जब ख्वाबों पर हो पहरा, तो भूख क्या और प्यास क्या

फिर भी न कहिये कि सब्र कर कि इंतहा हो गयी सब्र की

उस आखिरी इंसान से डरियो रे बाबा, जिसे तुम्हारी कयामतों का खौफ नहीं है

सुंदर लाल बहुगुणा अब पहाड़ों पर नहीं जाते क्योंकि उनकी बूढ़ी आंखों ने ग्लेसियरों को रेगिस्तान में बदलते देखा है। चीन में भूकंप के बाद एक दो नहीं, चार चार हजार झटके महसूस किये गये। तो केदार जलआपदा और नेपाल भूकंप का सिलसिला अभी खत्म हुआ नहीं है।

जनपद जनपद डूब है और पीने को पानी मयस्सर नहीं कि हर नदी कैद है। हर नदी बिकी हुई बांदी हैं इन दिनों उनकी जो जहर के सौदागर है और उनका कारोबार खुल्ला मुक्त बाजार मेकिंग हैं।

सच कहना मना है और राजा नंगा है कि पहने हैं कितने लाख करोड़ का शूट, कहना मना है। कि सच का कोई नक्शा बना नहीं है मुकम्मल जो सत्ता के गलियारों में बगुला नुमाइंदो के जिम्मे है कि क्या कहें न कहें, क्या लिखें न क्या न लिखें।

बिररंची बाबा की किरपा है कि अपशब्दों के खिलाफ बजरंगियों को दे दिया फतवा उनने। बजरंगियों को आजादी है कि किसी को भी कभी भी मुल्क बदर कर दें फौरन वैसे ही जैसे कि बाजार के सांढ़ों और अश्वमेध के घोड़ों को मुकम्मल आजादी है कि खेतों खलिहानों को आग लगा दे और पानियों में उगाये जहर की फसलें।

कमबक्त जमाने में इश्क का भी क्या करें कि हो गयी है दिल की बीमारी और आखिरी इंसानियत की जमान से हो गयी मुहब्बत हमें, दुनिया की सारी खापें हमारे खिलाफ, लेकिन क्या करें कि सच कहने की भी आदत बेहद बुरी है। ये वो जाम है, जो होंठों से बहता है सरेआम कि जूते बरसते हैं फिजां से जहां इन दिनों आग लगा दी है इंसानियत के तमाम दुश्मनों ने। कत्लगाह में हाथ पांव बंधे हैं और तलवारे चमक रही हैं, बिजलियां कड़क रही हैं कि अब भी हम सलामती की दुआ मांग रहे हैं।

मीडिया का काम खबरों की जूठन के साथ सत्ता के रंग परोसना नहीं है न ही झूठ का इंद्रधनुष सजाना है। मुकम्मल जनजागरण, जनसुनवाई का ताकाजा है यह मिशन। जब ख्वाबों पर हो पहरा, कहीं से कोई सच की खिड़की खुल नहीं रही, सोचने समझने की ख्वाहिशे हो गयी हों खत्म। तब मंजिल हमारी बेहद मुश्किल है। आग का दरिया है और डूबकर जाना है। इस सफर में हमसफर मिलेंगे बेहद कम, जो भी हैं, उनके दम पर लड़ाई हमभी लड़के रहेंगे। सिर्फ जो सही समझें हमारा इरादा, उनका हाथ हों हमारे हाथों में।

अब बिना इंतजार अपीलें जारी करने का सिलसिला शुरु किया जाये। कोई साथ आये या नहीं, कबीर कह गये अकेले बाजार के खिलाफ बाजार में खड़े होने के लिए। जिसे घर फूंकना हो आपना, वे आयें हमारे साथ।

इकोनामिक टाइम्स सनडे ने सिमटते जलस्रोतों पर आज खूब चर्चा की है, जिस तरफ हम आपका ध्यान आकर्षित करने का नाकाम कोशिश करते रहे हैं अरसे से तो

आज रविवारी जनसत्ता का कवर हैः

भूख है तो सब्र कर

दुष्यंत कुमार की याद फिर

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ

आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ ।

मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह

ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ ।

गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही

पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बददुआ ।

क्या वज़ह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ

लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुँआ ।

आप दस्ताने पहनकर छू रहे हैं आग को

आप के भी ख़ून का रंग हो गया है साँवला ।

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो

जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुँआ ।

दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो

उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ ।

इस शहर मे वो कोई बारात हो या वारदात

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ ।

पीछे जो छूट गया, वो हिमालय की गोद है

बाकी उम्र सिर्फ टादों के साये हैं

बंद गलियों मे कैद है नैनीताल

और उस झील की मछलियां

न जाने किस किस मेज पर

परोसी जाती हैं इन दिनों

अब इस जन्नत के नर्क में

कोई आशियाना नहीं

फरेब है मुकम्मल हर दिशा

अंधेरे में फिर भी झिलमिलाते

उस झील में रोशनी के सितारे

जब ख्वाबों पर हो पहरा, तो भूख क्या और प्यास क्या

फिरभी न कहिये कि सब्र कर कि इंतहा हो गयी सब्र की

उस आखिरी इंसान से डरियो रे बाबा, जिसे तुम्हारी कयामतों का खौफ नहीं है
पलाश विश्वास