जनसंहार के बाद चार दिन बीत गए। भारत के प्रधानमंत्री का कोई बयान या ट्वीट सामने नहीं आया।

क्या आदिवासी भारतवासी नहीं हैं? नए भारतीय राष्ट्रवाद की परियोजना में क्या उनकी इतनी भी जगह नहीं कि रस्मी कड़ी निंदा ही कर दी जाए?

क्या दस जानों की इतनी भी कीमत नहीं कि मुख्यमंत्री से एक रिपोर्ट मंगा ली जाए?

बक़ौल टाइम्स नाउ 32 ट्रैक्टरों पर भरकर 200 लोग आए थे। अंधाधुंध गोलियां चलाई।

भाकपा माले के जांच दल की रपट के मुताबिक जमीन पर गिर कर तड़प रहे ज़िंदा बच गए लोगों को लाठियों से कुचल कर मार डाला। तमाम अधिकारियों ने फोन बंद कर दिए। पुलिस हत्यारों के लौट जाने के बाद आई।

गिरफ़्तार केवल 24 लोग हुए हैं। बाकी 176 हत्यारे कहाँ हैं?

भारत के प्रधानमंत्री की विकट चुप्पी उन्हें बच निकलने का अवसर दे रही है।

अगर भारत के लोकतंत्र का अपने आदिवासियों के साथ यही सलूक है तो किस मुंह से हम उन्हें इस लोकतंत्र में आस्था बनाए रखने के लिए कहते है!

(प्रोफेसर आशुतोष कुमार की एफबी टिप्पणी)