कुछ राज्यों के अपने अपने वाक्य होते हैं। इन वाक्यों का भी कारोबारीकरण कर दिया गया है। बहुत सारी वजहों से यह वाक्य आम तौर सुनाई नहीं देते। अब सोचिए किसने सोचा होगा कहना कि आरा जिला घर बा, साठ बीघा में पोदीना – काहे के डर बा। अब देखिए न काहे को आप कीचाइन करते हैं जी, हम पटना ट्रैफिक से निकल रहे हैं। अब तो ई बात भी गया कि कहीं पर रिक्शा रुकवा कर मार लिए मूत न। अब हाथ में पकड़ कर घूमते रहिए, मौका मिले तो परदूसन फैला दीजिए। यहां मुतले के खातिर जिंदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा।

होना ही चाहिए कि आप किसकी आंख से पटना देख रहे हैं, तो बार बार आपको लगेगा कि मुतवास इस शहर में नहीँ आता। मूतने की जितनी जगत प्रसिद्ध जगहें पटना में पहले हुआ करतीं थीं, वह अब सिमटती जा रही हैं। फिर भी पटना रेल स्टेशन पर टिराई मारेंगे तो सफलता की बारह आने गारंटी है। कभी तो पटना टेशन ही मूत की गंध से सुवासित रहता था। अभी भी रहता है – थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।

एक और खास जगह थी, टेकनिकली भारत सरकार की हद के बाहर, बिहार सरकार की उन जमीनों में जिनका कोई मालिक नहीं होता। यह सबै भूमि गोपाल होता है। यहां एक गुमटीनुमा दारू की दुकान थी। दुकान से दारू – शारू लीजिए, बगल में बास – लकड़ी का बना एंटिक पीस का बापनुमा फर्नीचर होता था। गटागट मारिए – मूत लीजिए और श्रद्धा भक्ति हो तो उस दिन के सचिवालय के गोलमाल की गोलमाल कर दीजिए। यहां बीयर – मूत – दारू की गंध वाला मूत ही तो जिंदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा। कि कैसे किरानी बाबू ने हमेशा कि तरह आज भी अफसर बाबू को सीखा पढ़ा दिया।

तो साहबान – कदरदान – यह होता था वह पटना। आज की तरह नहीं कि उसे सुंदर बनाने की बड़ी कोशिश हो रही है। जहां मरीन नहीं हो पर मरीन ड्राइव बनाया जाने की बात होती है। और क्या क्या न होता है। चलो कुछ तो होता है। मामला मूतवास का बड़ा अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। वैसे भी पटना अब राष्ट्र का रहा कहां। राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय वह होते हैं जो इसा काल के बाद होते हैं। यह एक ऐसा राष्ट्र होता है जो एक दूसरे की लेने के पीछे पड़े रहते हैं। सबका अपना अपना खेल है, हमें तो एक राष्ट्रवादी विदेशी ने बताया कि हम शीघ्र ही बिहार का स्वमूत्र निर्यात करने वाले हैं। बिहार ही एक ऐसा राज्य है जिसके स्वमूत्र में संतुलन है। तो पटनावासियों किसी गोरी चमड़ी को देख कर उन्हें अपना स्वमूत्र सस्ते में न दे दीजिएगा।

स्टेशन से निकल कर आप गांधी मैदान तक जाएं। अहा! बुद्ध स्मृति पार्क। सुंदर। तीन से पांच के बीच ही जा सकते हैं अंदर। बाहर गाड़ियों की पार्किंग है। बड़े भले लोग हैं ये गाड़ी वाले। आपको प्यार से समझा भी सकते हैं कि गाड़ी के ओट में जब गाछी हो जाता है तो आपको तो धार ही मारना है। मार लीजिए। हम तो न जाने कब से मारते रहे हैं। पर कभी-कभी जवानी में मेरा बुढ़ापा प्रेम जग जाता है कि माता राम कैसे निपटेगी। क्या करें जिदगी झंड बा, फिर भी घमंड बा।

जुगनू शारदेय

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. फिलहाल सलाहकार संपादक ( हिंदी ) - दानिश बुक्स –