‘घर वापसी’-कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना
‘घर वापसी’-कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना
यह विडंबना है कि जिस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा सांसदों की बैठक में इसका भरोसा दिला रहे थे कि सरकार के विकास के एजेंडा को पटरी से नहीं उतरने दिया जाएगा, ठीक उसी समय संसद के कम से कम एक सदन की कार्रवाई पूरी तरह पटरी से उतरी हुई थी। ऊपरी सदन की कार्रवाई को पटरी से उतारा था, संघ परिवार द्वारा साम-दाम-दंड के सहारे, गरीब मुसलमानों व ईसाइयों का थोक के हिसाब से धर्मांतरण किए जाने की चिंताओं ने। संघ परिवार के बाजू हिंदू जागरण मंच ने आगरा में बीसियों कचरा बीनने वाले बांग्लाभाषी गरीब मुसलमान परिवारों का धर्मांतरण कर, पिछले कुछ अर्से से सुन-गुन में बने रहे इस मामले को राजनीतिक चर्चा में ला दिया। आने वाले दिनों में, खासतौर पर क्रिसमस के दिन, और बड़े पैमाने पर धर्मातरण कार्यक्रमों के आयोजन के एलानों ने, इस मामले को और गंभीर बना दिया।
और भाजपा सांसद आदित्यनाथ समेत संघ परिवार के विभिन्न नेताओं के ‘घर वापसी’ के नाम पर, हिंदू धर्म में धर्मातरणों के जारी रखे जाने के एलानों ने, इसे भारी चिंता का मुद्दा बना दिया। उधर इसी बीच आगरा के धर्मातरणों की पृष्ठïभूमि में विशेष रूप से लोकसभा में इसी मुद्दे पर बहस को सत्ताधारी भाजपा ने एक हद तक सफलता के साथ, धर्मांतरण-मात्र पर पाबंदी की अपनी पुरानी मांग के पक्ष में ही मोडऩे की कोशिश की थी। इसी पृष्ठïभूमि में राज्यसभा में विपक्ष, स्वयं प्रधानमंत्री से इसका आश्वासन हासिल करने पर अड़ा हुआ था कि दाब-धोंस, लोभ-लालच से मुसलमानों तथा ईसाइयों को हिंदू बनाने की इस मुहिम को रोका जाएगा, जिसके लिए पहले से पर्याप्त कानून मौजूद हैं। जाहिर है कि उपरले सदन में बहुमत के अभाव में सत्तापक्ष की इसे धर्मांतरण-मात्र के खिलाफ बहस में तब्दील करने की कोशिश कामयाब नहीं हुई। अचरज नहीं कि हिंदुत्ववादी मुहिम को हवा देते रहने की मोदी सरकार की चिंता ने, एक हद तक संसद को तो पटरी से उतार ही दिया है।
इस तरह, संघ परिवार ने अपनी अल्पसंख्यकविरोधी तथा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की मुहिम में ‘लव जेहाद’ के बाद अब तथाकथित ‘घर वापसी’ का नया मुद्दा उछाल दिया है। वैसे यह मुद्दा तो खुद #संघ_परिवार जितना ही पुराना है, जिसकी परंपरा पिछली सदी के आरंभिक दशकों की ‘शुद्धि’ की मुहिमों से जुड़ती है। फिर भी अब इसे नये सिरे से उछाला जा रहा है। संघ परिवार की नजरों में यह ऐसा मामला है जिसमें चित्त और पट्ट, दोनों ही उसी की हैं। यह मुद्दा एक नहीं तिहरे लाभ का है। सीधे-सीधे तो इस के ‘घर वापसी’ आयोजन, हिंदुओं की संख्या में इससे संभव बढ़ोतरी से कई गुना ज्यादा, अल्पसंख्यकविरोधी व सांप्रदायिक-ध्रुवीकरण की प्रचार को ही हवा देने का काम करते हैं। एक और स्तर पर इस तरह के आयोजन, जनसांख्यिकी को लेकर #हिंदुत्ववादी प्रचार व मिथकों को और पुख्ता करने का काम करते हैं। तीसरे स्तर पर, जो अंतत: इसी हिंदुत्ववादी प्रचार में काम आने वाले मिथकों से जुड़ जाता है, इस तरह के आयोजन ‘धर्मांतरण मात्र’ पर रोक लगाने की भाजपा समेत संघ परिवार की पुरानी मांग की ही पुष्टि करने का काम करते हैं, जैसाकि आज हो रहा है। याद रहे कि मुसलमान, ईसाई आदि ‘दूसरों’ के हावी हो जाने का डर, हिंदुत्ववादी प्रचार व सिद्धांत की रीढ़ है।
बेशक, यह पूछा जा सकता है और वास्तव में संघ परिवार द्वारा बहुत से मुंहों से यह पूछा भी जा रहा है कि आखिरकार, धर्मांतरण मात्र पर रोक लगाने में समस्या ही क्या है? जाहिर है कि ऐसी रोक लग जाएगी तो आगरा जैसा धर्मांतरण भी नहीं होगा, जिस पर इतनी बहस हुई है। कई नये समझदार भी इस व्यावहारिकता का पाठ पढ़ाना चाहते हैं कि ‘धर्मातरणों’ की छूट रहने से भी अंतत: घाटे में तो अल्पसंख्यक ही रहेंगे, तो क्यों न इस झगड़े को जड़ से ही मिटा दिया जाए- न बांस रहेगा, न बनेगी बांसुरी! इस दलील की सवा चतुराई वास्तव में इस बुनियादी सचाई को छुपाने में है कि ‘धर्मांतरण’ का संबंध, धार्मिक स्वतंत्रता से है, जो हमारे संविधान में गारंटीशुदा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का ही एक पक्ष है। ‘धर्मांतरण’ सिर्फ दो धार्मिक समुदायों के बीच आवा-जाही का ही मामला नहीं है। यह धर्म के चुनाव की, जिसमें किसी भी धर्म को न चुनना भी शामिल है, व्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला भी है। जाहिर है कि व्यक्ति की यह स्वतंत्रता संघ परिवार जैसी ताकतों को मंजूर नहीं होगी, जो इंसान की धार्मिक पहचान को ही उसकी असली या पहली पहचान मानती हैं। उनके हिसाब से तो मनुष्य सीधे किसी धर्म में ‘पैदा होता है’, जिसके बाद धर्म को ‘चुनने’ का कोई सवाल ही नहीं उठता है। भारतीय संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के विचार को ही उनके ‘पराया’ मानने की यह भी एक वजह है।
खैर! भारत का संविधान धार्मिक मामलों में सभी नागरिकों की पूरी आजादी की गारंटी करता है, जिसमें अपनी मर्जी का धर्म अपनाने या न अपनाने, उसका पालन करने, उसका प्रचार करने और यहां तक कि उसमें दूसरों को ‘दीक्षित’ करने की स्वतंत्रता भी शामिल है। धर्मातरण-मात्र पर रोक की मांग, सिर्फ दाब-धोंस या लालच से किए जाने वाले धर्मातरणों पर ही रोक की मांग नहीं है बल्कि धार्मिक स्वतंत्रता पर ही और खासतौर पर सचेत रूप से अपने लिए ‘धर्म का चुनाव’ करने की स्वतंत्रता पर, रोक की मांग भी है। जाहिर है कि यह मक्खी के साथ घी भी फेंक देने की मांग है, जिसकी गलती हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने नहीं की थी। देश की आजादी की लड़ाई के जनतांत्रिक सार के अलावा इसके पीछे भारतीय धार्मिक पंरपरा की अपनी खासियत की पहचान भी थी।
भारतीय परंपरा में असली या पहली पहचान जाति की है, धार्मिक पहचान बाद में आती है या गौण है। इसीलिए, भारतीय परंपरा में धर्मों के बीच की दीवारें बहुत खुली हुई रही हैं और उनके बीच आवाजाही की आम स्वीकृति रही है। सच तो यह है कि ब्रिटिश राज में उन्नीसवीं सदी के आखिर में जनगणना की शुरूआत के साथ, पूरी आबादी को हिंदू या मुसलमान या ईसाई के खानों में बांटने का बढ़ता दबाव बनने के बाद भी, पिछली सदी के शुरूआती दशकों तक आबादी का करीब पांचवां हिस्सा खुद को, इनमें से किसी धर्म का अनुयाई नहीं मानता था। ऐसी पंरपरा में किसी धर्म में पैदा होने का विचार ही ‘विदेशी’ था, न कि अपने लिए धर्म ‘चुनने’ की स्वतंत्रता का विचार। बहरहाल, संघ परिवार को जो हिंदू धर्म को ही, यहूदी-ईसाई-मुस्लिम, सेमेटिक धर्मों के मॉडल पर नये सिरे से गढऩे पर आमादा है, इस स्वतंत्रता का हजम होना मुश्किल है। उल्टे वे तो इस धार्मिक अस्वातंत्र्य का राज्य या शासन के मामलों तक विस्तार ही देखना चाहते हैं। धर्मातरण मात्र पर पाबंदी के जरिए वे सामाजिक रूप से दबे-कुचलों के लिए, राहत की उम्मीद में हिंदू धर्म से पलायन का रास्ता भी बंद कर देना चाहते हैं, जो जनतंत्र पर ही हमला है। यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के संविधान निर्माता, डा0 आंबेडकर को भी जाति-आधारित दमन के खिलाफ विद्रोह के रूप में, सचेत व चयन-आधारित धर्मातरण में ही राहत दिखाई दी थी।
0- राजेंद्र शर्मा


