ग्रीस के हाल के घटनाक्रम ने बहुतों को फिल्म 'मदर इंडिया’ की याद दिलायी होगी। हिंदी सिनेमा के क्लासिक के रूप में स्थापित इस फिल्म को जिसने भी देखा है, इसके पात्र सु:खी लाला को नहीं भूल सकता है, जो नकारात्मक रूप से ही, पूरी कथा के केंद्र में है।
सु:खी लाला गांव का महाजन, व्यापारी और जमींदार, सब एक साथ है, जिसके कांटे में एक बार फंसने के बाद कोई भी पूरी तरह बर्बाद होने से बच नहीं सकता है। लोगों की हर विपदा, सु:खी लाला की हरेक मदद, लोगों को संकट के और गहरे गड्ढे में ही धकेलती जाती है और उनकी गर्दन पर सु:खी लाला का शिंकजा और कसती जाती है।
पिछले महीने के आखिरी सप्ताह और जुलाई के पहले पखवाड़े के बीच ग्रीस में जो कुछ हुआ है क्या अपने संदर्भों की सारी भिन्नता के बावजूद, सार रूप में 'मदर इंडिया’ की सु:खी लाला की अपना शिकंजा कसने में कामयाबी तक की कहानी ही नहीं दोहराता है?
बेशक, 20 जुलाई को ग्रीस में बैंकों के खुलने के साथ, जीवन के अपनी सामान्य पटरी पर लौट आने की शुरूआत हो गयी मानी जा सकती है। पूरे तीन सप्ताह बाद बैंक खुल रहे थे। पिछले महीने के आखिर में फूटे ऋण संकट से मची बैंकों से पैसा-निकालने की अफरा-तफरी के बीच, 29 जून से बैंक बंद कर दिए गए थे। उसके बाद से बैंकों से एक दिन में सिर्फ 60 यूरो निकालने की इजाजत थी। बेशक, तीन हफ्ते के बाद भी पाबंदियां तो बनी हुई थीं, फिर भी रोजाना निकाली जा सकने वाली राशि की अधिकतम सीमा में ढील दिए जाने की शुरूआत हो चुकी थी। और यह इसलिए संभव हुआ था कि ग्रीस के लिए तीन साल की अवधि के लिए 86 अरब डालर के बेल आउट के हिस्से के तौर पर, 7.12 अरब डालर के आपात् ऋण का भुगतान शुरू हो चुका था।
याद रहे कि यह ऋण सबसे बढ़कर इसलिए दिया जा रहा था ताकि इसी रोज ग्रीस, योरपीय केंद्रीय बैंक की 4.2 अरब यूरो की देनदारी का और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की देनदारी का भी भुगतान कर सके। यह भी दिलचस्प है कि योरपीय कमीशन, योरपीय सेंट्रल बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ही 'त्रोइका’ के साथ ग्रीस की सरकार द्वारा समझौता किए जाने के बाद ही ग्रीस में 'सामान्य’ स्थिति की यह वापसी शुरू हो रही थी।
संक्षेप में यह ऋण लेकर, ऋण चुकाने की ही मजबूरी का ही मामला नहीं है बल्कि जिनका ऋण चुकाना है, ठीक उन्हीं से और ऋण लेकर, पहले का ऋण चुकाने का मामला है। लेकिन, किस्सा सिर्फ इतना ही नहीं है। 'सामान्य स्थिति’ की यह बहाली ठीक इसी रोज से अनेकानेक मालों तथा सेवाओं पर कर की दरें, 13 फीसद से बढ़ाकर 23 फीसद कर दिए जाने के साथ हो रही थी!
कहने की जरूरत नहीं है कि कर चुकाने के लिए कर लेने का यह दुष्चक्र, ग्रीस की जनता पर सिर्फ बढ़ता हुआ बोझ थोप सकता था!
बहरहाल, पश्चिमी सभ्यता का पालना रहे ग्रीस दुर्भाग्य सिर्फ इतना ही नहीं है कि वह इस दुश्चक्र में फंसा हुआ है। उसका दुर्भाग्य यह भी है कि ठीक इसी दुश्चक्र से निकलने या कम से कम इसका शिकंजा कुछ ढीला करने की उसकी लड़ाई का अंत, उसकी गर्दन पर यह शिकंजा और कस जाने के रूप में हुआ है।
वास्तव में 2008 में आए विश्व वित्तीय संकट से निपटने की कोशिश में, शेष पूंजीवादी दुनिया की तरह, ग्रीस में भी सरकार ने अपनी गर्दन पर ऋण लेकर, बैंकों समेत वित्तीय संस्थाओं को बचाने के लिए मदद दी थी। वित्तीय संकट से निकले विश्व आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि में इन ऋणों ने, वित्तीय संस्थाओं के संकट को, संप्रभु शासन के संकट में बदल दिया। यूरोपीय यूनियन तथा यूरोजोन के हिस्से के तौर पर ग्रीस चूंकि घाटे की वित्त व्यवस्था की बहुत नीची सीमा से बंधा हुआ था, इस घाटे की भरपाई उसे 'त्रोइका’ के माध्यम से ऋण लेने के जरिए ही करनी पड़ी और इसके साथ शुरू हुआ बेल आउट पैकेजों और उनके साथ जुड़ी ऑस्टेरिटी यानी जनता को ज्यादा से ज्यादा निचोड़कर, ऋण चुकाने के साधन बचाने की शर्तें थोपे जाने का सिलसिला।
अचरज नहीं कि पिछले कई वर्ष से आर्थिक संकट की मार झेल रहे समूचे योरप में ही, मेहनतकशों तथा पेंशनरों व आम जनता के जीवन स्तर पर इन हमलों का कड़ा विरोध हो रहा था।
बहरहाल, ग्रीस शुरू से उन देशों में था जहां यह विरोध और भी ज्यादा तेज था। इसी मंथन के बीच से, परंपरागत कम्युनिस्ट वामपंथ के अलावा ग्रीस में सिरिजा के नाम से एक नया वामपंथी मंच भी उभरकर सामने आया। इसकी मूल प्रतिज्ञा तो ऑस्टेरिटी की मार से जनता को बचाने की थी, लेकिन वह कम्युनिस्ट वामपंथ के विपरीत, योरपीय यूनियन तथा यूरोजोन के दायरे में ही रहकर, ग्रीस की जनता को इस मार से बचाने का वादा करता था। ग्रीस की जनता ने ठीक इसी वादे के आधार पर, इस साल के शुरू में हुए आम चुनाव में सिरिजा के हाथ में सत्ता सौंपी थी।
अपने वादे के अनुरूप सिरिजा ने यूरोजोन की नीतियों के दायरे में, जो वास्तव में विश्व वित्तीय पूंजी द्वारा नियंत्रित नीतियां ही हैं, देश के ऋण संकट के हल के लिए त्रोइका से महीनों लंबी वार्ताओं में ऐसा नया बेल आउट पैकेज लाने का काफी जोर लगाया था, जो ऑस्टेरिटी की मार को खत्म न भी करे, तो कम से कम हल्का जरूर करे। लेकिन, त्रोइका को यह हर्गिज मंजूर नहीं था।
जून के मध्य तक आते-आते वार्ताओं में पूरी तरह से गतिरोध पैदा हो गया और ग्रीस को बेल आउट पैकेज के लिए ऑस्टेरिटी की पहले से कड़ी शर्तें स्वीकार करने का अल्टीमेटम दे दिया गया।
ठीक इसी पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री अलेक्सिस सिप्रास ने अल्टीमेटम को ठुकराते हुए, उक्त शर्तों को स्वीकार करने न करने पर ग्रीस में जनमत संग्रह कराने की घोषणा की थी और इसके बाद जून के आखिर में ग्रीस विकसित दुनिया का संभवत: पहला ऐसा देश बना गया, जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का डिफाल्टर हो गया। इसके बाद, 5 जुलाई को हुए जनमत संग्रह में बैंकों के बंद होने आदि की सारी कठिनाइयों को झेलते हुए भी, पूरे 61.5 फीसद ग्रीसवासियों ने बेल आउट के साथ जोड़ी जा रही शर्तों के खिलाफ फैसला सुनाया। लेकिन, उसके बाद जो कुछ हुआ है, उसे ग्रीक त्रासदियों की परंपरा का नया अध्याय ही कहा जा सकता है।
विश्व वित्तीय पूंजी के हितों से बंधे त्रोइका ने बड़ी हिकारत के साथ, ग्रीस की जनता के जनादेश को ठुकरा ही नहीं दिया, अपने आदेश की अवहेलना करने की सजा के तौर पर, बेल आउट के लिए अपनी शर्तों को पहले प्रस्तावित शर्तों के मुकाबले और भी सख्त कर दिया। अब ऑस्टेरिटी की मार में 3 अरब डालर का इजाफा कर दिया गया।
दूसरी ओर, सिप्रास सरकार ने जिसने किसी विकल्प पर विचार तक करने की जेहमत करना जरूरी नहीं समझा था, त्रोइका के इस कड़े रुख के सामने यूरोजोन से ग्रीस की विदाई की संभावना मात्र देखकर, पूरी तरह से हथियार डाल दिए।
इस तरह, ऑस्टेरिटी की मार से बचने के लिए संघर्ष कर रही और दो-टूक संकल्प जता चुकी ग्रीस की जनता को, हाथ-पांव बांधकर त्रोइका के सु:खी लाला के आगे डाल दिया गया।
सिरिजा विभाजित हो गयी, पर सिप्रास सरकार ने त्रोइका के अल्टीमेटम पर, 15 जुलाई को करों तथा कटौतियों में भारी बढ़ोतरी से लेकर, निजीकरण तथा 50 अरब यूरो की राष्ट्रीय संपत्तियां बेचने तक के कानूनों पर संसद से मोहर लगवा ली ताकि तीसरा बेल आउट पैकेज शुरू हो सके!
इस पूरे प्रकरण के दो-तीन सबक खास हैं, जो हमारे देश के लिए भी हैं।
विश्व वित्तीय पूंजी के सु:खी लाला के शिकंजे में फंसने के बाद, उसकी जकड़ को ढीला नहीं किया जा सकता है। हां! उसके फंदे को ही काट दिया जाए, तो बात दूसरी है। ब्रिक्स बैंक जैसी पहलें इसीलिए महत्वपूर्ण हैं कि वे इस फंदे के कुछ राहत देती हैं।
यह भी याद रहे कि इस सु:खी लाला की नजरों में अपने फायदे के सामने जनतंत्र, जनता की जनतांत्रिक इच्छा, जनादेश की टके की कीमत नहीं है।
... और अंत में एक सबक 'मदर इंडिया’ के अंत का भी है। सु:खी लाला के निर्द्वंद्व राज के लिए अगर किसी वास्तविक विकल्प की चुनौती नहीं होगी, तो यह आत्मघाती हिंसक विद्रोह ही पैदा करेगा। मौजूदा विश्व आर्थिक संकट के बीच योरप में और दुनिया के अन्य हिस्सों में भी संकीर्णतावादी, कट्टरपंथी ताकतों का जोर पकड़ऩा इसी का इशारा है।
0 राजेंद्र शर्मा
राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।