छुट्टा सांढ़ों को बैल बधिया बनाने का सही मौका!
छुट्टा सांढ़ों को बैल बधिया बनाने का सही मौका!
सलाम उन्हें जो नोएडा से बेखौफ दिल्ली को चल दिये पैदल जुल्मोसितम के खिलाफ!
सलाम उन्हें भी जो महाजनी पूंजी के खिलाफ लामबंद डालर की बोलती बंद कर रहे!
डटकर करें मुकाबला हकीकत का कि जेबकतरों, उठाईगिरों और जरायमपेशा गिरोहों से क्या डरना!
घरों, दफ्तरों से बाहर सड़क पर उतरकर देखें तो तनिक कैसे तेज बदलती है दुनिया!
छुट्टा सांढ़ों को बैल बधिया बनाने का सही मौका!
सलाम उन्हें जो नोएडा से बेखौफ दिल्ली को चल दिये पैदल जुल्मोसितम के खिलाफ!
सलाम उन्हें भी जो महाजनी पूंजी के खिलाफ लामबंद डालर की बोलती बंद कर रहे!
डटकर करें मुकाबला हकीकत का कि जेबकतरों, उठाईगिरों और जरायमपेशा गिरोहों से क्या डरना!
घरों, दफ्तरों से बाहर सड़क पर उतरकर देखें तो तनिक कैसे तेज बदलती है दुनिया!
कल शाम हस्तक्षेप पर नोएडा से दिल्ली तक के मार्च की रपट यशवंत और दूसरे साथियों की तस्वीर के साथ लगा दी थी अमलेंदु ने, तो फौरन उसे फोन लगाया। फोन लगा नहीं। कई बार लगाने के बावजूद नहीं लगा।
हम अपने डाक्साब से कह ही रहे थे कि पट्ठे ने स्विच आफ कर दिया और तभी अपने य़शवंत का फोन आ गया। जोश से लबालब।
सबसे पहले उसने खबर की लच्छीपुर मलेथी की लड़ाई हम जीत गये हैं दादा। उसने कहा कि हम लड़ ही नहीं रहे हैं, हम जीत भी रहे हैं दादा। सच मानिये कि दिल बाग बाग हो गया।
हम उन तमाम साथियों का शुक्र अदा करते हैं जो दड़बों से सड़क पर निकल आये हैं और हम यशवंत का कहा फिर दोहराते हैं कि हम लड़ ही नहीं रहे हैं, हम जीत भी रहे हैं।
मजीठिया मंच से कितनी खलबली मची है, देख लीजिये।
जनता तक कब हम पहुंच पायेंगे, यकीनन नहीं बता सकते हैं, लेकिन हमारी पत्रकारी बिरादरी अगर जाग जाये तो समझ लीजिये कि हमने फतह हासिल कर ली।
क्योंकि यह सूचना की लड़ाई है।
सूचना का अधिकार है लेकिन सूचनाएं हैं नहीं।
जैसे कायदे कानून हैं, कानून का राज नहीं।
जैसे संविधान है, लोकतंत्र सिरे से गायब है।
जन सुनवाई नहीं है।
राजनीति है लेकिन जनता का कोई मंच नहीं है।
सबसे बड़ा मसला यही है कि जनता तक सुचनाएं पहुंच नहीं पा रही है। सूचनाओं पर पहरा है। विचार नियंत्रक तालिबान सेनाएं मुश्तैद हर कहीं कि भूल से कोई ख्वाब न देखें। कहीं किसी कबंध को कोई चेहरा लग न जाये और कहीं से न निकले कोई चीख।
अगर हम हकीकत के सामने खड़ा कर सकें हर आदमी को चो निवेशकों की पूंजी से बने सारे के सारे ताश महल ढह जायेंगे यकीनन और महाजनी सभ्यता के तिलस्मी मजहब के तालिबानी शिकंजे से निकलकर जनता सबकुछ बदल देगी यकीनन।
हमने कल यशवंत से पूछा भी कि जिस सांप ने डंसा तुम्हें, वह तो खैर मर गया, सांप के उस कुनबे को क्या हुआ जो हम सभी को कहीं न कहीं, कभी न कभी डंस रहा है। वह बदमाश हंसता रहा।
हमने उससे कहा कि सर्पदंश से जो जिंदगी मिली है तुम्हें, उसे अब आम जनता के नाम कर दो। उसने कहा कि दादा हमने ऐसा ही कर दिया है।
हमने उससे कहा कि जो भी, जहां भी जनता के हकहकूक की बात कर रहा है, जो भी जहां भी जनता के हक हकूक की खातिर सड़क पर आ रहा है, उसे तन्हा हरगिज रहने नहीं देना है। कारवां बिखरे नहीं, अब जतन यही करना है।
दोस्तों, मदरिंडिया का गाना वह याद कीजियेः
दुनिया में हम आये हैं तो…
हकीकत से मुंह चुराने से मौसम हरगिज न बदलेगा और न थमेगा कोई जलजला। डटकर मुकाबला करें कि छुट्टा सांढ़ों को बैल बधिया बनाने का सही मौका।
कल यशवंत से कहा हमने कि सुबह टूटकर लिखता हूं..
मजा देखिये की सुबह से बत्ती गुल और जो हमने ढिबरी या मोमबत्ती की रोशनी में लिखना पढ़ना सीखा, अब कलम भी नहीं चलाते। उंगलियां चलाते हैं इन दिनों। उंगलियां भी बिन बिजली बेजान है। हम अब भी हालांकि पीसी सहारे हैं क्योंकि अब भी लैपचाप और स्मार्ट फोन से मुहब्बत हुई नहीं है।
हमारी मूसलाधार बमबारी से जिन्हें खास तकलीफ हैं कि हम कोई शौकिया लेखक कभी नहीं रहे हैं हालांकि बचपन के बछड़ा समय के भैंसोलाजी माहौल में हमने भी खुद को खूब लिखे हैं प्रेमपत्र। लेकिन जब अर्जियां, प्रेस बयान, परचे लिखने का सिलसिला शुरु हुआ, तब भी ठीक से दूध के दांत गिरे न थे। दुनियाभर के दरख्वास्त लिखने से ही लेखन की शुरुआत हुई हमारी और आज भी हम साहित्य नहीं, परचे ही लिख रहे है। जब भी जरुरी हुआ लिख दिया जाये परचा या निकाल दिया जाये बुलेटिन, हमारा लेखन कुल मिलाकर यही है।
कोई नया सिलसिला यह नहीं कि खूब लिख रहा हूं। फर्क इतना है कि छपता नहीं था सारा कुछ, दीखता नहीं था।
राजीव गांधी का शुक्रिया कि उनने तकनीक की खिड़कियां और दरवज्जे खोल दिये। हमारी उंगलियां चलने लगीं। अब हम किसी संपादक, प्रकाशक या आलोचक की मर्जी और मिजाज के गुलाम नहीं हैं और न हम किसी के दरवज्जे मत्था टेकते हैं। जब भी हकीकत से जहां भी टकराने की गरज हुई, तो लिखा और पोस्ट कर दिया रीयल टाइम में।
जहर को जहर से ही काटा जा सकता है।
अपना यशवंत सर्पदंश के बाद दिल्ली में धमाल कर नहीं रहा होता अगर जहरमोहरा उसकी नसों में इंजेक्शन की तरह पहुंचा न होता।
मुक्त बाजार का अगर यह डिजिटल इंडिया है तो इसी डिजिटल तकनीक से इस मुक्तबाजार के खिलाफ जंग लड़ने की काबिलियत होनी चाहिए।
तकनीक अगर हमें गुलाम बनाये हुए हैं तो जहर से जहर मारने की तरह तकनीक से तकनीक का मुकाबला हमें करना है।
वे अगर एक सौ पच्चीस करोड़ जनता को संबोधित कर सकते हैं हर भाषा में तो हमें भी वहीं करके दिखाना है।
पत्रकार बिरादरी तक सूचनाएं पहुंचने सो कोई सेंसरशिप रोक नहीं सकती और सत्ता इसीलिए इन दिनों हमारी बिरादरी पर मेहरबान है। अब हमें भी सीखना ही होगा कि जो हमारा इस्तेमाल कर रहे हैं, हम उनका भी जैसा चाहे खूब इस्तेमाल करें।
हमारी बिरादरी संप्रेषण के विशेषज्ञ हैं। विषयों के विशेषज्ञ भी हैं। जो जनता है, उसकी हम संतानें हैं। तो इस देश के खातिर, अपने मां बाप, भाई बहनों के खातिर, अपनी महबूबा के खातिर, उनके ख्वाबों के लिए, उनके हक हकूक के लिए मरमर कर जीने से बेहतर है कि डंके की चोट पर हम लड़ें क्योंकि सूचनाओं की लड़ाई हमसे बेहतर दुनिया की कोई सत्ता लड़ ही नहीं सकती।
हम मानते हैं कि सचमुच हम सच बताना चाहें तो दुनिया की कोई ताकत हमें सच बताने से रोक नहीं सकती।
आज की लड़ाई गोला बारुद की लड़ाई नहीं है दोस्तों, कब्र में दफन कर दी जा रही सच को रोशन करने की लड़ाई है यह दोस्तों।
इस काम में हमारी बिरादरी के जो लोग लाशों में तब्दील हो रहे हैं, सड़क पर जुल्मोसितम के खिलाफ आवाज लगाना ही काफी नहीं है क्योंकि हम करने को तो बहुत कुछ कर सकते हैं। हमें न बाहुबल और न धन बल आजमाने की कोई जरुरत है। हममें सो जो भी जहां हो, हाथ बढ़ायें वहीं से कि हम सारे लोग साथ साथ हों तो हम जमाना बदल देंगे और बदले हुए मौसम को भी बदल देंगे।
कातिलों के बाजुओं में उतना दम होता नहीं है कि हर सर को कलम करते चला जाये।
हम चाहें तो यकीनन इस कयामत के मंजर को, इस बिगड़ती हई फिजां के रंग को बदल सकते हैं।
मेरे दिवंगत पिता की सीख रही है कि स्वजनों के हक हकूक के लिए जो भी करना है, हमें ही करना है और किसी बहाने हमें उस जिन्नमेदारी से निजात पाने की कोशिश नहीं करनी है। काबिलियत न हो तो काबिलियत पैदा करनी है, दक्षता नहीं है तो दक्ष होना है, तकनीक नहीं है तो तकनीक इंजेक्ट करना है और भाषाओं और सीमाओं, अस्मिताओं के सारे दायरे तहस नहस करके इंसानियत का मुकम्मल भूगाल तामीर करना है।
हमारा लेखन कुल मिलाकर यही है। हम प्रिंट में आपके सर पर सवार नहीं होते हैं और न हम पाठ्यक्रम में अनिवार्य या ऐच्चिक हैं, हम जहां हैं, वहां आप चाहे तो पढ़ें और न चाहें तो न पढ़ें। चाहे तो खूब गरियायें और चाहे तो डिलीट या ब्लाक कर दें।
जो हमसे सहमत हैं, जो जनता के हकहकूक की लड़ाई में हमारे साथ हैं या हो सकते हैं, हम सिर्फ उन्हीं को संबोधित करते हैं।
पलाश विश्वास


