गुजरात फाइल्स-मुल्क की सामाजिक चेतना पर एक तगड़ा तमाचा
गुजरात फाइल्स-मुल्क की सामाजिक चेतना पर एक तगड़ा तमाचा
गुजरात फाइल्स-राजनैतिक अंडरवर्ल्ड और दुष्साहसी पत्रकारिता
ईश मिश्रा
हमारी पीढ़ी के लोग, खासकर वे जो 1970 के दशक में छात्री आंदोलनों से जुड़े थे, उन्हें आपातकाल की हवा में मन पर फासीवादी आतंक की अनुभूतियों की यादें अब भी कभी-कभी बेचैन करती होंगी। समीक्शार्थ इस पुस्तक में वर्णित मोदियों के मुख्यमंत्रित्व में गुजरात में, यह अनुभूति मोदी या नीतियों के खिलाफ बोलने वालों के मन में उस से कही ज्यादा है। हर क्षेत्र में मोदी का अघोषित आपातकाल इंदिरा गांधी के घोषित आपातकाल से अधिक भयावह दृष्टि उपस्थित करता है। आज्ञाकारिता “प्रतिबंध” नोक्शाही, पुलिस और न्याय पालिका तथा रीडरविहीन, वफादार, अनुयायी संसाधन। लेकिन इंदिरा गांधी दमन के राज के उपक्रमों पर निर्भर थीं मोदी के पास इसके साथ वीएसीपी, बजरंगदल, एबीवीपी जैसे पैरा सैन्यसंगठनों की भी थें/हैं। केंद्रीय में सत्ता में आते ही जनतांत्रिक संस्थाओं तथा अभिव्यक्ति के अधिकारों पर हमले की सिलसिला गुजरात के फासीवादी आतंक को देशव्यापी बनाने का प्रयास है। एक साल पहले महाकाव्य रामायण के नायक राम की आलोचना के लिए मैसूर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गुरु की गिरफ़्तारी ताज़गी कड़ी है।
तहलका में अपने खुलासे के चलते अमित शाह की गिरफ़्तारी से उत्पन्न, साहसी (बल्कि दुष्साहसी) और हम्मती युवा पत्रकार, राणा अयूब ने असंभावित पर निशान लगाया साधने की शान। चुनावी ध्रुवीकरण के मकसद से गोदारा के प्रायोजन से 2002 के नरसंहार तथा फर्जी मुठभेड़ों में सरकार तथा प्रशासनों की संग्लिप्तता की बात सर्वविदित है, लेकिन जैसा कि लेखक ने शुरू में ही कहा है कि इसको साबित के अभाव में इसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता।


