गोडसे भक्तों को गांधी का वास्ता : ये मजाक सिर्फ मोदी ही कर सकते हैं
गोडसे भक्तों को गांधी का वास्ता : ये मजाक सिर्फ मोदी ही कर सकते हैं
पवन वर्मा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारतीय मध्यवर्ग की अजीब दास्तान’ में भारतीय समाज के मनोविज्ञान पर गांधी के प्रभाव का जिक्र करते हुए लिखा है कि अक्सर ऐसा देखा गया है कि सरकारी दफ्तरों में दीवारों पर लगी गांधी जी की तस्वीर से नजर मिलते ही अफसर घूस लेने में असहज महसूस करते हैं। इसे पवन वर्मा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महान नेताओं और उनके मूल्यों का लम्बे समय तक भारतीय जनमानस पर पड़ने वाले नैतिक प्रभाव के बतौर रेखांकित करते हैं।
शाहनवाज आलम
गांधी से जुड़े इस संदर्भ का संज्ञान आज इसलिए लिया जाना जरूरी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस दिन गोरक्षा की आड़ में लोगों की हत्या को गांधी और गांधीवादी विनोबा भावे के देश में अस्वीकार्य बताते हैं ठीक उसी दिन झारखंड में गोरक्षा के नाम पर हत्यारी ‘भीड़’ एक और मुसलमान को पीट-पीट कर मार डालती है।
इसलिए यहां यह सवाल उठना लाजिमी हो जाता है कि वैचारिक तौर पर मोदी और भाजपा की समर्थक भीड़ आखिर मोदी की बात को गम्भीरता से क्यों नहीं लेती?
यह सवाल तब और अहम हो जाता है जब भाजपा खुद मोदी को गुजरात से गांधी और पटेल के बाद निकले तीसरे महान नेता के बतौर पैकेजिंग करने का प्रयास लगातार सरकारी और गैरसरकारी तरीकों से करती रही है।
आखिर इसे कैसे समझा जाए कि मोदी, जो सोशल मीडिया पर अमरीकी राष्ट्रपति के बाद सबसे ज्यादा फॉलो किए जाते हैं, के ‘डाईहार्ड’ फैन भी उनकी बात को न सिर्फ मानने से इनकार करते हैं बल्कि उनकी बातों को मजाक साबित करते हुए ठीक उसी दिन एक और मुसलमान की हत्या कर देते हैं।
यह सवाल जहां गौरक्षा के नाम पर हत्या की घटनाओं के दिन पर दिन बढ़ते जाने की प्रक्रिया को समझने के लिए जरूरी है वहीं यह मोदी-संघ और उसके समर्थकों के बीच के रिश्ते को भी समझने के लिए जरूरी है।
दरअसल, किसी भी प्रभावशाली नेता की व्यक्तिगत जिंदगी और वैचारिक नैतिकता का उसके समर्थकों पर सीधा असर पड़ता है। यह उसकी नैतिकता ही होती है जो सामने वाले के अंदर के विरोधाभासी मूल्यों में से किसे उसके सामने प्रकट करना है, यह तय करवाती है। मसलन, यह जरूरी नहीं कि गांधी की तस्वीर से आंख मिलाकर घूस लेने में असहज महसूस करने वाला गांधीवादी या कांग्रेसी ही हो। वह संघी या साम्यवादी या एक गैरराजनीतिक और विचारधाराविहीन और भ्रष्ट व्यक्ति भी हो सकता है। लेकिन बावजूद इसके वह गांधी जी की व्यक्तिगत जीवन में इमानदारी के आदर्श को प्रशंसनीय मानता है। वह उनके नैतिक दबाव को महसूस करता है। तमाम खर्चीले प्रयासों के बावजूद मोदी यहीं ‘चूक’ जाते हैं। उनके समर्थक जानते हैं कि मोदी मजाक कर रहे हैं, वो सिर्फ आलोचनाओं से बचने के लिए ऐसा कह रहे हैं। वैसे ही जैसे भारत के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने संयुक्त राष्ट्र में इससे इनकार किया कि भारत की मौजूदा सरकार भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है और वो धर्मनिरपेक्षता के प्रति समर्पित है।
पता है मोदी को चेलों को वे गांधी से ज्यादा गोडसे के नजदीक हैं
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इसीलिए जब मोदी कथित गोरक्षकों को चेतावनी देते हैं तब भी वह उसे एक रणनीतिक बयान भर मानकर अपना काम करते रहते हैं। वे जानते हैं कि मोदी दिल से ऐसा कह ही नहीं सकते क्योंकि वे खुद मुसलमानों के खिलाफ हिंसात्मक कार्यवाईयों के मास्टरमाइंड रहे हैं। उन्हें पता होता है कि वे गांधी से ज्यादा गोडसे के नजदीक हैं। इसीलिए चरखा चलाते हुए फोटो खिंचवाने और बार-बार गांधी का नाम लेने के बावजूद मोदी गैर संघी लोगों के लिए गांधी के विपरीत एक खतरनाक प्रहसन साबित होते हैं। जबकि गांधी के विपरीत मोदी के समर्थक उन्हें देख कर और हिंसक हो जाना चाहते हैं, वे और मुसलमानों की हत्याएं कर देना चाहते हैं। उन्हें मालूम है कि जब मोदी ‘गुजरात’ करा कर प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो हम भी उसे दोहरा कर सांसद, विधायक या सभासद बन सकते हैं। मौजूदा केंद्रीय मंत्रीमंडल, संसद, उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल और विधानसभा में ऐसे लोगों की मौजूदगी उसकी इस मान्यता को सिर्फ पुख्ता ही नहीं करते, उसे प्रोत्साहित भी करते हैं।
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दरअसल, मोदी का बयान गांधी के भारत में यकीन रखने वाले भारतीयों को सम्बोधित था कि ऐसी हत्याएं ये लोग बर्दाश्त नहीं करेंगे। ये वास्तव में किसी को किसी और की मां की कसम खिलाने जैसा था। ये उन हत्यारों के लिए उसी तरह सम्बोधित नहीं था बल्कि खुलेआम गांधी को गाली देने वाले इन हत्यारों को उकसाने और मनोबल बढ़ाने वाला जुमला था कि अभी भी कुछ लोग भारत को गांधी का भारत मानते हैं। ऐसे लोगों की धारणाओं को ऐसी हत्याओं से तोड़ना होगा। उन्हें यह समझाना होगा कि अब ये गांधी का भारत नहीं है जहां ऐसी हत्याओं को स्वीकार नहीं किया जाएगा। अब ऐसी हत्याओं को स्वीकार करने वाला गांधी विरोधी भारत बन चुका है या बनने जा रहा है।
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मोदी के भाषण में गांधी के उल्लेख को उसके फेस वैल्यू पर ले लेना अपने को धोखे में रखना है। मोदी जितना ज्यादा गांधी का हवाला देंगे उतना ज्यादा गांधी विरोधी गतिविधियां उनके समर्थक करेंगे। इसके बीच मांग और आपूर्ति जैसा रिश्ता है। हां, समाजशास्त्रियों और राजनीति वैज्ञानिकों के लिए यह गहरे दिलचस्पी का विषय रहता कि मोदी अगर गोलवलकर, हेडगेवार या गोडसे जैसे अपने ‘महापुरूषों’ का हवाला देते हुए हत्यारों को और हत्याएं करने से रोकने की अपील करते तो हत्याएं रूक जातीं हैं या नहीं।
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जो गोडसे नहीं कर पाया मोदी वह करने की सामर्थ्य रखते हैं
दरअसल, मोदी गांधी के प्रतिलोम होने के अलावा और कुछ भी नहीं हो सकने के लिए अभिषप्त हैं। और यही उनकी उपलब्धि है क्योंकि उनसे पहले सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, देवरस, अटल बिहारी वाजयेपी या लालकृष्ण आडवाणी अपने तमाम प्रयासों और गांधी विरोधी वैचारिकी के बावजूद पूरी तरह से गांधी के प्रतिलोम नहीं बन पाए।
हां, नाथूराम गोडसे जरूर इस मामले में मोदी को टक्कर देने की स्थिति में लगते हैं लेकिन उनकी सीमा यह थी कि वे गांधी की शारीरिक हत्या ही कर पाए। जबकि मोदी गांधी के अर्थ, उनके व्यक्तित्व और भारतीय जनमानस के कॉमन सेंस पर उनके गहरे नैतिक प्रभाव की हत्या करने की सामर्थ रखते हैं। गोडसे ऐसा नहीं कर पाया या शायद उसे ऐसा करने का वक्त इतिहास ने नहीं दिया। यह गौरव सिर्फ मोदी ही हासिल कर पाए। जिसकी वजह से वे गांधी के दूसरे पहलू बन गए। जिसे हम इस तथ्य से भी समझ सकते हैं कि गुजरात 2002 के मोदी प्रायोजित मुसलमानों के जनसंहार के बाद से ही जहां पर भी और जब भी यहां तक कि विदेशों में भी, किसी इंसानों के समूह ने मोदी को कटघरे में खड़ा किया, वहां गांधी अपने आप मौजूद हो जाते रहे हैं।
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यहां तक कि जो वाम प्रगतिशील तबका गांधी की सामाजिक और राजनीतिक समझदारी से बहुत सहमत और प्रेरित नहीं था, उसने भी मोदी के 2002 के कारनामे के बाद गांधी को उस मूल्य के बतौर स्वीकार किया जिसकी हत्या मोदी करना चाहते हैं। यह मोदी के गांधी के प्रतिलोम होने की ही ताकत को दर्शाता है।
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मोदी चाहें या ना चाहें गांधी हमेशा उनके साथ नत्थी रहेंगे
मोदी से पहले किसी भी दूसरे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का जिक्र या तुलना गांधी के मूल्यों से कभी नहीं हुआ है। मोदी चाहें या ना चाहें गांधी हमेशा उनके साथ नत्थी रहेंगे। यह शायद गांधी का भी दुर्भाग्य है।
वहीं मोदी के बयान पर विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों का यह कहना कि मोदी सरकार को गौहत्या के खिलाफ सख्त कानून बनाना चाहिए, उनके बयान और संघ परिवारी संगठनों के बीच के रणनीतिक समझौते और काम के बंटवारे को भी दिखाता है। ऐसे बयान देकर वो साबित करना चाहते हैं कि वे कानून को मानने वाले संगठन हैं और कानून के अभाव में होने वाली ये हत्याएं इसीलिए जायज हैं। पुलिस और मीडिया के एक हिस्से द्वारा ऐसी हत्याओं में लिप्त लोगों को ‘भीड़’ बताना भी इसी रणनीति का हिस्सा है।
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राज्य प्रायोजित हैं ये हत्याएं
साम्प्रदायिक दंगों के दौरान मुसलमानों के खिलाफ नामजद मुकदमें दर्ज करना और हिंदुओं के खिलाफ ‘अज्ञात’ के बतौर मुकदमे दर्ज करने की प्रचलित पुलिसिया कार्यशैली का ही यह एक और रणनीतिक विस्तार है। इसीलिए पुलिस इन हत्याओं के सारे वीडियो साक्ष्य होने जिसमें एक-एक हत्यारे को बहुत आसानी से पहचाना जा सकता है, के बावजूद उसे सिर्फ इसलिए ‘भीड़’ बताती है ताकि इन हत्याओं को उपयुक्त कानून न होने के कारण उपजे जनआक्रोश के बतौर ‘भीड़ का इंसाफ’ बता कर वैधता दे दी जाए।
लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि ये हत्याएं बिहार में एक जमाने में होने वाली अपराधियों की भीड़ द्वारा हत्याओं जैसी नहीं हैं, जहां लोगों ने उसे इसलिए अंजाम और समर्थन दिया कि पुलिस और सरकार इन अपराधियों को पैसा लेकर या उनके राजनीतिक रसूख के कारण छोड़ देगी इसलिए इन्हें मार डालना चाहिए। ये बिल्कुल इसके विपरीत प्रवृत्तियों वाली हत्याएं हैं। यहां ‘भीड़’ मुसलमानों और कुछ मामलों में दलितों की इसलिए हत्याएं कर रही है कि सरकार और पुलिस मारे जाने वाले आदमी के खिलाफ और हत्यारों के साथ खड़ी है। ये हत्याएं इसीलिए राज्य प्रायोजित हैं, उनके खिलाफ जिन्हें राज्य अपना नागरिक नहीं मानना चाहता। इसीलिए हत्याआंे का यह दुष्चक्र हर घटना के बाद मुसलमानों और कहीं-कहीं दलितों में अपने नागरिक होने के बोध का क्षरण करता है। ऐसी हर हत्या नागरिकता के दायरे से आबादी के एक हिस्से को बाहर कर रही है।
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दुनिया का इतिहास बताता है कि बारहा ऐसी स्थितियां राष्ट्रीय त्रासदी का रूप ले लेती हैं। भारत के लिए यह चुनौती इसलिए और जटिल हो सकती है कि उसके मौजूदा शासक की इतिहास की समझ बहुत कम है और उनका मातृ संगठन इतिहास से सबक सीखने के बजाए कुंठा हासिल करता है।
बदलते भारत का प्रतीक हैं ये हत्याएं
लेकिन इस त्रासदी का सबसे दुखद पहलू यह है कि विपक्ष में भी ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिसे देखकर कोई इन हत्याओं के खिलाफ बोलने का नैतिक दबाव महसूस करे। और यह भी उतनी ही कड़वी सच्चाई है कि मोदी की तरह विपक्ष भी गांधी का हवाला देकर अपने को प्रहसन में ही तब्दील करेगा। आप कह सकते हैं कि ये हत्याएं बदलते भारत का प्रतीक हैं और सत्ता पक्ष ‘विपक्षमुक्त भारत’ के अपने नारे को वास्तविकता में तब्दील करने में तेजी से सफल हो रहा है।
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