गौरक्षा : मोदी की शेर की सवारी से उतरने की छटपटाहट
गौरक्षा : मोदी की शेर की सवारी से उतरने की छटपटाहट
भीड़तंत्र से देश को मुक्त कराने की छटपटाहट
गौरक्षा के नाम पर हो रही बदमाशी अब केंद्र सरकार को भारी पड़ती नज़र आ रही है। राज्यसभा में केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने दावा किया कि भीड़ द्वारा अल्पसंख्यकों की हत्या के मामले किसी साज़िश का हिस्सा हैं और देश को विकास के एजेंडा से हटा रहे हैं। इसके पहले प्रधानमंत्री ने खुद यह जोर देकर कहा था कि गाय की रक्षा के नाम पर बदमाशी की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
वैसे इस तरह की बात उन्होंने पहले भी कही थी लेकिन इस बार जानकारों को लग रहा है कि वे अधिक गंभीरता से अपनी बात कह रहे हैं। उन्होंने राज्य सरकारों से अनुरोध किया कि ऐसे मामलों में सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। कानून व्यवस्था राज्य का विषय है इसलिए केंद्र सरकार इन मामलों में कोई कार्रवाई न करके अपने आपको सुरक्षित महसूस कर रही थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। केंद्र सरकार को अब बिलकुल समझ में आ गया है कि अपनी पार्टी और उसके विश्व हिन्दू परिषद् जैसे आनुषांगिक संगठनों के हिंदुत्व वाले लक्ष्य को एक हद से ज्यादा समर्थन नहीं दिया जा सकता।
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शायद इसीलिए प्रधानमंत्री के गाय की रक्षा वाले बयान के दो दिन बाद ही उनके विश्वासपात्र नेता और गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने विधानसभा में स्पष्ट कर दिया कि गाय की रक्षा के नाम पर अतिवादी एजेंडा अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उन्होंने अपने बयान में कहा कि राज्य में बीफ की कमी नहीं होने दी जायेगी और अगर ज़रूरी हुआ तो पड़ोसी राज्य कर्नाटक से बीफ खरीद कर मंगाया जाएगा।
पर्रिकर के इस बयान के बाद विश्व हिन्दू परिषद् के एक नेता ने मनोहर पर्रिकर के इस्तीफे की मांग कर दी, लेकिन ऐसा लगता है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व और केंद्र सरकार वीएचपी नेता को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। इस बयान के बाद हुई टेलिविज़न बहसों में भाजपा के प्रवक्ता विकास आदि मुद्दों पर गोलमोल बातें करते रहे और मनोहर पर्रिकर के इस्तीफे की मांग को गंभीरता से लेने के लिए बिलकुल तैयार नहीं नज़र आए।
इस बात में दो राय नहीं है कि राज्यसभा में कांग्रेस का पलड़ा भारी है और आम तौर पर राज्य सभा में कांग्रेस के नेता प्रभावी रहते हैं। गौरक्षा और उसके नाम पर हो रहे गुंडागर्दी के अपराधों पर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने सरकार को घेरा और पूछा कि क्या सरकार भारतीय दंड संहिता में किसी बदलाव करने की जरूरत महसूस हो रही है। ऐसा लगता है कि गौ रक्षा के नाम पर होने वाली गुंडई को रोकने की सरकार की कोशिश को कांग्रेस का समर्थन मिल रहा है।
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अब यह लगभग साफ हो गया है कि केंद्र सरकार अगर गौ रक्षा के नाम पर भीड़ द्वारा लोगों को मार देने की घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेगी तो भारत में विदेशी निवेश की उनकी योजना फलीभूत नहीं होगी। जिन देशों से भारत अपने यहां पूंजी निवेश की आस लगाए बैठा है उन सब देशों में बीफ भोजन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। पूरे यूरोप और अमेरिका में बीफ खाया जाता है और अगर बीफ ले जाने या घर में बीफ होने के शक में लोगों को जान से मारा जा सकता है तो कोई भी कंपनी अपने कर्मचारियों को इस तरह के खतरे से बचाना चाहेगी।
यह बात तब भी विदेशी अखबारों में चर्चा में आई थी जब दिल्ली के पड़ोस में दादरी कस्बे के पास बिसाहडा गांव में अखलाक नाम के एक आदमी के घर में घुसकर गौरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी थी क्योंकि उनको शक था कि उसके घर के फ्रिज में गाय का गोश्त रखा हुआ था। केंद्र सरकार तो अन्यमनस्क थी लेकिन भाजपा ने उस दौर में उन लोगों का ही साथ दिया था जिनके ऊपर अखलाक की हत्या का आरोप लगा था। शायद इसका कारण यह रहा हो कि उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में विधानसभा का चुनाव होना था।
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जाहिर है चुनाव जीतने केलिए किसी भावनात्मक मुद्दे को आगे लाना था। उस दौर में ऐसा लगता था कि चुनाव को साम्प्रदायिक करने और तत्कालीन सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को मुस्लिमपरस्त साबित करने की कोशिश चल रही थी। ऐसा हुआ भी और समाजवादी पार्टी चुनाव बुरी तरह से हार गई। भाजपा को भारी बहुमत मिला। लगने लगा कि देश में हिंदुत्व की व्यवस्था लागू करने की दिशा में काम हो रहा है। लेकिन इस बीच औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र से बुरी खबर आना शुरू ही गई। मई में जब औद्योगिक उत्पादन के विकास के आंकड़े आये तो सरकार की चिंता बढ़ गई। पिछले साल के इसी कालखंड में 9 प्रतिशत का विकास हुआ था जो इस साल घट कर 1.7 प्रतिशत ही रह गया। कारखानों से होने वाला उत्पादन 7.3 प्रतिशत से घट कर 2.3 प्रतिशत रह गया। इन्हीं आंकड़ों से पता चला कि एक साल पहले कैपिटल गुड्स सेगमेंट का जो आंकड़ा 13.9 प्रतिशत पर था वह इस साल 3.9 प्रतिशत रह गया यानी सीधे सीधे 10 प्रतिशत की कमी आई। कैपिटल गुड्स सेगमेंट से ही पता चलता है कि पूंजी निवेश बढ़ रहा है कि घट रहा है। 10 प्रतिशत की कमी का मतलब यह है कि पूंजी निवेश में भारी कमी आई है। यानी उद्योगपति उद्योगों में पूंजी लगाने से पीछे हट चुका है। ऐसा लगता है कि ये आंकड़े केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री की चिंता का कारण बन चुके हैं। सड़क पर न्याय देने वाली भीड़ पर काबू करने की आवश्यकता के पीछे यह भी एक महत्वपूर्ण कारण लगता है।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, संसदीय कार्य और अल्पसंख्यक विभाग के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी और गोवा के मुख्यमंत्री की तरफ से आये स्पष्ट संकेतों से बात लगभग साफ हो चुकी है कि अब सरकार को मालूम है कि गौ रक्षा या किसी भी मुद्दे के नाम पर भीड़ को लामबंद करने की कोशिशों को रोकना बहुत ज़रूरी है क्योंकि अब इसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था पर बड़े पैमाने पर पडऩा शुरू हो गया है। इसीलिये आम तौर पर नारों आदि तक सीमित रहने वाले संसद सदस्यों की जमात में से एक पत्रकार सांसद को निकाला गया और राज्य सभा में नामज़द सदस्य स्वपन दासगुप्ता ने गौरक्षा के नाम पर होने वाले आतंक के खिलाफ सरकार का पक्ष जोरदार तरीके से रखा। उन्होंने अपने भाषण में महात्मा गांधी के कार्य और जीवन को प्रमुख स्थान दिया और बात को सही परिप्रेक्ष्य में रखने की कोशिश की।
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उन्होंने कहा कि कुछ लोगों की कारस्तानी के कारण पूरी व्यवस्था पर दोष लगाना ठीक नहीं है। चौरी चौरा का उदाहरण देकर उन्होंने बताया कि महात्मा गांधी का अहिंसक आन्दोलन चल रहा था और उस बीच कुछ लोगों ने एक थाने पर आग लगा दी और 24 लोगों की मौत हो गई लेकिन उस घटना के कारण महात्मा गांधी के आन्दोलन को हिंसक नहीं कहा जा सकता।
श्री दासगुप्ता ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का भी उल्लेख किया और बताया कि उसमें भी हिंसा हुई थी। वे यह साबित करना चाहते थे कि मौजूदा समय में भी भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा को उनकी पार्टी के नेतृत्व का काम न माना जाए।
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काश किसी ने स्वपन दासगुप्ता को बताया होता कि चौरी चौरा की घटना के बाद महात्मा गांधी ने अपना पूरा आंदोलन वापस ले लिया था। उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या उनकी पार्टी, नेता और सरकार ऐसा कोई कदम उठाने के बारे में सोच भी सकते हैं। क्योंकि दुनिया को मालूम है कि अपनी पिछले दिनों हुई यूरोप और अमेरिका की यात्राओं के पहले प्रधानमंत्री जी अखलाक आदि की हत्याओं पर ऐसी बात नहीं करते थे जैसी कि आजकल कर रहे हैं। इसके दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि ताजा यात्राओं में उनको इन सवालों से दो-चार होना पड़ा था। कुछ शहरों में तो बाकायदा सीधे सवाल पूछे गए और जुलूस भी निकाले गए।
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स्वपन दासगुप्ता को यह भी बताया जाना चाहिए कि 1857 के आन्दोलन में भी देश के बहुत नुकसान हुआ था। उस आन्दोलन के वक्त देश में अंग्रेजी राज के खिलाफ जो गुस्सा था उसको अगर सही दिशा दी गई होती तो वहीं अंग्रेज़ी राज का अंत हो गया होता लेकिन हिंसा के कारण अंग्रेजी राज के आकाओं को मौका मिल गया और उन्होंने अवाम की बुलंदी को वहीं कुचल दिया।
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इसलिए आजकल चल रही हिंसा को चौरी चौरा और 1857 से जोड़कर सही साबित करने या हिंसा को रोकने की जिम्मेदारी से सरकार या भाजपा को बचाने की कोशिश करने का कोई मतलब नहीं है। हालांकि यह ज़रूरी था कि ऐसी घटनाओं को सरकार अपना कर्तव्य मानकर पहले से ही रोकती लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिछले कई महीनों से इस तरह की घटनाएं हो रही हैं और सरकार के पदाधिकारियों की चुप्पी उनको बढ़ावा देती ही नज़र आ रही थी। यह राजनीतिक और प्रशासनिक असफलता का बड़ा उदाहरण था। ऐसी वारदातें आम तौर पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ ही हो रही थीं जिसके कारण साम्प्रदायिक धु्रवीकरण भी हो रहा था और वोट भी मिल रहे थे लेकिन पूरी दुनिया में देश की राजनीति पर सवाल उठ रहे थे। सबको मालूम है कि प्रधानमंत्री अपनी छवि को धूमिल नहीं होने देना चाहते।
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फिलहाल सरकार की तरफ से जो संकेत आ रहे हैं उनके पीछे भीड़तंत्र से देश को मुक्त कराने की छटपटाहट भी साफ नज़र आ रही है। जाहिर है इस प्रक्रिया में गौ रक्षा के नाम पर सड़क पर न्याय दे रही जमातों को कष्ट होगा और हो सकता है कि जिस वीएचपी ने राम मंदिर के मुद्दे को उठाकर भाजपा को 2 सीट वाली पार्टी से सरकार बनाने वाली पार्टी तक पहुंचाया उसको आने वाले समय में अपनी गति को थोड़ा धीमा करना पड़े लेकिन अब सरकार को मालूम है कि अगर भीड़ द्वारा लोगों की हत्या को बेलगाम छोड़ा गया तो देश को भारी नुकसान से गुजरना पड़ेगा और ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी की सरकार ऐसा कोई भी जोखिम नहीं लेना चाहती। प्रधानमंत्री का गौ रक्षा के नाम पर बदमाशी रोकने वाला बयान इस बात का अहम संकेत है।


