सुनील दत्ता
संघर्ष ही जीवन है जीवन के कंकरीले- पथरीले रास्तों पर चलकर जो व्यक्ति प्रसिद्दी की बुलन्दियों तक जाता है वो इतिहास के पन्नों पर मील का पत्थर कहलाता है। ऐसे ही मील के पत्थर साबित हुए 29 सितम्बर 1933 को बम्बई में जन्म हुआ हास्य अभिनेता महमूद का। महमूद के माता पिता दोनों एक अच्छे अभिनेता और नृत्य में पारंगत थे। इनकी एक बहन मीनू मुमताज एक प्रतिभाशाली अभिनेत्री होने के साथ ही बहुत अच्छी नृत्यांगना थी। महमूद साहब बचपन से ही बहुत शरारतें किया करते थे। इनके पिता मुमताज अली बाम्बे टाकिज स्टूडियो में काम किया करते थे। 1942 में जब अशोक कुमार की फिल्म ‘किस्मत’ बन रही थी उसमें अशोक कुमार के बचपन के किरदार को निभाने के लिए बाल कलाकार की खोज हो रही थी अचानक उनको बाम्बे टाकिज के गेट के सामने एक शैतान और शरारती बच्चा नजर आया। अपनी शैतानियत करते उन्होंने तुरंत महमूद की स्वीकृति दे दी। इस तरह महमूद को फिल्म “किस्मत” में बाल कलाकार के रूप में फिल्म किस्मत में अभिनय करने का मौका हासिल हुआ। घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण महमूद साहब मलाड और विरार के बीच चलने वाली लोकल ट्रेनों में अन्डे व टाफियां बेचा करते थे। इसके साथ ही उन्होंने कार चलाना सीख लिया। इसके बाद वो निर्माता ज्ञान मुखर्जी के यहाँ बतौर ड्राइवर काम करने लगे कयोंकि इसी बहाने उन्हें मालिक के साथ हर दिन स्टूडियो जाने का मौका मिल जाया करता था, जहां वह कलाकारों को करीब से देखा करते। इसके बाद महमूद गोपाल सिंह नेपाली, भरत व्यास, राजा मेहदी अली खान और निर्माता पी एल संतोषी के यहाँ भी ड्राइवर रहे। महमूद के किस्मत का सितारा तब चमका जब फिल्म “नादाँन” की शूटिंग के दौरान अभिनेत्री मधुबाला के सामने एक जूनियर कलाकार लगातार दस रीटेक के बाद भी अपना संवाद नहीं बोल पाया। फिल्म के निर्देशक हीरा सिंह ने यह संवाद महमूद को बोलने के लिए दिया, जिसे उन्होंने बिना रीटेक एक बार में ही ओके कर दिया। इस फिल्म में महमूद को बतौर तीन सौ रूपये मिले, जबकि बतौर ड्राइवर महमूद को महीने में मात्र 75 रूपये ही मिला करते थे। इसके बाद महमूद ने ड्राइवरी का काम छोड़ दिया और अपना नाम जूनियर आर्टिस्ट एसोसियशन में दर्ज करा दिया और फिल्मों में काम पाने के लिए कड़ा संघर्ष करना शुरू किया। इसके बाद बतौर जूनियर आर्टिस्ट महमूद ने “दो बीघा जमीन”, “जागृति”, “सी आई डी”, “प्यासा” जैसी फिल्मों में अभिनय किये। इसी दौरान महमूद को ए बी एम के बैनर तले बनने वाली फिल्म “मिस मेरी” के लिए स्क्रीन टेस्ट दिया, लेकिन ए बी एम बैनर ने महमूद को स्क्रीन टेस्ट में फेल कर दिया और कहा कि महमूद न अभिनय कर सकते हैं, न ही अभिनेता बनने की क्षमता है उनमें। लेकिन आखिर में ए बी एम को महमूद के बारे में अपनी राय बदलनी पड़ी और उन्होंने महमूद को लेकर बतौर अभिनेता “मैं सुन्दर हूँ” का निर्माण भी किया। इसी दौरान महमूद अपने रिश्तेदार कमाल अमरोही के पास फिल्म में काम माँगने गये तो उन्होंने महमूद को यहाँ तक कह दिया कि “आप अभिनेता मुमताज अली के बेटे हैं, जरूरी नहीं है कि एक अभिनेता का पुत्र भी अभिनेता बने। आपके पास फिल्मो में अभिनय करने की योग्यता नहीं है। आप चाहें तो मुझसे कुछ पैसा लेकर कोई अलग व्यवसाय कर सकते हैं। इस तरह की बातों को सुनकर कोई भी हताश, निराश हो सकता है पर महमूद ने इस बात को चुनौती के रूप में स्वीकार किया और नये जोशो-खरोश के साथ काम करना जारी रक्खा। इसी दौरान महमूद को बी आर चोपड़ा की कैम्प से बुलावा आया और महमूद को फिल्म “एक ही रास्ता” के लिए काम मिल गया। महमूद ने महसूस किया कि अचानक इतने बड़े बैनर की फिल्म में काम मिलना महज एक संयोग नहीं है इसमें जरूर कोई बात है। बाद में जब उन्हें मालुम हुआ कि उन्हें अपनी पत्नी की बहन मीना कुमारी के प्रयास से यह फिल्म हासिल हुई है तो उन्होंने फिल्म “एक ही रास्ता” में काम करने से यह कहकर मना कर दिया कि वह फिल्म इण्डस्ट्री में अपने बलबूते अभिनेता बनना चाहते हैं न कि किसी की सिफारिश पर। यह उनका स्वाभिमान बोल रहा था। इसी दौरान महमूद ने अपने संघर्ष की गति को और बढ़ा दिया, जल्द ही महमूद की मेहनत रंग लायी और साल 1958 में प्रदर्शित फिल्म “परवरिश” में उन्हें एक अच्छी भूमिका मिल गयी। इस फिल्म में महमूद ने राजकपूर के भाई की भूमिका निभायी। इसके बाद उन्हें एल वी प्रसाद की फिल्म “छोटी बहन” में काम करने का अवसर मिला जो उनके सिने- कैरियर के लिए अहम् साबित हुई। फिल्म छोटी बहन में बतौर महमूद को 6000 रूपये मिले। फिल्म की सफलता के बाद बतौर अभिनेता महमूद फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे। वर्ष 1961 में महमूद को एम् वी प्रसाद की फिल्म “ससुराल” में काम करने का अवसर मिला। इस फिल्म की सफलता के बाद बतौर हास्य अभिनेता महमूद फिल्म इण्डस्ट्रीज में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे। फिल्म ससुराल में उनकी जोड़ी अभिनेत्री शोभा खोटे के साथ काफी पसंद की गयी। इसके बाद महमूद ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। उस दौरान फिल्मों को बनाते वक्त निर्देशक यह ध्यान में रखते थे। महमूद के लिए अलग से संवाद लिखे जाते। महमूद के बिना फिल्म अधूरी सी रहती। ऐसे मे अपने चरित्र में आये एक रूपता से बचने के लिए महमूद ने भिन्न- भिन्न तरह के चरित्रों में अभिनय किया। इसी क्रम में फिल्म पड़ोसन का नाम आता है, इसमें इन्होंने नकारात्मक भूमिका का निर्वहन किया और दर्शकों से वाहवाही लूटी।

महमूद साहब जिनते बड़े हास्य कलाकार थे उतने ही अच्छे इंसान थे। एक समय जब आज के सुपर स्टार अमिताभ बच्चन अपने स्ट्रगल के दिनों में थे उस वक्त वो महमूद के यहाँ ही रहते थे और उन्हें महमूद ने ही बतौर स्टार “बाम्बे टू गोवा” में हीरो का रोल दिया था। वर्ष 1970 में फिल्म “हमजोली” में महमूद के अभिनय के विविध रूपों को दर्शको को देखने को मिला। इस फिल्म में महमूद ने तिहरी भूमिका निभाई और दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। महमूद ने अपनी फिल्म “छोटे नबाव” में संगीतकार राहुल देव बर्मन को बतौर संगीतकार स्थापित भी किया। महमूद ने अपनी आवाज का जादू भी बिखेरा।

महमूद संघर्ष के दिनों में रहने वाले अमिताभ बच्चन के बारे में कहते हैं- जब मेरा बाईपास सर्जरी हो रहा था उसी वक्त हरिबंश राय बच्चन भी बीच- कैंडी अस्पताल में थे अमिताभ आते थे पर उन्होंने यह गवारा न समझा की जिसने उनके संघर्ष के दिनों में साथ दिया उसे भी आकर एक बार मिल ले।

महमूद को अपने सिने कैरियर में तीन बार फिल्म फेयर पुरूस्कार से नवाजा गया। अपने पांच दशक से लम्बे सिने- कैरियर में करीब तीन सौ फिल्मो में अपने अभिनय से दर्शकों को हँसाया और कुँवारा बाप फिल्म बनाकर दर्शकों को रोने पर भी मजबूर किया।

23 जुलाई 2004 को महमूद इस दुनिया से रुखसत हो लिए यह कहते हुए। "चंदा ओ चंदा किसने चुरायी तेरी मेरी निंदिया जागी सारी रैना तेरे मेरे नयना”

सुनील दत्ता। लेखक संस्कृतिकर्मी, चित्रकार व पत्रकार हैं। हस्तक्षेप टीम का हिस्सा हैं।