जनपथ-ये एनजीओ वाले जब तक रहेंगे, नशेड़ी खुलेआम घूमते रहेंगे- दिल्ली विधानसभा चुनाव पर ग्राउण्ड जीरो रिपोर्ट
जनपथ-ये एनजीओ वाले जब तक रहेंगे, नशेड़ी खुलेआम घूमते रहेंगे- दिल्ली विधानसभा चुनाव पर ग्राउण्ड जीरो रिपोर्ट
अभिषेक श्रीवास्तव की रिपोर्ताज-ये एनजीओ वाले जब तक रहेंगे, नशेड़ी खुलेआम घूमते रहेंगे- दिल्ली विधानसभा चुनाव पर ग्राउण्ड जीरो रिपोर्ट
नई दिल्ली (दिल्ली विधानसभा चुनाव पर ग्राउण्ड जीरो रिपोर्ट)। हस्तक्षेप के साथी पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव लगातार दिल्ली विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र दिल्ली और आस-पास घूम रहे हैं। उनकी पारखी नज़र आम आदमी का चेहरा और मनोभाव पढ़ रही है। दूसरी कड़ी में जनपथ-ये एनजीओ वाले जब तक रहेंगे, नशेड़ी खुलेआम घूमते रहेंगे…..
गाजि़याबाद के एक अनाम मुसलमान वोटर के मुंह से आम आदमी का नाम सुनकर मुझे कुछ अजीब सा लगा। मैं सीधा कनॉट प्लेस पहुंचा जहां मेरे पुराने मित्र सुलतान भारती मेरा इंतज़ार कर रहे थे। वहां बिग एफएम का एक चुनावी मजमा लगना था और सुलतान भाई ही उसे कोऑर्डिनेट कर रहे थे। आगे बढ़ने से पहले बता दूं कि सुलतान भाई एक स्थापित व्यंग्यकार हैं। तमाम पत्र-पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य नियमित छपते हैं। एक ज़माने में क्राइम रिपोर्टर हुआ करते थे और करीब डेढ़ दशक तक दिल्ली का संगम विहार उनका ठिकाना था। संगम विहार तब हत्याओं के लिए कुख्यात था। रोज़-ब-रोज़ वहां यूपी-बिहार के प्रवासियों और स्थानीय गुर्जरों के बीच झड़पें होती थीं। सुलतान भाई पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते उन मसलों को सक्रियता से निपटाते थे। उनके वहां रहते हुए कभी कोई साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति नहीं बनी। एक तरह से वे समुदाय की सर्वस्वीकार्य आवाज़ थे। उस वक्त रमेश बिधूड़ी जैसे नेताओं का उभार भी नहीं हुआ था। बाद में जब वे करीब डेढ़ दशक पहले संगम विहार से उठकर गोल मार्केट चले आए, तो वहां की सियासत बदली। नए-नए चेहरे आए। इसके बावजूद उनकी लोकप्रियता का आलम यह रहा कि आज भी कोई विवाद होता है तो पंचायती के लिए उन्हें बुलावा भेजा जाता है। पिछले ही साल राजनीति और अपराध पर केंद्रित उनके एक उपन्यास का लोकार्पण इंडियन लॉ इंस्टिट्यूट में जब हुआ, तो मैं वहां उनके चाहने वालों की भीड़ देखकर दंग रह गया था। रमेश बिधूड़ी, विजय जॉली से लेकर कांग्रेस और अन्य पार्टियों के स्थानीय नेताओं समेत पूरा तुग़लकाबाद, गोल मार्केट और संगम विहार उठकर चला आया था। करीब तीन घंटे चले इस कार्यक्रम में पांच सौ से ज्यादा लोग लगातार मौजूद रहे थे। बालमुकुंद सिन्हा जैसे बड़े और सम्मानित पत्रकार की अध्यक्षता में हुए इस लोकार्पण को देखकर हिंदी के किसी भी लेखक को रश्क़ हो आता।
बहरहाल, सुलतान भाई अपने मिज़ाज के मुताबिक वहां लोगों को इकट्ठा कर चुके थे। एक ओर मोहनसिंह प्लेस के ठीक सामने सड़क पार वाली मस्जिद में डेढ़ बजे की नमाज़ में आने वाले नमाज़ी थे तो दूसरी ओर उसके बगल के पीपलेश्वर काली मंदिर के बाहर कुछ लोगों का मजमा लगा था। नमाज़ के कारण कुछ देरी होने के चलते कुछ नमाज़ी लौट चुके थे, हालांकि मस्जिद के मुतवल्ली हाजी साहब वहीं टिके थे। वे कुछ बोलने में शरमा रहे थे। नई दिल्ली विधानसभा की समस्याओं पर उन्होंने बडी विनम्रता से कहा, "मैं क्या बोलूं... ये सब तो पॉलिटिशियनों के काम हैं। सब कुछ ठीक ही है। पारक भी बन गए हैं। बस बच्चों के खेलने की जगहें पारकों में बन जाएं तो अच्छा हो।" उनकी ज़बान से पता लगा कि वे कश्मीर से हैं। गिलगिट के रहने वाले हैं। यहां कनॉट होटल में एक टूर एंड ट्रैवल एजेंसी भी चलाते हैं। पीपलेश्वर मंदिर के पंडितजी की समस्या यहां के स्मैकिये और नशेड़ी थे। वे हाजी साहब की ओर देखते हुए बोले, "बताओ हाजी साहब, हम लोग पहले कितने आराम से रहते थे। ये जो आप मंदिर में ग्रिल देख रहे हो, इन्हीं स्मैकियों के कारण लगवाना पड़ा है। जब देखो तब कुछ न कुछ चुरा ले जाते हैं।" पंडितजी समस्तीपुर के निवासी हैं। बीस साल से इस मंदिर में झाड़ू-पोंछा मारते हुए पंडित बने हैं। पहले पीपल के नीचे पीपलेश्वर मंदिर बनाया, फिर धीरे-धीरे अपने रहने की भी जगह निकाल ली। उसके बाद सामने खाने के दो ठीहे और एक नाऊ को बसा दिया जिनसे किराया आता है। हाजी साहब उनकी बात सुनकर मुस्कराते रहे। पंडितजी बोले, "ये एनजीओ वाले जब तक रहेंगे, नशेड़ी खुलेआम घूमते रहेंगे।"
मैंने नज़र घुमाकर देखा, चारों ओर स्मैकिये हमेशा की तरह पसरे हुए थे। अच्छी धूप थी। उन्हें इस ठंड में और क्या चाहिए था। एक स्मैकिया बगल में दिलीप यादव के पेटिस कॉर्नर पर कुछ हल्ला मचाए हुए था। वह बार-बार दस रुपया मांग रहा था और दुकान वाला उससे बिखरे हुए चाय के कप साफ़ करने को कह रहा था। दूसरा स्मैकिया मेरे बगल में आकर बैठ गया और खुद से कुछ बात करने लगा। उसे कहीं से एक ब्रेड पकौड़ा हाथ लगा था। वह उसे खाने की वृहद् योजना बना रहा था। अचानक पहला स्मैकिया उड़ीसा हैंडलूम के सामने बैठी स्प्राउट खाती और चाय पीती सम्भ्रांत महिलाओं पर फट पड़ा, "आप लोग यहां चाय के कप फेंक कर गंदा करते हो?" उसकी बदकिस्मती से एक महिला पंजाबी निकली। वह चिल्लाने लगी, "भाग यहां से... सुबह-सुबह मेरा दिमाग मत खराब कर।" "मैं दिमाग खराब कर रहा हूं? दिमाग आपका खराब है जो सवेरे-सवेरे गंदगी फैला रहे हो।" महिला बोली, "भाई, मैं तो अभी चाय पी रही हूं। किसी और ने फेंका होगा। और तू कौन सा इंस्पैक्टर है जो चिल्ला रहा है? चल भाग यहां से।"
स्मैकिया कुछ बड़बड़ाते हुए सफाई करने लगा। उसने सारे गंदे कप बंटोरे और डस्टबिन में डाल दिए। फिर वह पेटिस कॉर्नर वाले के पास गया, जो इतनी देर से स्मैकिये और पंजाबी महिला की झड़प से मौज ले रहा था। उसने उसकी जेब में हाथ डाल दिया। दुकान वाले ने उसका हाथ झटका और दस रुपये निकाल कर उसे दे दिए।
दस रुपया पाते ही स्मैकिये की देह में अचानक कुछ हरकत हुई। उसने अपने चीथड़ी जींस के पीछे वाली पॉकेट में दस का नोट खोंसा और नारा लगाने की मुद्रा में एक कदम आगे बढ़ाकर और दूसरा कदम पीछे टिकाकर हवा में हाथ उछालते हुए पंजाबी महिला से बोला, "एक शेर सुनाऊं?" दुकानदार मुस्कराया। मेरे बगल वाला स्मैकिया ब्रेड पकौड़े की शिनाख्त चालू कर चुका था।
महिला बोली, "चल भाग यहां से...।"
स्मैकिया बोला, "कहो तो एक शेर सुना दूं... नहीं? चलो, सुना देता हूं...।"
फिर वो अपनी स्वाभाविक मुद्रा में आया और देशभक्ति का गाना गाने से पहले जिस तरह देह को ऐंठा जाता है, वैसा करते हुए चिल्लाकर बोला:
"दिल में अरमान थे कि सफ़र करें... क्या? सफ़र करें... दिल में अरमान थे कि सफ़र करें... सफ़र पर निकले तो मैदान मिले।"
और ऐसा कहते हुए वह काफी तेज़ी से पीछे की ओर मुड़ा जहां दुकानदार बैठा था। बोला, "क्या बॉस? सही है?" दुकानदार हंसता रहा।
"दिल में अरमान थे कि सफ़र करें... सफ़र में निकले तो सामने मैदान मिले / मैदान में एक तरफ़ हड्डियां थी, शमशान थे... क्या थे?"
दुकानदार बोला, "समसान"।
"सुनो फिर... मैदान में एक तरफ हड्डियां थीं, शमशान थे... (पंजाबी औरत की ओर देखते हुए) ऐ सफ़र करने वालों, तुम्हारी तरह हम भी तो कभी इंसान थे!"
"मैडsssम, हम भी इंसान थे। क्या?"
पंजाबी महिला दो और महिलाओं के साथ अब उठकर जाने को खड़ी हुई। मेरे बगल वाला स्मैकिया ब्रेड पकौड़े में दांत गड़ा चुका था। शायर स्मैकिया अचानक कहीं सब-वे में गायब हो गया जहां आदिवासी कला मेला लगा हुआ था। दुकानदार पहले की ही तरह मौज ले रहा था। मंदिर से एक आवाज़ मुझे काफी देर से पुकार रही थी। पता चला वहां समरेंद्रजी खड़े थे।
(दिल्ली विधानसभा चुनाव पर ग्राउण्ड जीरो रिपोर्ट)
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जनपथ- जाने दे… मुलायम भी जाओगो… इब तो आम आदमी की बारी है।


