ग़ज़ल के सरोकार वही हैं जो साहित्य की अन्य विधाओं के
ग़ज़ल के सरोकार वही हैं जो साहित्य की अन्य विधाओं के
हिंदी ग़ज़ल और समकालीन सरोकारों पर आयोजन : Events on Hindi ghazals and contemporary concerns
‘आवाज़ का चेहरा’ का विमोचन’
मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ, इकाई बीना, जिला सागर के तत्वावधान में 18 अगस्त 2013 को ‘हिंदी ग़ज़ल और समकालीन सरोकार’ विषय पर एक दिवसीय आयोजन हुआ। प्रथम सत्र परिसंवाद का सत्र था जिसमें मुख्य वक्ता थे दिल्ली से आये उर्दू के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. जानकी प्रसाद शर्मा।
आधार वक्तव्य देते हुये डॉॅ. जानकी प्रसाद शर्मा ने कहा कि ग़ज़ल न केवल भारत, बल्कि सम्पूर्ण एशिया का एक पुराना एवं लोकप्रिय छंद है जो फारसी, अरबी, उर्दू, हिन्दी तथा अन्य विविध भाषाओं एवं बोलियों में लोकप्रिय है। ग़ज़ल अपने समय की हर तब्दीली को अपना आईना बनाती रही है। प्यार, मोहब्बत, जाम, मयखाना के साथ-साथ दर्शन की गम्भीर गुत्थियों को उसने गालिब-इकबाल व फिराक के साथ रहकर व्यक्त किया है। वहीं दूसरी ओर शोषण के ज़रिये इंसानियत को अपनी मुट्ठी में कैद करने वाले पूँजीवाद व साम्राज्यवाद से भी ग़ज़ल कहने वालों ने डटकर लोहा लिया है।
शताब्दी वर्ष पर अली सरदार जाफ़री की ग़ज़ल के शेर को उद्धृत करते हुये उन्होंने कहा कि -‘काम अब कोई भी न आएगा इक दिल के सिवा, रास्ते बन्द हैं सब, कूचा-ए-कातिल के सिवा।’ ऐसी ग़ज़लें हमें सावधान कर रही हैं, जता रही हैं उन खतरों और चुनौतियों के प्रति जो अमरीका व अन्य साम्राज्यवादी देशों की नीतियों के रूप में हमारे सामने हैं।
गज़ल के इतिहास (History of Ghazal) पर प्रकाश डालते हुये उन्होंने कहा कि हिंदी में गज़ल की परम्परा नयी है लेकिन इसने अपने संघर्ष से श्रेष्ठ मुकाम बनाया है। उन्होंने कबीर, निराला, त्रिलोचन, दुष्यंतकुमार व अन्य कवियों व ग़ज़लकारों की लेखनी की विषेषता व ग़ज़ल की कहन, शिल्प व छंद की बारीकियों को भी बताया। उन्होंने निराला की लिखी कुछ ग़ज़लों को भी उद्धृत किया जो पाठकों के बीच अल्पज्ञात हैं।
इसी सत्र में विशिष्ट वक्ता की हैसियत से बोलते हुये ज़नाब ज़हीर कुरैशी (भोपाल) ने कहा कि ग़ज़ल के सरोकार वही हैं जो साहित्य की अन्य विधाओ के सरोकार हैं। इसलिए ग़ज़ल को हिंदी और उर्दू के पलड़ों में रखकर तौलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और उन प्रवृत्तियों से सावधान रहना चाहिए जो जुबान की आड़ में असल चीज़ यानी उसका जज़्बा छिपा देना चाहते हैं।
प्रलेस के प्रदेशाध्यक्ष और वसुधा के संपादक राजेन्द्र शर्मा ने अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुये कहा कि हमारी विरासत बहुत बड़ी और बहुत विविध है। उसमें ग़ालिब हैं तो मजाज़ और फै़ज़ भी। आने वाला वक़्त हमारी मौजूदा रचनात्मकता और अतीत की विरासत से ही अपनी नयी शक्ल पायेगा। भले ही ग़ज़ल की पैदाइश हिंदी में न रही हो लेकिन उसके फॉर्म की ताक़त को देखते हुये हिंदी के रचनाकारों ने भी उसे अपनाया। इससे हिंदी और ग़ज़ल, दोनों ही समृद्ध हुये। प्रगतिशील लेखक संघ निरंतर सक्रिय रहकर साहित्यकारों, पाठकों व आम जनता से एक वैचारिक मंच साझा कर जनजागरण व संघर्ष की भूमिका तैयार करता है। उन्होंने ग़ज़ल के इस वृहत आयोजन को इसी कड़ी के रूप में एक सार्थक प्रयास बताया ।
इस सत्र का आरंभ प्रसिद्ध लोक गायक शिवरतन यादव (सागर) द्वारा महेश कटारे ‘सुगम’ की ग़ज़लों की सुरबद्ध प्रस्तुति से हुआ।
स्वागत भाषण में सुपरिचित कवि, समीक्षक महेन्द्रसिंह (भोपाल) ने पूँजीवाद व साम्राज्यवाद के खतरे व भारत में वोटों की राजनीति के चलते शिक्षा से हो रही खिलवाड़ (frolic with education in India due to vote politics) व उससे आम जन को दूर करने के कुचक्रों को सामने रखकर लेखन के माध्यम से उनका पर्दाफाश करने को कहा।
इस सत्र का संचालन प्रांतीय महासचिव विनीत तिवारी ने किया। सत्रारंभ करते हुये उन्होंने बीना के प्रेरक साहित्यिक व्यक्तित्व और प्रलेस के पूर्व अध्यक्ष दिवंगत प्रेमचंद शाह, परसाई जयंती के प्रसंग में हरिशंकर परसाई और प्रतिरोध की कविता व प्रतिरोध के जीवन के लिये दुनिया भर में जाने गये नाइजीरिया के विश्व प्रसिद्ध कवि चीनुआ अचेबे, जो हाल में दिवंगत हुये, को श्रृद्धांजलि देते हुये बताया कि प्रगतिशीलता एक विश्वव्यापी विचार है (progressiveness is a worldwide idea) जो विभिन्न भाषाओं के लेखक विभिन्न फाॅर्मों के भीतर अभिव्यक्त करते हैं। अपनी रचनाओं के माध्यम से जनता को शोषण के विरूद्ध लड़ने को प्रेरित करते और इसमें अपनी अहं भूमिका निभाते हैं।
Art ultimately teaches us to be better human beings
श्री तिवारी ने कहा कि न्याज़ हैदर या कैफी आजमी या अली सरदार जाफरी जो काम हिंदुस्तान में कर रहे थे वही काम पाकिस्तान में फ़ैज़ या हबीब जालिब जैसे लोग कर रहे थे। कला अंततः हमें बेहतर मनुष्य होना सिखाती है। इस सत्र को डाॅ. सैफ़ी सिरोंजी (सिरोंज), श्री टीकराम त्रिपाठी (सागर), डाॅ. अशोक मिजाज़ आदि ने भी संबोधित किया।
द्वितीय सत्र में महेश कटारे ‘सुगम’ के गज़ल संग्रह- ‘आवाज़ का चेहरा’ का विमोचन हुआ।
जानकीप्रसाद शर्मा ने महेश कटारे ‘सुगम’ के ग़ज़ल संग्रह पर अपनी टिप्पणी देते हुये कहा कि इस संग्रह की ग़ज़लें आम परम्परा से हटकर आम आदमी के दुःख दर्द व पीड़ा को उजागर करनेवाली हैं।
सुपरिचित कवि, समीक्षक महेन्द्रसिंह अपनी समीक्षात्मक टिप्पणी देते हुये कहा कि महेश कटारे ‘सुगम’ सामाजिक सरोकारों के ग़ज़लकार हैं। उन्होंने आम आदमी व मध्यवर्गीय जीवन जी रहे लोगों के संत्रास, घुटन, पीड़ा व उनकी जद्दोजहद को अपनी ग़ज़लों का मुख्य विषय बनाया है। कटारे ने हिन्दी, उर्दू परम्परा के ग़ज़ल के शिल्प को परखा और निभाया है और परिवर्तनकामी विचारों को ग़ज़लों के माध्यम से व्यक्त किया है।
डाॅ. संध्या टिकेकर (बीना) ने संग्रह पर अपनी पाठकीय टिप्पणी देते हुये कहा कि महेश कटारे ‘सुगम’ व्यवस्था के विरूद्ध व आम आदमी के पक्ष में लिखते हैं। उनके ग़ज़ल संग्रह में हिन्दी, उर्दू मिश्रित शैली तथा नए प्रतीक व बिम्बों का प्रयोग किया गया है जो उनके लेखन को अन्य ग़ज़लकारों से भिन्नता व विषिष्टता प्रदान करता है।
डॉ. सैफी सिरौंजी (सिरोंज), प्रलेस के सागर संभागाध्यक्ष टीकाराम त्रिपाठी ने भी गजल संग्रह पर अपनी सारगर्भित संक्षिप्त टिप्पणियाँ दीं।
अगला सत्र ग़ज़ल गोष्ठी पर केन्द्रित था जिसका संचालन भोपाल से आए कवि, व्यंग्यकार अरविन्द मिश्र ने किया और अध्यक्षता ब्रज श्रीवास्तव (विदिशा) व ज़नाब अज़मत दानिष (कुरवाई) ने की।
इसमें ग़़ज़लकारों ने अपनी हिन्दी ग़ज़लों का पाठ किया जिनमें ज़नाब ज़हीर कुरैशी (भोपाल), महेन्द्रसिंह, (भोपाल), डॉ.सैफी सिरौंजी (सिरोंज) साकेत सुमन चतुर्वेदी (झांसी), अशोक मिज़ाज़ (सागर), ब्रज श्रीवास्तव, प्रदीप शर्मा (भोपाल), संतोष शर्मा सागर (विदिशा), प्रेमप्रकाश चौबे (कुरवाई), दीपा भट्ट (सागर) सहित अनेक स्थानीय व बाहर से आए रचनाकार शरीक हुये।
कार्यक्रम के आयोजन में बीना इकाई के संचिव प्रवीण जैन, चिंतामन पटेल, पप्पू गोस्वामी, कुंदनलाल कटारे, चंद्रप्रकाश तिवारी, महेन्द्र तिवारी, दशरथ, नायक, श्रेयांश शाह सहित अनेक साहित्यप्रेमियों का सहयोग उल्लेखनीय रहा।
बीना भारत के नक्शे पर उभरता एक नया औद्योगिक नगर है (Bina is a new industrial city emerging on the map of India.) जहाँ यह आयोजन इस मायने में महत्त्वपूर्ण रहा कि इसमें बीना के आसपास के ग्वालियर, गुना, झांसी, विदिशा, सागर जैसे शहरों व कुरवाई, सिरोंज, गंज बासोदा, खुरई, खिमलासा, मालथोन जैसे कस्बों के साहित्यकारों, प्रबुद्ध पाठकों ने बड़ी संख्या में पूरे दिन शिरकत की। इस आयोजन ने क्षेत्र में जहाँ एक वैचारिक हलचल पैदा की वहीं आमजन व लिखने-पढ़ने वाले साहित्यानुरागी व्यक्तियों को एक दूसरे से रूबरू होने का अवसर भी प्रदान किया तथा ग़ज़ल के बारे में वर्तमान स्थिति तक लोगों को विस्तृत जानकारी मिली ।
प्रस्तुतकर्ता- अरविन्द मिश्र व महेन्द्र सिंह


