छप्पन इंच की छाती के नीचे दब गई बातचीत
छप्पन इंच की छाती के नीचे दब गई बातचीत
आखिरकार, वही हुआ जिसकी आशंका थी। भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद की गाड़ी स्टेशन से छूटने से पहले ही कैंसल हो गयी। इस्लामाबाद के हवाई अड्डे पर नई-दिल्ली के लिए उड़ान भरने की प्रतीक्षा कर रहा विशेष विमान प्रतीक्षा ही करता रह गया। दिन पर चली रस्साकशी के बाद, शनिवार को देर शाम पाकिस्तान के विदेश विभाग की ओर से यह एलान कर दिया गया कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, सरताज अजीज़ अपने भारतीय समकक्ष अजीत डोभाल के साथ साथ सोमवार को होने वाली बातचीत के लिए नई-दिल्ली नहीं जा रहे हैं। बहरहाल, इस बयान में बातचीत होते-होते आखिरी वक्त पर रद्द हो जाने के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराते हुए, यह भी कहा गया कि पाकिस्तान को यह फैसला इसलिए लेना पड़ा है कि भारत की विदेश मंत्री, सुषमा स्वराज द्वारा लगायी गयी शर्तों के आधार पर ‘बातचीत करने का कोई अर्थ ही नहीं था।’
और जैसाकि आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था, पाकिस्तान के उक्त निर्णय पर अपनी प्रतिक्रिया में भारत के विदेश विभाग के प्रवक्ता न सिर्फ जवाब में यह दावा किया कि बातचीत के लिए ‘‘भारत ने कोई पूर्व शर्त नहीं लगायी थी’’ बल्कि वह यह कहना भी नहीं भूले कि, ‘‘पाकिस्तान का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है।’’ दोनों देशों के विदेश विभाग के प्रवक्ताओं के दावों ने उसी सचाई की पुष्टि की है, जिसकी ओर इस बातचीत को लेकर करीब हफ्ते भर से जारी खींचतान के बीच, दोनों देशों के रिश्तों के कई जानकार पहले ही इशारा कर चुके थे। इन जानकारों के अनुसार, यह ऐसी बातचीत थी, जिससे अपने-अपने कारणों से, भारत और पाकिस्तान, दोनों की ही सरकारें बचना चाहती थीं। दोनों को अगर तलाश थी तो ऐसे बहाने की, जिससे बातचीत रद्द होने के फैसले की जिम्मेदारी दूसरे के सिर पर डाली जा सके। लेकिन क्यों? पड़ोसी के साथ समस्याओं पर बातचीत करना ही कॉमनसेंस का तकाजा है। फिर यह तो दो नाभिकीय पड़ोसियों के बीच बातचीत शुरू होते-होते फिर रुक जाने का मामला है। बाकी दुनिया को सफाई भी तो देनी पड़ेगी।
चंद महीने पहले रूस में उफा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ के बीच हुई मुलाकात और समझौते में, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच बातचीत का फैसला हुआ था। वास्तव में यह दो पड़ोसी देशों के बीच बातचीत का पिछले साल से रुका सिलसिला दोबारा शुरू करने का फैसला था। इस सिलसिले की अगली कड़िय़ों के तौर पर डीजीएमओ, सीमा सुरक्षा प्रमुखों आदि के स्तर पर वार्ताएं होनी थीं। वार्ताओं का स्तर उत्तरोत्तर ऊपर उठाते हुए, इस सिलसिले को अगले साल सार्क के शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पाकिस्तान जाने के स्तर तक ले जाया जाना था। लेकिन, फिलहाल तो यह प्रक्रिया रुक गयी है, हालांकि डीजीएमओ स्तर की प्रस्तावित वार्ताओं के सिलसिले में अब तक कोई फैसला नहीं लिया गया है। बहरहाल, जिस तरह यह बातचीत टूटी है और उसके लिए दोनों ओर से एक-दूसरे को दोषी ठहराने की कोशिशें की जा रही हैं, उसे देखते हुए जल्दी से बातचीत की गाड़ी चलने की संभावनाएं नजर नहीं आ रही हैं। यह दूसरी बात है कि जैसाकि कुछ टिप्पणीकारों का कहना है, मीडिया की नजरों से दूर, अगले महीने की संयुक्त राष्ट्र संघ के अपने दौरे के हाशिए पर, उफा की तरह दोनों प्रधानमंत्री एक बार फिर भी मिल सकते हैं।
दोनों प्रधानमंत्रियों की उफा की बैठक और उसमें बनी सहमति, इस पहलू से तो तार्किक भी थी और प्रत्याशित भी कि, दोनों देशों की बातचीत पिछले साल से बंद थी। याद रहे कि पिछले साल भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों की वार्ता इसी तरह ठीक आखिरी वक्त पर भारत ने, पाकिस्तान के विदेश सचिव के हुर्रियत नेताओं के साथ मुलाकात करने के ठीक उसी मुद्दे पर रद्द की थी, जो इस बार भी बातचीत रद्द होने का कारण बना है। अंतर सिर्फ इतना है कि इस बार, बातचीत से हटने का एलान औपचारिक रूप से पाकिस्तान की ओर से आया है।
वास्तव में यह मुद्दा एक बार फिर बातचीत की गाड़ी पटरी से उतार सकता है, यह तो तभी साफ हो गया था जब बाद में आए ख्याल के तौर पर, भारत की ओर से यह दोहराना शुरू हुआ था कि भारत, इस बतचीत के मौके पर अजीज़ का अलगाववादी हुर्रियत कान्फ्रेंस आदि जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों से मुलाकात करना पसंद नहीं करेगा। लेकिन, दूसरी ओर सरकार की ओर से ही खासतौर पर सीमा पर तनाव के संदर्भ में यह कहा जा रहा था कि ऐसी घटनाओं को बातचीत के फैसले के आड़े नहीं आने दिया जाएगा। इससे व्यापक रूप से यह संदेश गया कि संभवत: इस बार विदेश सचिवों के बीच बातचीत का नाटक नहीं दोहराया जाएगा।
लेकिन, बाद में जम्मू-कश्मीर अलगाववादी के नेताओं को पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से प्रस्तावित बातचीत के लिए नई-दिल्ली ही नहीं जाने देने के लिए, पहले श्रीनगर और फिर दिल्ली में नजरबंद किए जाने के जरिए इससे उल्टा संदेश दिया गया। और अंतत: नई-दिल्ली में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संवाददाता सम्मेलन में इसका एलान ही कर दिया कि पाकिस्तान को बातचीत में कश्मीर का मुद्दा न उठाने और अलगाववादी कश्मीरी नेताओं से नई-दिल्ली में पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के मुलाकात नहीं करने का वादा करे, वर्ना ‘‘बातचीत नहीं होगी।’’ इतना ही नहीं, उन्होंने पाकिस्तान को शनिवार की रात तक इस मामले में स्थिति स्पष्ट करने का अल्टीमेटीम भी दे दिया। यह दूसरी बात है कि इसके साथ वे यह जोडऩा नहीं भूलीं कि वह एनएसए स्तर की बातचीत के लिए कोई शर्त नहीं लगा रही थीं!
जाहिर है कि उफा प्रक्रिया के गतिरोध में फंसने में अचरज की कोई बात नहीं है। उल्टे, मोदी सरकार ने जिस तरह हर्रियत नेताओं के साथ मुलाकात को मुद्दा बनाकर, विदेश सचिव स्तर की वार्ता रद्द की थी, उसके बाद उफा में दोनों प्रधानमंत्रियों की बातचीत और बातचीत का सिलसिला दोबारा शुरू किए जाने के फैसले ने जरूर बहुत से लोगों को चोंकाया था। लेकिन, उफा घोषणा के फौरन बाद, जिस तरह पाकिस्तान के प्रति अपने कड़े रुख पर कायम रहने के सबूत के तौर पर, इस घोषणा में कश्मीर का जिक्र न होने और एनएसए स्तर की बातचीत में आतंकवाद की चुनौती पर ही चर्चा होने को नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा अपनी ‘जीत’ की तरह प्रचारित किया गया और जिस तरह इसकी प्रतिक्रिया में पाकिस्तान में हार्डलाइनरों ने तथा सेना ने नवाज शरीफ की सरकार पर दबाव बढ़ा दिया, इस गतिरोध की इबारत तो उसी ने लिख दी थी। शनिवार, 22 अगस्त की रात पाकिस्तान के विदेश विभाग की घोषणा ने तो उस पर बस मोहर लगायी है। अचरज नहीं है कि पाकिस्तान ने काफी अनिच्छा से ही बातचीत की तारीख के लिए मंजूरी दी थी और उसके फौरन बाद बातचीत के एजेंडा पर दोनों तरफ से खींचतान शुरू हो गयी थी। अंतत: हुर्रियत से बातचीत का मुद्दा वार्ता खारिज होने का बहाना बन गया।
यह बहस बेसूद है कि बातचीत से पहले पीछे कौन हटा। उतना ही निर्विवाद यह भी है कि दोनों पड़ोसियों के बीच बातचीत का सिलसिला चले और इसके रास्ते से विभिन्न स्तरों पर तनाव घटे तथा सहयोग बढ़े, इसी में दोनों देशों की जनता का हित है।
दुर्भाग्य से नरेंद्र मोदी की सरकार पाकिस्तान के साथ सलूक के मामले में छप्पन इंच की छाती के जिस हवाई घोड़े पर पिछले साल चढ़़ गयी थी, उससे उतरने का रास्ता अब तक नहीं खोज पायी है। ठीक इसी चक्कर में, विदेश सचिवों की वार्ता के मौके पर हुर्रियत से बातचीत की शर्त बनाकर और इस बार ना-ना करते हुए भी उसी शर्त को दोहराकर, उसने उफा से खुली संकरी गली को भी फिलहाल बंद कर दिया है। इस चक्कर में पाकिस्तान में जिस तरह, निर्वाचित सरकार के मुकाबले में अतिवादियों के हाथ मजबूत हो रहे हैं और जिस तरह अफगानिस्तान में, इस्लामी इस्टेट के कदमों की आहट सुनाई देने लगी है, उसके निहितार्थ भारत के लिए खतरनाक भी हो सकते हैं। लेकिन, शायद नरेंद्र मोदी की सरकार सब समझते-बूझते हुए भी, छप्पन इंच की छाती के हवाई घोड़े से उतर नहीं सकती है। आखिरकार उसके अपने कट्टरपंथी आधार को पुख्ता करने के लिए भी तो यह मुद्रा जरूरी है।
राजेंद्र शर्मा


