जाति भारत में, सेमिनार नार्वे में
जाति भारत में, सेमिनार नार्वे में
नार्वे में फोकस इण्डिया,
ओस्लो विश्वविद्यालय में दलित राजनीति पर सेमीनार
शेष नारायण सिंह
ओस्लो विश्वविद्यालय में फोकस इंडिया के तहत आयोजित ‘भारत में जाति‘ विषय पर आयोजित सेमीनार सितम्बर के दूसरे हफ्ते में संपन्न हो गया। एकेडमिक आयोजन था ज़ाहिर है इससे उम्मीद की जानी चाहिए कि यह भविष्य की राजनीति के लिए मैटर उपलब्ध करायेगा लेकिन सेमीनार का स्तर ऐसा नहीं था जिस से ऐसी कोई उम्मीद की जा सके। कहने को सेमीनार जाति पर आयोजित किया गया था लेकिन सारी बात मूल रूप से दलित राजनीति के आस पास ही मण्डराती रही। जो दूसरा अजूबा था वह यह कि कुल दस पर्चे पढ़े गये जिसमें से छह पर्चे बंगाल के दलितों के इतिहास भूगोल पर आधारित थे। दो उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति की बात कर रहे थे, एक पर्चा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के दलित छात्रों की राजनीति पर केन्द्रित था और एक परचा ऐसा था जिसको अखिल भारतीय रंग दिया जा सकता है। डॉ. अम्बेडकर को दलित राजनीति के सिम्बल के रूप में स्थापित होने की प्रक्रिया का विश्लेषण किया गया था, यह पर्चा नार्वे के बर्गेन विश्वविद्यालय के प्रो. दाग एरिक बर्ग था और प्रो. बर्ग की वार्ता से साफ़ नज़र आया कि उन्होने अपने विषय की गम्भीरता के साथ न्याय किया है।
इस सेमीनार का पहला पर्चा न्यूजीलैंड के विक्टोरिया विश्वविद्यालय के डॉ. शेखर बंद्योपाध्याय ने प्रस्तुत किया। देश के बँटवारे के साथ साथ बंगाल की राजनीति में अनुसूचित जातियों की राजनीति और उससे जुड़ी समस्याओं का विषद विवेचन किया गया उन्होंने अपनी तर्कपद्धति से साफ़ कर दिया कि यह धारणा गलत है कि बंगाल में वर्ग की अवधारणा इतनी ज़बरदस्त जड़ें जमा चुकी है कि जाति पार अब राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श होना बेमतलब हो गया है। उन्होंने 2004 के मिड डे मील विवाद के हवाले से बताया कि कई जिलों में ऊँची जाति के लोगों ने अपने बच्चों को वह खाना खाने से रोक दिया था जिसे दलित जातियों के लोगों ने पकाया था। उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि देश के विभाजन के बाद अनुसूचित जातियों के संगठित आंदोलन पर ब्रेक लग गया था और इसीलिये यह मिथ पैदा किया जा सका कि बंगाल में जाति का कोई मतलब नहीं होता। अविभाजित बंगाल में संगठित दलित आंदोलन में दो वर्गों की प्रमुखता थी नामशूद्र और राजबंशी नाम से दलितों की पहचान होती थी। नामशूद्रों का इलाका पाकिस्तान में चला गया और जब वे 1950 के बाद भारत आने लगे तो उनके नेताओं का ध्यान मुख्य रूप से उनके पुनर्वास पर केन्द्रित हो गया और जाति का सवाल दूसरे नम्बर पर चला गया। वे पश्चिम बंगाल में शरणार्थी के रूप में पहचाने जाने लगे उनको फिर से बसाने की समस्या मूल हो गयी, बाकी बातें बहुत पीछे छूट गयीं। जब उनकी आबादी ही तितर बितर हो गयी तो संगठित होने की बात बहुत दूर की कौड़ी हो गयी।
शेखर बंद्योपाध्याय के पर्चे में दलितों और मुसलमानों के जिस सहयोग को पूर्वी बंगाल की राजनीति का आधार माना जाता था, उसके तहस-नहस होने की बात को भी समझाने की कोशिश की गयी है। उनका निषकर्ष यह है कि आज भी दलितों की जाति आधारित पहचान का मुद्दा जिंदा है और तृणमूल कांग्रेस ने दलितों के मूल नेता, पी आर ठाकुर के एक बेटे को साथ लेकर चुनावी राजनीतिक सफलता हासिल की है।
सेमीनार का दूसरा पर्चा एमहर्स्ट कॉलेज के द्वैपायन सेन का था। उन्होंने पश्चिम बंगाल की राजनीति से जाति के सवाल के गायब होने की बौद्धिक व्याख्या करने की कोशिश की और दावा किया कि विभाजन पूर्व बंगाल की दलित राजनीति का बड़े नेता जोगेन्द्र नाथ मंडल की राजनीतिक महत्वाकाँक्षा के हवाले से पश्चिम बंगाल में दलित राजनीति के विभिन्न आयामों की पड़ताल की गयी है लेकिन उनका दुर्भाग्य था कि उनके ठीक पहले प्रो. शेखर बंद्योपाध्याय का विद्वत्तापूर्ण पर्चा पढ़ा जा चुका था। इसलिए उनके पूरे भाषण के दौरान ऐसा लगता रहा कि डॉ द्वैपायन सेन या तो पहले पर्चे की बातों को दोहरा रहे हैं और या तो पूरी तरह से रास्ता भटक गये हैं। दलित जातियों की राजनीति को बैकबर्नर पर रखने के लिये उन्होने कभी कांग्रेस तो कभी कम्युनिस्टों को ज़िम्मेदार ठहराते हुये निर्धारित बीस मिनट का समय पार कर लिया, यही उनके पर्चे की सबसे बड़ी उपलब्धि नज़र आयी।
नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की राजनीति में दलितों की भूमिका पर केंद्रित लिथुआनिया के एक विश्वविद्यालय की विद्वान क्रिस्टीना गार्लाइते ने पर्चा पढ़ा। उन्होने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पहचान की राजनीति के विभिन्न स्वरूपों की चर्चा की। कुछ समय तक यूनिवर्सिटी के अन्दर चली दलित राजनीति की गतिविधियों का बहुत ही अच्छा वर्णन क्रिस्टीना ने प्रस्तुत किया। जे एन यू के दलित प्राध्यापकों की राजनीति की परतों का भी बिलकुल सटीक विश्लेषण किया और यह भी लगभग साबित कर दिया कि कैम्पस में मौजूद दलित छात्र तो बहुत कम समय के लिए आते हैं लेकिन यहाँ जमे हुए प्राध्यापक उनको अपनी मुकामी राजनीति को चमकाने के लिये कैसे इस्तेमाल करते हैं। बिना नाम लिये हुये उन्होंने राष्ट्रीय राजनीतिक दलों, कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, सीपीआई ( एमएल ) के जेएनयू कैम्पस में मौजूद एजेंटों की भी अच्छी तरह से निशानदेही की। हालाँकि क्रिस्टीना ने अपने पर्चे में यह बातें शिष्टाचार की सीमा में रहकर ही की थीं, लेकिन जब श्रोताओं में मौजूद जे एन यू की कुछ पूर्व छात्राओं ने बात को आगे बढ़ाया तो कई परतें खुल गयीं। साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों की जो पोल जेएनयू की बीफ एंड पोर्क फेस्टिवल ने खोली थी वह भी एक बार सेमीनार के कक्ष में जिंदा हो उठा और यह भी सामने आ गया कि किस तरह से कोर्ट के दखल के बाद ही इस फेस्टिवल को रोका जा सका था। उस्मानिया विश्वविद्यालय में हुये उपद्रव का भी ज़िक्र हुआ और दलित राजनीतिक अस्मिता की एक अहम पहचान के रूप में किस तरह से इस कार्यक्रम को जेएनयू कैम्पस में पहचाना गया। इस फेस्टिवल ने किस तरह से विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से वफादारी रखने वाले लोगों को एक्स्पोज़ किया, यह भी चर्चा के दौरान सामने आया।
अमरीका के विश्वविख्यात शोध केन्द्र एमआईटी से आये अक्षय मंगला ने सर्वशिक्षा अभियान को उत्तर प्रदेश में शिक्षा और जाति की राजनीति से जोड़ने की कोशिश की और लगा कि उन्होने अपने पर्चे को बिना तैयारी के ही पेश कर दिया है। उन्होंने सर्वशिक्षा अभियान जैसे केन्द्र सरकार के आयोजन को इस तरह से पेश किया जैसे वह उत्तर प्रदेश सरकार का ही कार्यक्रम हो। एक बार भी उन्होंने इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि यह केन्द्र सरकार की योजना है। सर्व शिक्षा अभियान बहुत बड़े पैमाने पर हेराफेरी का कार्यक्रम है, इसका भी ज़िक्र नहीं हुआ। उन्होंने सहारनपुर जिले के एक गाँव और उसके आस पास के कुछ गाँवों के आंकड़ों के सहारे कुछ साबित करने की कोशिश की लेकिन अंत तक समझ में नहीं आया कि बहुत बड़े पैमाने पर सामान्यीकरण करने की उनको क्या जरूरत थी। उन्होंने दावा किया कि शिक्षा के क्षेत्र में जो नौकरशाही सक्रिय है उसमें ब्राह्मणों का एकाधिकार है। इस नौकरशाही में उन्होंने ग्राम प्रधान से लेकर शिक्षामंत्री तक को शामिल बताया जब उनसे पूछा गया कि पंचायत चुनावों में और सरकारी नौकरियों में जो 50 प्रतिशत का रिज़र्वेशन है उसके बाद भी ब्राह्मणों का एकाधिकार कैसे बना हुआ है, तो वे बात को टालने की कोशिश करते नज़र आए। हालाँकि इसके पहले ही उनकी बुनियादी अवधारणा चकनाचूर हो चुकी थी। यह बात उनको भी मालूम है कि इतने जागरूक श्रोता वर्ग के बीच कोई असंगत बात कहकर पार पाना कितना मुश्किल होता है वे यह भी नहीं स्पष्ट कर पाये कि केवल सहारनपुर के एक उदाहरण से वे पूरे उतर प्रदेश के बारे में कोई भी बात इतने अधिकारपूर्वक कैसे कह सकते हैं?
अगला पर्चा नार्वेजियन इंस्टीट्यूट आफ इंटरनैशनल अफेयर्स की डॉ. फ्रांसेस्का येंसीनियस का था। उनके पर्चे का टॉपिक था, ‘अनुसूचित जाति के नेताओं के बारे में धारणा : उत्तर प्रदेश से सर्वे साक्ष्य‘। कानपुर देहात के जिले के रसूलाबाद और औरैया जिले के औरैया विधानसभा क्षेत्रों के कुछ आँकड़ों के आधार पर उन्होंने अपनी बात समझाने की कोशिश की। दोनों क्षेत्र बिलकुल आसपास हैं और पूरे उत्तर प्रदेश के अनुसूचित जातियों के नेताओं के बारे में आम आदमी की राय को समझने के लिये एक ही इलाके के दो विधानसभा क्षेत्रों को क्यों चुना गया, यह बात श्रोताओं में मौजूद बहुत लोगों की समझ में नहीं आयी। दोनों विधान सभा क्षेत्रों के बीच की दूरी करीब 50 किलोमीटर है। सर्वे के लिये सैम्पल चुनने में इस पर्चे में भी वही विसंगति थी जो सर्वशिक्षा अभियान वाले पर्चे में केवल सहारनपुर को चुनकर की गयी थी। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य के बारे में कोई भी अनुमान निकालने के पहले यह देखना ज़रूरी होता है उसके पूर्वी, मध्य और पश्चिमी भाग की राजनीतिक भौगोलिक हालात बिलकुल अलग अलग हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया, गोरखपुर आदि जिलों, मध्य उत्तर प्रदेश के कानपुर इटावा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मेरठ जिलों की राजनीतिक सामाजिक सच्चाई कई बार एक द्दूसरे के बिलकुल खिलाफ होती है लेकिन जब उन्होंने बताया कि कानपुर के किसी कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर साहेब ने उनके लिये आँकड़ों का संकलन करवाया था, तब बात समझ में आ गयी कि अपनी सुविधा के हिसाब से अपने आसपास के इलाकों का सर्वे करवा कर इन प्रोफ़ेसर साहेब ने काम निपटा दिया था। फ्रान्सेसका की शोध पद्धति और आँकड़ों की तुलना का तरीका बहुत ही अच्छा था लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीतिक सच्चाई से वाकिफ कोई भी व्यक्ति बता देगा कि दलित राजनेताओं के बारे में उन्होंने जो भी निष्कर्ष निकाले, वे किसी भी हालात में विश्वसनीय नहीं हैं।
सेमीनार को बंगाल और उत्तर प्रदेश से कुछ हद तक बाहर ले जाने का काम बर्गेन विश्वविद्यालय के डॉ दाग एरिक बर्ग ने किया उन्होंने दलितों की पहचान के रूप में डॉ. अम्बेडकर की आवधारणा पर चर्चा की। हालाँकि उनका भी फोकस उत्तर प्रदेश ही था लेकिन डॉ आम्बेडकर के व्यक्तित्व के अखिल भारतीय स्वरूप के कारण उनके चर्चा का दायरा बढ़ गया। पर्चे में डॉ बर्ग ने तर्क दिया कि दलितों के सामाजिक राजनीतिक बदलाव में डॉ. अम्बेडकर की अन्य भूमिकाओं के अलावा कानून को प्रभावित कर सकने वाली भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है।
इसके बाद फिर बंगाल हावी हो गया बाद के चारों पर्चे बंगाल में दलितों के इतिहास भूगोल से सम्बंधित थे मृतशिल्पियों के बारे में ओस्लो विश्वविद्यालय की मौमिता सेन का परचा बहुत सारी सूचनाओं से भरा हुआ था। कृष्णानगर और कुमारटोली के के कुम्हारों के काम में हुये बदलाव को उन्होंने बहुत ही कुशलता से स्पष्ट किया इन क्षेत्रों के कुम्भकारों ने दैवी प्रतिमा से शुरू करके महान विभूतियों की मूर्तियाँ बनाने के लिये जो यात्रा की है, मौमिता ने उसको राजनीतिक सन्दर्भों के हवाले से समझाने की सफलता पूर्वक कोशिश की। उन्होंने इस विषय पर कला इतिहासकार, गीता कपूर की किताब का भी हवाला लिया और यह साबित करने की कोशिश की कि किसी खास किस्म के फोटो के सहारे इन मृतशिल्पियों ने कैसे बहुत सारे नेताओं की मूर्तिनुमा पहचान को स्थापित किया है। कैसे पूरी दुनिया में लगभग एक ही तरह के गांधी, टैगोर और सुभाष बोस देखे जा सकते हैं। बहुत ही दिलचस्प विषय को बहुत ही रुचि पूर्वक प्रस्तुत करने के लिए मौमिता के प्रस्तुतीकरण को सबने पसन्द किया लेकिन संचालक महोदय ने बार-बार इशारा करके वार्ता को बीस मिनट में खत्म करने के लिये लगातार दबाव बनाये रखा।
कोलकाता के सेंट जेवियर्स कालेज की शरबनी बंद्योपाध्याय ने बंगाल में दलित राजनीतिक अधिकारों की राजनीतिक व्याख्या करने की कोशिश की उनकी खोज का दायरा भी ख़ासा बड़ा था और उन्होंने बहुत ही कुशलतापूर्वक अपने विषय का निर्वाह किया। 19वीं और 20वीं शताब्दी के उपलब्ध दस्तावेजों के सहारे उन्होंने साबित करने की कोशिश की कि उस दौर में बंगाल में जाति एक प्रमुख संस्था हुआ करती थी लेकिन आज़ादी के बाद जाति हाइबरनेशन में चली गयी लगती है। उन्होंने 1922 में बंगीय जन संघ के गठन को केन्द्र बनाकर अपने तर्क को अकादमिक शक्ल देने का प्रयास किया। 1923 में भारत सेवाश्रम संघ का गठन भी एक महत्वपूर्ण घटना है जिसे दलित राजनीति पर एक प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है। इस बीच कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो गया। कम्युनिस्ट पार्टी कुछ दलित संगठनों के करीब तो आयी लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी मूल रूप से अपनी भद्रलोक पहचान से बाहर नहीं आ सकी।इस पर्चे में कम्युनिस्ट पार्टी की किसान सभा और भारत सेवाश्रम संघ के के हवाले से दलित राजनीति को मिलने वाली भद्रलोक की प्रतिक्रिया को समझने की कोशिश की गयी। यह पर्चा विद्वत्ता से परिपूर्ण था और पिछले दो वर्षों में दलितों की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होकर शरबनी ने बहुत ही वास्तविक धरातल पर बात को समझाया श्रोताओं ने इसे बहुत पसंद किया।
इसके बाद हैम्पशायर कालेज की उदिति सेन ने नामशूद्रों के हवाले से पश्चिम बंगाल में शरणार्थियों के गवर्नेंस के बारे में के परचा प्रस्तुत किया। बंगाल की दलित राजनीति पर उन्होंने अपनी बात कहने की कोशिश की लेकिन बात फीकी इसलिये पड़ गयी कि नामशूद्रों और राजबंशियो के बारे में सेमीनार के पहले ही सत्र में डॉ शेखर बंद्योपाध्याय का गम्भीर परचा पढ़ा जा चुका था। इसके अलावा उदिति सेन ने कुछ तथ्यों को उलट दिया था। उदाहरण के लिये उन्होंने कह दिया कि जोगेन मंडल को सरकार ने अंडमान भेजा था जबकि अंडमान पी आर ठाकुर गये थे। यह बात सुबह के सत्र में शेखर बंद्योपाध्याय के पर्चे में आ भी चुकी थी। बाद में उनको यह बताया भी गया तो उन्होंने यह कहकर अपनी रक्षा करने की कोशिश की, कि उन्होंने तो सुनी सुनायी बात को पर्चे में लिख दिया था। उम्मीद की जानी चाहिए कि बाद में वे तथ्यों को ठीक कर लेंगी।
अंतिम पर्चा मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ रिलीजस एण्ड एथनिक डाइवरसिटी के उदय चंद्रा का था। उन्होंने औपनिवेशिक बंगाल में कोल आदिवासियों के कुली बनने की प्रक्रिया का ऐतिहासिक विश्लेषण किया दिलचस्प जानकारी से भरपूर उनका पर्चा दलित राजनीति के शोधार्थियों के लिए इतिहास के सन्दर्भ बिन्दु के रूप में उपयोगी साबित होगा।


