जनांदोलनों में चिंतन का दौर

पिछले दो दशकों में पहली बार देश के जनांदोलनों में चिंतन और अहसास का दौर चल रहा है! चिंतन है- बुनियादी बदलाव की लड़ाई की खोती सार्थकता को दोबारा खोजने का। यह समझने का, कि लोगों को राहत दिलाने के लिए नए कानूनों को बनाने; सुधारने और; उसके बेहतर क्रियान्वयन से काम नहीं चलेगा; जैसे: भूमि अधिग्रहण कानून; पुनर्वास नीति; सूचना का अधिकार कानून; वन अधिकार कानून; शिक्षा का अधिकार कानून; भोजन का अधिकार कानून; आदि से काम नहीं चलेगा। वैसे भी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन सारे कानूनों को निष्क्रिय करने में लगे हैं। साथ ही, वो न्याय व्यवस्था के सर्वोच्च पद पर बैठे लोगों को खुले-आम यह ताकीद कर रहे हैं कि वो सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्त्ता से प्रभावित न हों। यानी व्यवस्था में दमन से बचने के जो थोड़े बहुत सुराख़ हैं; अब वो भी बंद कर दिए जाएंगे।
वहीं हालात यह हैं: पिछले 20 सालों के वैश्वीकरण प्रेरित आर्थिक नीतियों के चलते: लगभग तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। छतीसगढ़ जैसे राज्य में आदिवासियों के खिलाफ गृह युद्ध से जैसे हालात बनाए हुए हैं। बाकी राज्यों में भी आदिवासियों का अस्तित्व खतरे में है। शिक्षा, स्वास्थ्य सब का बाजारीकरण तेज़ी से बढ़ रहा है- जनता हलकान है।
हलकान जनता ने भ्रष्टाचार के खिलाफ चले अन्ना के आंदोलन और फिर आम आदमी पार्टी के उभार में एक आशा की किरण देखी थी। हालाँकि, इसमें ना तो नई आर्थिक नीतियों की खिलाफत और ना ही ‘बुनियादी बदलाव’ की सोच और वैचारिक आधार था। इसलिए यह दोनों ही प्रयोग जल्द ही अपनी-अपनी भूमिका खो बैठे। इससे, जहाँ एक ओर संकट को गहराया है, वहीं इसने जनांदोलनों को यह आशा भी प्रदान की है कि हजारों-लाखों युवा आज भी बदलाव के आंदोलन की तलाश में हैं। जरूरत सिर्फ यह है, उसे यह समझाया जाए कि इन हालातों को कोई महानायक आकर नहीं बदलेगा, बल्कि उसके लिए व्यवस्था में बुनियादी बदलाव लाना होगा; जिसके लिए एक वैचारिक आंदोलन लाज़मी है।
इस समय, चिंतन की अनेक समानांतर प्रक्रिया इस समय देश में चल रही हैं। विगत दिनों, ऐसा ही एक अवसर था, जब 20 अप्रैल को समाजवादी कार्यकर्त्ता दिवंगत सुनील की पहली और राजनरायण की पच्चीसवीं पुण्य तिथि पर म. प्र. के एक आदिवासी गाँव केसला में, (जहाँ इन दोनों के साथ स्मिता ने अपनी जिन्दगी बदलाव के एक प्रयोग को दी) देश के कई प्रमुख जनसंगठनों के प्रतिनिधि जुड़े। जिसमें थे, समाजवादी जन परिषद, नर्मदा बचाओ आंदोलन, भारत जन आंदोलन, लोक समन्वय समीति महाराष्ट्र, किसान संघर्ष समिति, राष्ट्रीय शिक्षा अधिकार मंच, जागृत दलित आदिवासी संगठन, बरगी बांध विस्थापित और प्रभावित संघ, किसान आदिवासी संगठन, किसान मजदूर संगठन, श्रमिक आदिवासी संगठन आदि जन आंदोलनों के प्रतिनिधिगण।
बैठक में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि अलग-अलग जनांदोलन समस्या को उसी तरह से अपने-अपने नजरिए से देख रहे हैं, जैसे आँख पर पट्टी बंधा हर व्यक्ति हाथी को अपने तरह से देखता है। इसलिए सिर्फ भूमि-अधिग्रहण बिल या फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य की बहस भर से काम नहीं चलेगा। बल्कि व्यवस्था में बुनियादी बदलाव के लिए एक देश व्यापी उर्जा का निर्माण करना होगा। अंत:, इस हेतु देश भर के जनसंगठनों, जो विभिन्न विचारधारा से आते हैं, के बीच एक लम्बी विचार मंथन की प्रक्रिया शुरू करने का तय किया गया। इस बैठक में प्रारंभिक चर्चा के लिए एक ड्राफ्ट मसौदा पेश किया गया, जिसका नाम, ‘केसला मसौदा’ रखा गया। इसके कुछ अंश यहाँ रख रहे हैं।
वर्तमान राजनैतिक परीस्थिति
इस समय, आम-जनता हलाकान है और; वो एक अदद महानायक की तलाश में है। व्यवस्था उसके सामने नित नए-नए महानायक पेश कर रही है। कभी वो राहुल गांधी को पेश करती है, तो कभी नरेन्द्र मोदी को, और दोनों नहीं जमे तो, अरविन्द केजरीवाल को। सब एक ही बात कहते हैं- मैं ज्यादा ईमानदार हूँ; और इस व्यवस्था का बेहतर संचालन कर सकता हूँ। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यू. पी. ए. सरकार ने जनता को राहत देने के लिए अनेक सामाजिक सरोकार के कानून लाई, लेकिन उसके बाद भी जनता की परेशानी कम नही हुई। ऐसे में, जब नई आर्थिंक नीतियों पर सवाल उठाना लाजिमी था, तब व्यवस्था ने अरविन्द केजरीवाल को एक महानायक के रूप में पेश कर जनता को यह बताया - असली समस्या नई आर्थिक नहीं! बल्कि, कांग्रेस का भ्रष्टाचार है! और, उस मुद्दे को देश के स्तर पर नरेन्द्र मोदी ने भ्रष्टाचार को मुद्दा भुनाया। इस तरह, जब कांग्रेस की आर्थिक नीतियों पर रोक लगना चाहिए था, तब उसे और तेज़ी से लागू करने के लिए नरेन्द्र मोदी आ गए। इस तरह, अब नई आर्थिक नीति वैश्वीकरण, निजीकरण और विकास की वर्तमान धारा पर सवाल उठाना बंद हो गए हैं!
असल में, सत्ता संचालन करने वाला समूह हमेशा यही सुनिश्चित करता है – कभी भी व्यवस्था पर सवाल ना उठे। जब –जब ऐसा होता है, वो एक नया महानायक खड़ाकर सवाल की दिशा ही मोड़ देता है। वो यह सुनिश्चित करता सारा दोष कारिंदे पर। आज के संदर्भ में यह नई आर्थिक नीति से जुड़ा मामला है।
विकास के ढोल की पोल
विकास का जो मॉडल पूरी दुनिया ने अपनाया, उससे या तो चीन और रूस की तरह राज्य का पूंजीवाद खड़ा हुआ; या अमेरिका का निजी पूंजीवाद। यह अलग बात है, अब चीन और रूस भी निजी पूंजीवाद की तरफ तेजी से पींगे बढ़ा रहे है। हमारे महात्मा गांधी से मतभेद हो सकते है; लेकिन वैकल्पिक विकास जिस बुनियादी परिकल्पना को गांधी ने रखा था, उसमें ही पूंजीवाद व्यवस्था की जवाब छुपा है, या नहीं इसे समझना होगा?
वैकल्पिक विकास की राजनीति का झगड़ा आजादी के समय से चल रहा है। गांधी जानते थे कि अंग्रेजों की बजाए हमारे हाथ में सत्ता आने से ‘असली आजादी’ नहीं आएगी – क्योंकि असली गुलामी हमारी सोच में है! उन्होंने 1909 में लिखी हिन्द स्वराज्य में कहा: हम अंग्रेजों को भगाना तो चाहते है, लेकिन उनकी व्यवस्था रखना चाहते है; यह उसी तरह हुआ: जैसे शेर को भगाकर उसका स्वभाव रखना! इसलिए आज़ादी के आन्दोलन के दौरान उन्होंने सिर्फ अंग्रेजों के शासन की खिलाफत नहीं की, बल्कि अंग्रेजों से जुदा विकास और शासन संचालन की दिशा में लगातार प्रयास किए। उन्होंने इस बारे में 5 अक्टूबर 1945 को नेहरु को एक लम्बा पत्र लिखा था। लेकिन, नेहरु ने एक-दो मेल-मिलाप के बाद इस बहस को आगे बढ़ने नहीं दिया। और आज़ादी के बाद, व्यवस्था में अंग्रेजों कि सोच बरक़रार रखी। भारत की मेहनतकश जनता में अपने स्वभाविक कौशल थे; और है। जरूरत थी, उस कौशल को नए तरीकों से तराशने और जातिगत विषमता से निकालने की। लेकिन 95% जनता के अपने कौशल को ना सिर्फ नाकारा गया, बल्कि उन्हें यह अहसास करने को मजबूर कर दिया कि, उनकी कला कौशल और समझ कि कोई कीमत नहीं है।
नेशनल सेम्पल सर्वे कि ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, अभी भी हमारे देश में मात्र 7.3 % युवा ही कालेज तक कि पढाई कर पाते हैं। यानी पिछले 66 सालों कि इस विकास यात्रा में, 100 में से 7 युवा ही तथाकथित विकास की योग्यता पर खरे उतरते हैं। आज अदालतों में तीन करोड़ से उपर मामले लंबित हैं; और नीचे लेकर उच्चतम नयायालय तक लोक अदालत के दम पर इन केसों को थोक में निपटा रहे हैं। यानी आधुनिक न्याय व्यवस्था से न्याय का दावा भी खोखला साबित हुआ। आधुनिक मेडिकल साइंस की हालात यह है कि यहाँ यह उपलब्ध है, वहां लोग इसके दुष्परिणामों को समझ वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति की तरफ बढ़ रहे हैं। और जहाँ यह थी- गांवों में वहां इसे खत्म कर दिया और वहां डाक्टरों की 75% कमी है।
वैश्वीकरण का दौर
इसके बाद 1990 का दशक आते-आते, वैश्वीकरण और निजीकरण को विकास के जिन्न के रूप में पेश किया गया लेकिन असलियत यह है: इससे उल्टा हालात बिगड़े है: तीन लाख किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए। आज भी जितने लोग संगठित छेत्र में रोजगार में होते ही, उससे ज्यादा बेरोजगार है; केंद्र सरकार के श्रम और रोजगार मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार: जनवरी 2013 में जहाँ 2 करोड़ 95 लाख 50 हजार लोग संगठित क्षेत्र में रोजगार में थे, वहीं 4 करोड़ 47 लाख 90 हजार बेरोजगार थे। वहीं, अब तक तीन लाख किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए, वहीं 21 लाख 42 हजार 352 करोड़ रुपए काले धन के रूप में विदेश गया। हम समान स्कूल प्रणाली कि व्यवस्था को और मजबूत करने कि बजाए हम धीरे-धीरे अमीरों, मध्यमवर्गीय और गरीबों के अलग स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं।
देशव्यापी आन्दोलन
असल में, किसी देश में उस काल और समय में हुई राजनैतिक-सामजिक उथल-पुथल ही उस समय के नौजवानों को बुनियादी-बदलाव के काम में खींचती हैं। आजादी के आन्दोलन में इसी कारण इतने लाखों युवा कूदे – चाहे वो अहिंसक आंदोलन हो, या हिंसक। उस दौरान पैदा हुई उर्जा 1950 और 60 के दशक तक प्रेरणा देती रही; इस उर्जा का ही परिणाम था कि उस समय साम्यवादी और समाजवादी राजनीति में उफान के साथ, तेलंगाना और नक्सली आन्दोलन भी देश में उभरा। इसके बाद इमरजेंसी के दौरान जो उर्जा पैदा हुई उससे 80 और 90 के दशक में हमारे जैसे हजारों कार्यकर्ताओं को बुनियादी बदलाव के आन्दोलन में कूदने की प्रेरणा दी।
इस मसौदे और ऐसे अन्य मसौदों पर आगे बहस के कई लम्बे दौर चलाकर जनांदोलनों ने अपनी स्थानीय लड़ाई से उपर उठ वैकल्पिक व्यवस्था को स्थापित करने के लिए अपनी एक साझा समझ और ‘वैकल्पिक राजनीति, तय करना होगी – जो जरूरी नहीं है चुनावी हो- और उसके बुनियादी आयामों पर एक देशव्यापी आंदोलन छेड़ना होगा। और अपनी छोटी-छोटी लड़ाई को इस व्यापक लड़ाई से जोड़ना होगा। लेकिन यह सब संभव होगा जब जनांदोलन अपने व्यक्तिवाद और वैचारिक वाद के आग्रह को छोड़ इस चिंतन के दौर को आगे बढ़ाएंगे।
अनुराग मोदी