमें शब्दों में नहीं, नारों में नहीं, कर्मो में, सरजमीं पर, इन्क्लूसिव ग्रोथ की बात करनी ही होगी। गरीबी के महासमुद्र में कोई अमीरी के टापू में एंटिला बनाकर चैन की नींद नहीं सो सकता है। क्या भारतीय राष्ट्र-राज्य में आज ये बातें कोई सुन भी रहा है ?

(लेखक भारतीय प्रेस परिषद् के सदस्य हैं)