गाँधी, संघ और भारतीय समाज

'गाँधी हत्या के लिए संघ ज़िम्मेदार है या नहीं ', इस विवाद में उलझे बगैर गाँधी और संघ के बीच के पेचीदा रिश्ते के ताने बाने सुलझाने की कोशिश

रविन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ

मोहनदास करमचंद गाँधी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन का रिश्ता यह एक अजीबोगरीब पहेली है, जिस के बारे में न जाने कितने सारे भ्रम पाले या उगाये जाते रहे हैं. गाँधी हत्या के 68 सालों बाद भी यह गुत्थी कायम है. क्षणिक विवादों में उलझे बिना इस रिश्ते को समझने की इमानदार कोशिश करना निहायत ज़रूरी है.

शुरू करते हैं एकदम ताज़ा घटना क्रम से.

गांधीजी की हत्या में संघ की कोई भूमिका नहीं थी, इसलिए संघ पर उस तरह का आरोप लगाने पर सम्बंधित व्यक्ति/संगठनों पर प्रतिबन्ध लगाया जाएं, यह मांग लेकर संघ ने न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया.

भिवंडी सेशन्स कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक उस की प्रतिध्वनि गूंज उठी.

इस सन्दर्भ में कांग्रेस, राहुल गाँधी, न्यायालय और संघ इन की भूमिकाओं को लेकर बहुत कुछ लिखा जा चुका है.

संघ ने अपने समर्थन में गांधीजी के एक प्रपौत्र श्रीकृष्ण कुलकर्णी को अखाड़े में उतरा, तो उस के विरोधियों की हिमायत गांधीजी के अन्य प्रपौत्र, तुषार गाँधी ने की.

उस के बाद संघ के प्रमुख विचारक मा. गो. वैद्य ने कहा कि गांधीजी के मृत्यु के बाद संघ ने 13 दिनों तक शोक मनाया था.

उस के उत्तर में ‘”क्या पेड़े बाँट कर शोक मनाया जाता है?,” ऐसा तीखा सवाल भी उछाला गया. लेकिन इस गर्मागर्मी में एक महत्त्वपूर्ण सवाल अछूता ही रह गया - ‘हमें गाँधी हत्या से कोई सरोकार नहीं, हम गांधीजी को प्रातःस्मरणीय मानते हैं’, ऐसा बार बार कहने की ज़रुरत संघ को क्यों महसूस होती है? गाँधी जी की हत्या यह एक शर्मनाक कृत्य है, ऐसा संघ सचमुच मानता है, यह उस की रणनीति का हिस्सा है, या उस की राजनैतिक अपरिहार्यता है?

गाँधी हत्या के लिए संघ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ज़िम्मेदार था या नहीं, इस बहस में उतरे बगैर भी हम ऊपर दिए हुए सवाल का ज़वाब ढूंढ सकते हैं.

गांधीजी की हत्या के बाद संघ के लोगों ने खुशियाँ मनाई थी, इस बात की पुष्टि खुद सरदार पटेल और विनोबा भावे ने की है.

गांधीजी का व्यक्तित्त्व और उन के विचार इन के बारे में संघ को कितना प्रेम है, यह बात किसी भी संघ स्वयंसेवक से बात कर के तुरंत समझ में आ सकती है.

हिंदुत्त्ववादियों ने गांधीजी से जो सख्त नफ़रत की, उसी की अंतिम कड़ी गाँधी हत्या थी, यह बात अब स्पष्ट हो चुकी है.

संघ इस प्रक्रिया की अंतिम कड़ी से अपने आप को अलग साबित करना चाहता है. लेकिन, नथूराम के फ़लसफ़े से उस का अपना हिंदुत्त्ववाद किस तरह भिन्न है, यह बात संघ ने कभी साफ़ नहीं की.

अब सवाल यह उठता है कि संघ के सहप्रवासी संगठन ने गांधीजी की हत्या क्यों की?

हिन्दुत्ववादियों द्वारा उछाले गए 55 करोड़ का सवाल, देश के विभाजन में गांधीजी की भूमिका वगैरह दावे नितांत खोखले हैं, यह कई बार साबित हो चुका है. फ़िर क्यों की गयी गांधीजी की हत्या?

गाँधी को क्यों मारा गया?

अपने समूचे इतिहास में हिन्दुत्त्व के पक्षधरों ने सिर्फ एक ही इंसान पर गोली चलायी. अंग्रेज, देश के अन्य नेता, यहाँ तक कि पाकिस्तान के निर्माता बैरिस्टर जिन्नाह को छोड़ सिर्फ गाँधीजी को ही उन्हों ने अपनी गोली का निशाना क्यों बनाया ?

इस सवाल के ज़वाब में विख्यात मनोवैज्ञानिक आशिष नंदी कहते हैं-

“लव इज ब्लाइंड, हेट्रेड मेक्स योर विज़न शार्प.”

गाँधी जी सचमुच कितने शक्तिशाली थे, यह बात गाँधीभक्त कभी समझ नहीं सके, प्रगतिशील तबकों ने इस बात को समझने की कोशिश तक नहीं की, लेकिन गांधीजी के दुश्मनों ने उन की ताकत को अच्छी तरह से आँका था. इसीलिए उन्हों ने गांधीजी को ख़त्म करने का निर्णय लिया.

गाँधी नामक बूढ़े इंसान में आखिर क्या ताकत थी, जिस से वे भयभीत थे?

भारत में गत दो शतकों में जितनी भी विचारधाराएँ निर्मित हुईं, उन में भारतीय संस्कृति और परंपरा का अभिमान रखने वाली सिर्फ दो ही धाराएं हैं- हिन्दुत्त्व और गाँधी विचार.

सभी प्रगतिशील धाराओं ने भारतीय परम्परा को – उस की व्यामिश्रता को समझे बगैर - सतत और जोर शोर से नकारा (राम-कृष्ण-शिव के मर्म को समझने की लोहिया की बात उन के अपने शिष्यों ने ही अनसुनी कर दी).

दूसरी ओर हिंदुत्व ने इस परंपरा का, उस में निहित विषमता, शोषण और अन्धविश्वास के साथ खुला समर्थन किया. (याद कीजिये कितने सारे शंकराचार्यों द्वारा किया गया अस्पृश्यता का खुला समर्थन, हिन्दू कोड बिल को किया गया विरोध और सती के सवाल पर मचा बवंडर !)

इसलिए, सभी प्रगतिशील समूह ये स्वधर्म-परंपरा-संस्कृति के घोर विरोधक तथा पश्चिमी सभ्यता के बोझ तले दबे हुए हैं, ऐसा प्रचार कर उन्हें जन सामान्य से तोड़ना हिंदुत्व के पक्षधरों के लिए आसान रहा. लेकिन गाँधी इन दोनों धाराओं से अलग निकले. उन्हों ने परंपरा को ज़रूर स्वीकारा, लेकिन मूल्यविवेक के आधार पर. बिना किसी बगावत का परचम फ़हराए उन्हों ने परंपरा और सभ्यता के त्याज्य हिस्से को नकार कर, सिर्फ उस के उचित तथा चिरन्तन भाग को ग्राह्य माना.

गांधी ने धर्म और ईश्वर की संकल्पनाओं को स्वीकारा, लेकिन वह भी अजूबे ढंग से. उन के लिए धर्म का अर्थ था नैतिक आचरण औए ईश्वर यह सद्गुण और उन्नत मूल्यों का परमाविष्कार था.

गांधी के राम राज्य से मुस्लिम आतंकित नहीं हुए, क्योंकि उन का राम रहीम से अभिन्न था. उन्हों ने अन्धविश्वास शब्द का प्रयोग शायद ही किया हो. लेकिन कलकत्ता जाने के बाद (पशुबलि दिए जानेवाले) “काली मंदिर में मैं नहीं जाऊँगा”, यह कहने की हिम्मत उन में थी.

गांधी ने किसी संत-महंत-महाराज को पनाह नहीं दी और न ही किसी कर्म काण्ड को अपने निजी या सार्वजनिक जीवन में घुसने का मौका दिया.

कई बार तो उन्हों ने परंपरा से संज्ञाएँ चुन कर उन में नया आशय भर दिया. इतना करने बाद भी वे अपने आप को सनातनी हिन्दू कहलाते रहे. परिणामतः, जब तक वे जीवित थे, उन की ‘मोहन माया’ लोगों पर छाई रही और द्वेषाधारित हिंदुत्व की संकरी गली के बजाय गांधीजी ने दर्शायी हुई व्यापक धर्म की प्रशस्त राह पर चलना लोगों ने श्रेयस्कर माना. और तो और, संगठन कुशलता और प्रबंधन कौशल में तत्कालीन कोई भी नेता उन के आस पास भी नहीं आ सकता था.
गांधीजी ने समूचे भारतीयों का संगठन करने की कोशिश की, उसी प्रकार संघ सारे हिन्दुओं का संगठन खड़ा करना चाहता था.
इस प्रक्रिया के तहत उस ने कभी भी धर्म में निहित गलत तत्त्वों से संघर्ष नहीं किया. सवाल चाहे जाति व्यवस्था का हो, नारी स्वतंत्रता का या अन्धविश्वास का, संघ ने प्रस्थापित व्यवस्था से हमेशा समझौता किया. लेकिन इस के बावजूद समाज उस बूढ़े के पीछे चलता रहा, जो अस्पृश्यता निवारण जैसे संवेदनशील सवाल पर लोगों के मन को झकझोरता रहा, जो स्वतंत्रता संग्राम के नाम पर लाखों औरतों को परदे से उठा कर सीधा सड़कों पर जुलूसों में ले जाता रहा, जो पता नहीं कितने सारे बेचैन करनेवाले सवाल उठाते रहा.

संघ को इस बात का गहरा दुःख हुआ होगा, इस बात को समझा जा सकता है. बल्कि, गाँधीजी के तत्कालीन सभी राजनैतिक प्रतिद्वंदियों का वही हाल हुआ होगा, इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता.

पितृ हत्या को क्षमा नहीं

गाँधीजी के अन्य विरोधकों ने, जैसी कि अम्बेडकरवादी, कम्युनिस्ट, समाजवादी, उन का कई बार खुल कर और डट कर विरोध किया. लेकिन द्वेष में अंधे होकर उन की हत्या करने का काम सिर्फ हिन्दुत्त्ववादियों ने किया.
गाँधी को ख़त्म कर हम उन के विचारों को फ़ैलाने से रोक सकते हैं ऐसा मानना उनकी बड़ी भूल साबित हुई.
विभाजन के ज़ख्म जब ताज़े थे, तब गांधीजी की शांति और प्रेम की हिदायत कई लोगों को पसंद नहीं आई थी. लेकिन फिर भी आखिर कर गांधी इस मुल्क का बाप था और भारतीय परंपरा में पितृहत्या को बिलकुल स्थान नहीं, और इसलिए क्षमा नहीं है. हिन्दू महासभा संगठन के नथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या की, फिर भी रा. स्व. संघ का उस की विचारधारा से जो करीबी रिश्ता है, उसे मद्देनज़र रखते हुए गांधीजी के खून के चंद धब्बे संघ के गिरेबान पर भी पड़े हैं, ऐसा जनमानस है.

संघ यह भली भांति जानता है कि जब तक ये दाग धुल नहीं जाते, उसे देश के ह्रदय में जगह नहीं मिल सकती. इसीलिए किसी न किसी तरह इस कलंक से मुक्ति पाने के लिए संघ बेताब है.

इस सन्दर्भ में कागज़ी कार्रवाई पर्याप्त नहीं है, इसलिए गांधीजी को हम प्रातःस्मरणीय मानते हैं, उन्हों ने संघ शाखा पर आकर हमारे काम की तारीफ की थी, यह उसे बार बार दोहराना पड़ता है.
यह कैसी मज़बूरी ..
संघ के पुख्ता सहयोग के आधार पर 2014 का आम चुनाव मोदीजी ने जीत लिया और उस के बाद गाँधी-संघ रिश्ते में एक नया अध्याय जुड़ गया.

प्रधान मंत्रीजी विदेश में जाकर जब भी भारतीय परंपरा और हिन्दू धर्म के बारे में बोलते हैं, तब वे अक्सर कर गांधीजी की दुहाई देते हैं. गांधीजी का व्यक्तित्व और विचार इन के बारे में वे बार बार आदर प्रदर्शित करते हैं, जब कि संघ विचार से जुड़े विचारक, जैसे कि सावरकर, गोलवलकर, दीनदयाल जी उपाध्याय इन का ज़िक्र तक वे नहीं करते.

पिछले वर्ष दशहरे के दिन सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए जो भी कहा, उस में से 90% गाँधी विचार से प्रेरित था, हालाँकि सोशल मीडिया पर गांधीजी पर छिड़ी बहस में आज भी हिंदुत्व प्रेमी गाली गलौच पर उतर आते हैं.
इस सब का क्या अर्थ लगाया जाए?
भावना भड़काने वाली राजनीति विपक्ष करें तो वह वाजिब न सही, क्षम्य है. लेकिन जब भारत जैसे विविधता की चरम सीमा छूने वाले देश पर राज करने की बात आती है, तो राज्यकर्ताओं को व्यापक, संवादी भूमिका लेने के सिवा दूसरा चारा नहीं होता.

विदेश में तो आप देश की कौन सी छवि प्रस्तुत करते हैं, यह सब से अहम् बात होती है. हम अब विपक्ष में नहीं, बल्कि सत्ताधारी हैं, यह समझ संघ स्वयंसेवक और पार्टी के नेताओं में अब तक पनपी नहीं, जब कि मोदीजी और सरसंघचालक मँजे हुए खिलाडी हैं, इस बात पे दो राय नहीं हो सकती.

लेकिन गाँधी भरोसेमंद इंसान नहीं है. ‘स्वच्छ भारत मिशन’ या देश परदेश में भाषण करते वक़्त वह संघ-भाजप के नेताओं के काम ज़रूर आता है, लेकिन वक़्त-बेवक्त उन के लिए आफ़त खड़ी कर देता है, वह भी इस तरह से, जिस की किस को आशंका तक न हो. भारत के जन सामान्य के लिए (जिन्हें वह बूढा दरिद्रनारायण कहता था) जिस किसी को बुनियादी काम करना हो, वह गाँधी विचार और गाँधी-विचारकों द्वारा किये गए रचनात्मक कार्य को टाल कर आगे बढ़ ही नहीं सकता, फिर वह काम भले खेती में हो, स्वास्थ्य में हो या प्रादेशिक भाषाओँ के क्षेत्र में.

गत 25-30 वर्षों में संघ-परिवार की कई सारी संस्थाएं रचनात्मक कार्य में जुड़ गयी हैं.

इस काम को आगे बढ़ने के लिए अंग्रेजों की जन-विरोधी नीतियों को आगे बढ़ाने वाली कांग्रेस का विरोध करना उन्हों ने ज़रूरी समझा. उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो भारतीय किसान संघ के काम का आधार रासायनिक खेती और जी एम बीज का विरोध और प्राकृतिक खेती की हिमायत रहा है.
शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही हो, यह भारतीय भाषा सुरक्षा मंच की बुनियादी मांग थी.
इन भूमिकाओं को लेकर ये संगठन विकसित हुए.

अब जब उन की अपनी सरकार बनी, आई, तो उन्हें स्वाभाविक ही लगा कि अब जाकर नीतियों में बुनियादी परिवर्तन आएगा. लेकिन केंद्र और राज्य में भाजपा का शासन आने के बावज़ूद पुरानी नीतियां न केवल चलती रही, बल्कि उन्हें और मज़बूत बनाया गया. सख्त अनुशासन में पले ये संगठन कुछ समय तो चुप रहे. लेकिन आखिर वे भी बगावत कर बैठे. ‘वास्तव वादी राजनीति’ करने वाले उन के नेताओं के अनुसार ये बगावती नेता और संगठन आदर्शवाद की मदिरा पिए हुए हैं, इसलिए वे ‘रियल पोलीटिक’ से बेखबर है. उस बोतल पर नाम भले ही दत्तोपंत ठेंगडी या दीनदयाल उपाध्याय का हो, उस के अन्दर का ‘पदार्थ’ नशाबंदी की बात करने वाले उस गाँधी नामक बूढ़े ने बनाया था.

तीस जनवरी 1948 को मोहनदास करमचंद गाँधी नामक व्यक्ति का खून हुआ और उस का देह नष्ट हुआ. लेकिन उसी के साथ वह ‘महात्मा’ बन कर या ‘भूत’ बन कर इस देश के कंधे पर सवार हो गया है. भारतीय समाज, संघ और गाँधी के रिश्ते को समझते वक़्त यह अनूठा अनुबंध भी हमें याद रखना होगा.

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