गनीमत है कि कैंसर से जूझते वीरेनदा अब भी कविता लिख रहे हैं
गनीमत है कि कैंसर से जूझते वीरेनदा अब भी कविता लिख रहे हैं
घर के अंदरमहल में भी अब चहारदीवारी है और संवाद निषेध है।
फिर भी गनीमत है कि कैंसर से जूझते वीरेनदा अब भी कविता लिख रहे हैं।
पलाश विश्वास
कल शाम अचानक दिल्ली से अपने फिल्मकार राजीव कुमार का फोन आया। फोन पकड़ते ही बोले ही बोला,लो वीरेन दा से बात करो। वीरेनदा ने तुम पर कविता लिखी है। बात करना चाहते हैं।
वीरेनदा को बात करने में बेहद तकलीफ होती है। इधर वे फेसबुक पर भी सक्रिय दीखते हैं। मुझे मालूम है कि मैं जो कुछ लिखता हूं, उस पर मेरे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी की तरह वीरेनदा की भी पैनी निगाह होती है। लिखते वक्त जैसे मेरे पांव करीब चार दशक से पीछे छूटे गांव बसंतीपुर में अपनी खेतों की कीचड़ में धंसे होते हैं तो लिखते हुए मैं दिवंगत गिरदा, गुरुजी और वीरेनदा का हाथ अपनी पीठ पर महसूस करता हूं। फिर भी मैं उन्हें फोन नहीं करता।
वीरेनदा ने फोन पकड़ा तो बोलते ही रहे। बातें निकली तो निकलती ही रहीं।
बोले कविता लिखी है और तुझे सुनाउंगा। अब कहीं और रखा है।
मैंने कहा कि जरुरत नहीं है क्योंकि मैं जानता हूं कि आप क्या लिख सकते हैं।
वे बोले नैनीताल की खूब नराई लग रही है, वहां जाने का खूब मन हो रहा है।
अभी कुछ दिन पहले आनंद स्वरूप वर्मा से जब बातें हुई तो उन्होंने भी कहा था कि बहुत दिनों से नैनीताल नहीं गया।
हम लोग 14 सितंबर को नैनीताल रवाना हो रहे हैं और लौटते हुए दिल्ली में उनसे मिलकर आयेंगे, मैंने उनसे कहा तो वीरेनदा बच्चों की तरह ही खुशी से किलक उठे।
कवियों में अजब जीवट होता है।
नवारुण दा ने भी केंसर से बेहद बहादुरी से पंजा लड़ाया और वीरेन दा ने अभी हार नहीं मानी है।
मेरे पिता की मृत्यु रीढ़ में कैंसर से हुई लेकिन वे भी जब तक गिरे नहीं, दौड़ते रहे।
कैंसर की आहट मैं भी साफ-साफ सुन पाता हूं और मुझे मालूम नहीं कि इनमें से किसी की तरह या कमसकम अनुराधा की तरह लड़ पाउंगा या नहीं।
आखिरकार अरसे बाद वीरेनदा से ढेरों बातें हुईं। यह बहुत बड़ी राहत की बात है। वे सकुशल हैं और अब भी कविता लिख रहे हैं, यह बहुत बड़ी राहत की बात है।
वीरेनदा से बात करने के बाद अचानक जनसत्ता से दो साल पहले रिटायर हुए कोलकाता के मुख्य संवाददाता कृष्ण कुमार साह से बात करने की कोशिश की तो उनके भतीजे ने फोन उठाया।
बोले, कृष्णाजी तो कोलकाता अस्पताल के आईसीयू में हैं। एकदम पस्त हो गये हैं। हफ्तेभर से किसी हरकत में नहीं हैं। किसी को पहचान नहीं रहे हैं और न खा पी रहे हैं।
हम आसमान से गिरे। एक साथ तेईस साल काम किया है हमने। अचानक रिटायर जीवन में उनके वेकल होने की खबर से डर गये और ज्यादा डरे क्योंकि अस्पताल में उनका सारा परिवार, पूरा कुनबा जमा था।
आज दिन भर की व्यस्तता की वजह से बात नहीं हो पायी लेकिन शाम से कोशिश करता रहा कि उनके घरवालों से बात करूं।
कुछ दर पहले बातें हुई भाभी जी से। बोलीं, ठीक हैं अब।
मैंने कहा कि उसे फोन दीजिये। उसके फोन पकड़ते ही कड़क डांट पिलायी कि क्या नर्क मचाये हो। उसने फटाक से पहचान लिया। यह भी बड़ी राहत की बात है।
दसों दिशाओं में घनघोर अंधेरी रात है और अंधेरी रात के चौराहे पर खड़े हम कातिलों का बेसब्र इंतजार कर रहे हैं।
नवारुण दा जैसे गुरिल्ला युद्ध के कवि हमारे बीच अब नहीं है, न कहीं कबीरा खड़ा है न रैदास, न निराला हैं न मुक्तिबोध या सुकांत, न हमारे पास कोई गिरदा है अब।
फिर भी गनीमत है कि कैंसर से जूझते वीरेन दा अब भी कविता लिख रहे हैं।


