चाहे कोई जीते- हारे, कॉर्पोरेट ताकतों की जीत अभी से सुनिश्चित है
चाहे कोई जीते- हारे, कॉर्पोरेट ताकतों की जीत अभी से सुनिश्चित है
‘वैकल्पिक राजनीति’ और आम-आदमी का पूँजीवाद!
अभी बाकी है ‘वैकल्पिक राजनीति’ लाने की लड़ाई
किसी भी राजनैतिक दल के लिये शिक्षा और स्वास्थ्य का बढ़ता निजीकरण मुद्दा नहीं
अनुराग मोदी
इस बार के चुनाव में चाहे कोई जीते या हारे, कॉर्पोरेट ताकतों की जीत अभी से सुनिश्चित है। वो, भारत की जनसँख्या वाले देश में आम-जनता कि मौलिक जरूरतों से सरकार को गायब कर, वो निजी हाथों में देने का बड़ा धंधा बने, यही तो वो चाहते है। इसलिये, जब जीवन की रोज़मर्रा की जरूरत से सरकार के गायब होने से आम-जनता गुस्से में थी। तब, ‘आम आदमी पार्टी’ ने सारा ठीकरा भ्रष्टाचार के सर फोड़ दिया, तो मीडिया ने उसे हाथों-हाथ ले पूरे देश में स्थपित कर दिया। उसने पूरे देश को बताया कि ‘आम-आदमी’ का क्रांतिकारी मसीहा कौन है... जैसा, अमेरिका के प्रसिद्ध बुद्धिजीवी, राजनैतिक विश्लेषक और कार्यकर्त्ता ‘नोम चोमस्की’ ने कहा है- मीडिया का काम उसे चलानी वाली कॉर्पोरेट ताकतों और उनके सत्ता हित साधने वाली राजनैतिक दलों के पक्ष में जनमत गढ़ना है। ऐसे में, अब अगर वो वो मसीहा ‘पूँजीवाद’ और निजीकरण को गले लगा ले, तो इसमें हमे आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह अलग बात है, कॉर्पोरेट ताकतों ने अपना काम निकलने पर उसी मीडिया को ‘आम-आदमी पार्टी’ के खिलाफ झोड़ दिया है।
आइए, पहले हम आम-आदमी के मुद्दे को समझते हैं। मुम्बई स्थित मेरे घर में घरेलू काम में मदद के लिये दो महिलाएँ आती हैं- एक खाना बनाती है; दूसरी, अन्य घरेलू काम करती है। दोंनों दलित है, जी-तोड़ मेहनत करती है। और, इस मेहनत कि कमाई एक बड़ा हिस्सा उनके अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाने में जाता है; वो खुद एनेमिक है। उसका ईलाज भी सरकारी अस्पताल में नहीं होता। (वो हमारे द्वारा दिये जाने वाले भोजन से वो दूर होने वाला नहीं है)। मैंने पूछा, बच्चों को सरकारी स्कूल में क्यों नहीं पढ़ाते। बोली, वो पढाई के लिये थोड़ी होते हैं! यह संसदीय क्षेत्र मुम्बई के एम् वार्ड में आता है, जहाँ का 50% मतदाता झोपड़ पट्टी में रहता है, जहाँ की शिशु-मृत्यु दर उप-सहारा अफ्रीकी देशों के बराबर है। मुम्बई में सरकार की मदद से चलने वाले मुम्बई महानगर पालिका के लगभग 1150 स्कूल खत्म किये जा रहे हैं। लेकिन इस चुनाव में, किसी भी राजनैतिक दल के लिये शिक्षा और स्वास्थ्य का बढ़ता निजीकरण मुद्दा नहीं है। यहाँ से आम आदमी पार्टी की मेधा पाटकर भी एक उम्मीदवार हैं।
ऐसे में आम-आदमी कि असल मुद्दों और ‘वैकल्पिक राजनीति’ कि बात कैसे होगी; समाजवादी व्यवस्था की स्थापना तो बहुत दूर की कौड़ी है, जिसका संविधान कि प्रस्तावना में देश की जनता से वायदा किया गया था, और पिछले 64 साल से जिसे अव्यवहारिक बताकर नाकारा जाता रहा है। भाजपा, कांग्रेस सहित अपने आपको समाजवादी और दालित पार्टी कहीं जाने वाली पार्टियों के लिये यह कभी भी यह मुद्दा नहीं रहा है। कम्यूनिस्ट पार्टियाँ भी इस सिद्धान्त से कब की भटक गयीं। कमाल की बात है, समाजवाद को जन-आन्दोलन के गर्भ से निकली आम-आदमी पार्टी (आप) और उसके क्रांतिकारी उम्मीदवारों ने भी नकार दिया।
वैसे, ‘वैकल्पिक राजनीति’ देश में तब नहीं आई, जब मीडिया ने हमे बताया। इसका सपना 1977 में, दिवंगत समाजवादी नेता, लोहिया के सहयोगी रहे, किशन पटनायक ने देखा था। बिहार आन्दोलन’ और आपातकाल के खिलाफ प्रमुख भूमिका निभाने के बावजूद उन्होंने उस समय जनता पार्टी के प्रयोग को ठुकरा दिया था। उनकी परिकल्पना थी: कई पार्टियों के जोड़ से एक नई पार्टी का गठन कर लेने से इस देश के ‘आम-आदमी’ कि दिशा और दशा नहीं बदलेगी; इस देश में जनांदोलन के गर्भ से एक नई राजनीति निकलेगी वो ‘वैकल्पिक राजनीति’ कहलाएगी। और, 18 साल के लम्बे प्रयास के बाद 1995 में अपने अन्य सहयोगियों के साथ मिल ‘समाजवादी जन परिषद’ बनाई, और उनकी म्रत्यु, वर्ष 2004, देश-भर के छोटे-बड़े जनांदोलनो और उसके कार्यकर्ताओं को, जिसमें मेधा पाटकर से लेकर अरुणा राय शामिल हैं, इसमें जोड़ने का प्रयास करते रहे।
किसी भी वैकल्पिक प्रयोग में लम्बा समय इसलिये लगता है क्योंकि उसमे एक नया सिद्धान्त प्रतिपादित करने की बात होती है, जिससे वो ‘अव्यवहारिकता’ और ‘अदृश्यता’ का शिकार रहता है। जैसे बिना आत्मा के मानव मृत समान है, वैसे ही किसी भी ‘वैकल्पिक’ प्रक्रिया से अगर हम उसका सिद्धान्त निकाल दें तो उसमें और स्थापित प्रक्रिया में कोई फर्क नहीं रह जाता है। वैसे ही, इस ‘वैकल्पिक राजनीति’ के कुछ मूल सिद्धान्त हैं- समाजवादी शासन व्यवस्था; वैकल्पिक आर्थिक और समाजिक नीति; वैकल्पिक विकास नीति और वैश्वीकरण की नीति का विरोध। लेकिन आम-आदमी पार्टी ने इन सभी मुद्दों को अपनी तथाकथित वैकल्पिक राजनीति में नकार दिया, इसे नई राजनीति तो कहा जा सकता है, लेकिन वैकल्पिक राजनीति नही। इसलिये, पूँजीवादी मीडिया ने उन्हें हाथों-हाथ लिया।
पिछले 25-30 साल से देश-भर में बुनियादी बदलाव को लेकर कम करने वाले मेरे जैसे कार्यकत्ता, नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद पिछले 15 साल से मीडिया की ‘आम-आदमी’ के मुदों के प्रति बेरुखी को झेल रहे थे। लेकिन हम सबको तब आश्चर्य हुआ, जब अचानक, रातों-रात मीडिया ने देश को सन्देश दिया- अन्ना आन्दोलन के रूप में दूसरी आजादी की लड़ाई शुरू हो गई है, आज का गांधी आ गया है। और, फिर आम आदमी पार्टी (आप) को रूप में एक क्रांतिकारी ‘वैकल्पिक राजनीति’ के जन्म की सूचना दी।
असल में अभी-तक के वैकल्पिक राजनीति के प्रयोग मीडिया की उपेक्षा का शिकार होते आए हैं। और इसलिये वो ‘अव्यवहारिक और अदृश्य’ बने रहे; जैसा कि अपने राजनैतिक गुरु ‘किशन पटनायक’ के समाजवादी जन परिषद के प्रयोग के बारे में आम-आदमी पार्टी को अंगीकार करते समय उनके आप के नीतिकार योगेन्द्र यादव ने कहा था- किशनजी का प्रयोग तो जिन्दगी ‘‘अव्यवहारिक और अदृश्य’ रहा; और, आम-आदमी पार्टी के पास राष्ट्रीय (मीडिया की दी) स्वीकार्यता है।
उनका कहना सही था। लेकिन, पूँजीवादी मीडिया और व्यवस्था को स्वीकार्य हो तभी हम ‘व्यवहारिक और दृश्य’ बनकर पूरे देश में स्थापित होंगे, यह बात किशनजी भी जानते थे। वो, अगर 1977 में जनता पार्टी कि सरकार में शामिल हो जाते, तो आज कही उनके नाम-जपुआ, जिसके पुच्छल्ले में उनका नाम जुड़ा होता।
लेकिन, जब मजबूरी के चलते ‘वैकल्पिक राजनीति’ और ‘स्थापित राजनीति’ के बीच भ्रष्टाचार से परे कोई फर्क ना बचे, तो फिर इस राजनीति को वैकल्पिक राजनीति’ कैसे कहेंगे! सिर्फ एक अम्बानी को भला-बुरा कहने से कुछ-खास बदलने वाला नहीं है। व्यापारिक ताकतें हमेशा चाहती हैं, आम-जनता का गुस्सा कभी उनके प्रति विद्रोह में ना बदले, ज्यादा से ज्यादा उसकी गलतियों का ठीकरा एक-दो सेनापति के सर पर फोड़ दी जाए। वैसे ही, हमें भले ही इस भ्रम में डाला जा रहा हो, कि सिर्फ बेईमान अम्बानी की कम्पनी आम-आदमी की लूट कर रही है। जबकि, सच्चाई यह है- बिजली हो या गैस, इसे अम्बानी सप्लाई करे या टाटा, या कोई और निजी कम्पनी, इससे वो सस्ती या महंगी होने वाली नहीं है।
ऐसे में ‘वैकल्पिक राजनीति’ लाने की लड़ाई अभी बाकी है।


