दुनिया में यदि सच और खरा बोलने वाले समाप्त हो जाएँ तो इस दुंनिया का चेहरा कैसा होगा, इसकी कल्पना करना सम्भव नहीं है। यदि कल्पना करेंगे भी तो वो बहुत भयावह होगी, क्योंकि तब दुनिया में झूठ और सिर्फ झूठ का बोलबाला होगा। लेकिन ये दुनिया कभी सच बोलने वालों से खाली नहीं होती। हमारे भारत में तो सत्य बोलना एक वाद जैसा है, तभी तो हम आज भी सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की मिसाल देते है। यहां तक कि जब कोई सच बोले तो उसे उल्हाना भी यही कहकर दिया जाता है कि -बड़े सत्यवादी हरिश्चंद्र बन रहे हो' ? संयोग है कि आज भी हमारे समाज में सच बोलने वाले, सच लिखने वाले और सच का साथ देने वाले लोग हैं।

अयोध्या में आगामी 22 जनवरी 2024 को नव निर्मित राम मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा समारोह (Ramlala's life consecration ceremony in Ram temple) को लेकर श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी श्री निश्चलानन्द सरस्वतीजी महाराज ने जो कुछ कहा वैसा कहने का साहस देश में धर्मध्वजाएं उठाकर घूमने वाले तमाम शंकराचार्यों, महा मंडलेश्वरों और संत-महंतों में नहीं दिखाई दिया। धर्म ही सच बोलने का साहस देता है और धर्म की आड़ में ही झूठ के बिरवे भी रोप जाते हैं,पाखण्ड किये जाते हैं। दुर्भाग्य से देश में इस समय धर्म की आड़ में खुलेआम सियासत हो रही है, और कोई महारती नहीं है जो इसके खिलाफ बोलकर अपने आपको राष्ट्रद्रोही कहलाये।

पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद (Shankaracharya Swami Nischalananda of Puri) ने अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम (Ramlala's life consecration program in Ayodhya) में शामिल होने से इनकार कर दिया है। उन्होंने इसे लेकर कहा है कि वह अयोध्या नहीं जाएंगे क्योंकि उन्हें अपने पद की गरिमा का ध्यान है। उन्होंने कहा कि वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मूर्ति का लोकार्पण करेंगे और उसे स्पर्श करेंगे। क्या मैं वहां ताली बजा-बजाकर जय-जय करूंगा ?

शंकराचार्य के इस कथन में निश्चित रूप से तल्खी है, मैंने उनका ये बयान सुना है, लेकिन मैं उनके इस विचार से न सिर्फ अभिभूत हूँ बल्कि सहमत भी हूँ। मुमकिन है कि आप में से उनके ऐसे हों जो इससे सहमत न हों, क्योंकि आपकी नजर में धर्म के ठेकेदार शंकराचार्य नहीं बल्कि किसी एक ख़ास राजनीतिक दल के भाग्यविधाता ही हो सकते हैं।

आज देश में जब धर्म का अंधड़ चल रहा है तब धारा के विपरीत बोलने वाले इन महाशय के बारे में आपको बता दूँ। गोवर्धन मठ पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती का असली नाम नीलाम्बर है। वे बिहार में जन्मे थे। उन्होंने 18 अप्रैल 1974 को हरिद्वार में लगभग 31 साल की आयु में स्वामी करपात्री महाराज के सान्निध्य में उन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इसके बाद से वह नीलाम्बर से स्वामी निश्चलानंद हो गए थे। पुरी के 144वें शंकराचार्य स्वामी निरंजन देव तीर्थ महाराज ने स्वामी निश्चलानंद सरस्वती को अपना उत्तराधिकारी मानकर 9 फरवरी 1992 को पुरी के 145 वें शंकराचार्य पद पर आसीन किया था।

मुमकिन है कि देश के जितने समर्थक भाजपा के पास है उतने स्वामी निश्चलानंद जी के पास न हों, किन्तु वे उन तमाम संतों और शंकराचार्यों से अलग हैं जो राम मंदिर आंदोलन के बहाने धर्म और राजनीति के आपस में घुल-मिल जाने के दौर में खुलकर अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने लगे हैं। अयोध्या के तमाम मठों के महंत और शंकराचार्य भी राजनैतिक पार्टियों के समर्थन में यदा-कदा नजर आते हैं। ऐसे माहौल में भी पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद इस बात पर भरोसा करते हैं कि- 'शंकराचार्य का पद किसी पार्टी को समर्थन देने वाला नहीं बल्कि शासकों पर शासन करने वाला पद है।'

एक साधारण ही नहीं बल्कि अति साधारण लेखक के रूप में मैं जो कहता आया हूँ वही बात स्वामी निश्चलानंद कहते हैं तो उसका मतलब होता है, महत्व होता है।

राजनीति में संतों के इस्तेमाल के खिलाफ रहे हैं शंकराचार्य

जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती (Jagatguru Shankaracharya Swami Nischalanand Saraswati) राजनीति में संतों का इस्तेमाल किए जाने की प्रवृत्ति से शुरू से खफा रहे हैं। वे कह चुके हैं कि सियासी पार्टियां पहले संतों को अपना स्टार प्रचारक बनाती हैं और बाद में उन्हें मौनी बाबा बना देती हैं। उन्होंने श्री-श्री रविशंकर और योग गुरु बाबा रामदेव का उदाहरण भी दिया। उन्होंने किसी पार्टी का नाम लिए बिना कहा था कि पहले राजनैतिक दल ने दोनों का भरपूर इस्तेमाल किया। शासन सत्ता पाते ही उन्हें मौनी बाबा बना दिया गया।

स्वामी जी की इस बात में कितना दम है ये सब जानते हैं, किन्तु खुलकर उनके साथ खड़े नहीं होते, क्यूंकि सबको सत्ता का समर्थन चाहिए, अन्यथा उनके पीछे भी ईडी और सीबाई को लपेटा-लपाटी करने में कितनी देर लगती !

स्वामी निश्चलानंद किससे नाराज हैं? भाजपा से या पीएम मोदी से?

स्वामी निश्चलानंद भाजपा से नाराज हैं या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ये वे ही जानते हैं किन्तु वे नाराज हैं ये जग जाहिर है। स्वामी जी ने जब-तब उन्होंने भाजपा नेताओं और संघ प्रमुख को भी निशाने पर लिया है। उन्होंने बागेश्वर धाम के विवादित और ठठरी बांधने वाले धीरेंद्र शास्त्री की इसलिए निंदा की थी कि वह भाजपा के प्रचारक बन गए हैं। हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था पर बयान देने वाले मोहन भागवत के लिए भी उन्होंने कहा था कि उनके पास ज्ञान की कमी है। इतना ही नहीं, हिंदू मंदिरों में सरकार के हस्तक्षेप से भी निश्चलानंद विचलित हैं। अपने एक बयान में उन्होंने कहा था कि मंदिरों में सरकार का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए और ट्रस्ट को सक्षम बनकर मंदिरों में बेहतर व्यवस्था करनी चाहिए। मंदिरों के लगातार हो रहे 'कॉरिडोरीकरण' का भी निश्चलानंद ने अक्सर विरोध किया है।

गनीमत ये है कि अभी तक स्वामी निश्चलानंद के पीछे भाजपा की ट्रोल आर्मी भूखे भेड़ियों कि तरह नहीं पड़ी है। हैरानी इस बात की भी है कि अभी तक बाकी के शंकराचार्यों का मौन भी नहीं टूटा है। जाहिर है कि वे या तो दबाब में हैं या फिर उनके पास सच बोलने का साहस नहीं रहा। वे स्वामी निश्चलानंद की तरह सच बोलकर सत्ता प्रतिष्ठान से 'रार' मोल नहीं लेना चाहते, क्योंकि ऐसा करने से उनके आनंद में खलल पड़ सकता है। सत्ता प्रतिष्ठा केवल सांवैधानिक ही नहीं बल्कि धार्मिक संस्थाओं की दुम पर भी पैर रखने का, उसे कुचलने का और पालतू बनाने की शक्ति रखता है। सत्ता प्रतिष्ठान की शक्ति से वाकिफ होते हुए भी स्वामी शंकराचार्य ने सच बोलने का साहस किया है इसके लिए उनका अभिनंदन किया जाना चाहिए, लेकिन कोई करेगा नहीं, क्योंकि सब आतंकित हैं, भयभीत हैं या अभिभूत हैं।

भारत भाग्य विधाताओं के खिलाफ बोलने का खमियाजा स्वामी निश्चलानंद सरस्वती को कब और किस रूप में भुगतना पड़े ये कोई नहीं जानता, लेकिन अब वे सत्ता प्रतिष्ठान के निशाने पर हैं। वे निशाने पर हैं उन ढोंगियों के जो सत्ता प्रतिष्ठान के सामने नतमस्तक हैं। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। मंदिर में रामलला के विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा जिन हाथों यानि कर-कमलों से होना है सो होगी।

निश्चलानंद की आपत्ति के सामने झुकने वाले लोग अब नहीं हैं। अब धार्मिक प्रतिष्ठानों को झुकाने वालों का युग है। बहरहाल 22 जनवरी को प्राण-प्रतिष्ठा हो, उसका श्रेय जिसे लूटना हो लूटे लेकिन धर्मध्वजाएं उठाने से पहले लोगों को अपने कर-कमल एक बार देखना चाहिए। स्वामी निश्चलानंद ने जो रुख अख्तियार किया है उसका मैं समर्थन करता हूँ।

मुझे लगता है कि आज यदि शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती होते तो वे भी यही सब कहते जो स्वामी निश्चलानंद ने कहा है।

राकेश अचल

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Rakesh Achal