लेखक ऐसे भी होते हैं
भारत शर्मा

यह सवाल भाजपा और संघ परिवार के लिए परेशानी का कारण बना हुआ है, कि लेखक ऐसे भी होते हैं ? उनके लिए लेखक का अर्थ दरबारी कवियों से होता है, जो सत्ता के साथ-साथ अपना रुख भी बदलते रहते हैं। परेशानी उनकी नहीं, उस विचारधारा की है, जिसमें वे पले-बढ़े हैं। वे दंत कथाओं में जीते हैं, पौराणिक कथाओं का सार्थक मानने में उनका जीवन बीता है। बचपन से राजाओं के युद्ध की कहानियां सुनी हैं और इन गौरवगाथाओं को लिखने वाले कवियों का नाम पढ़ा है। वे यही जानते हैं, लेखक वही होता है, जो राजाओं की गौरवगाथा लिखता है। वीर रस वे उसे मानते हैं, जो सैनिकों में दुश्मन के खिलाफ जोश भर दे। इसीलिए जब वीर रस के कवि कश्मीर से झंडा उठाकर लाहौर में गाढ़कर आते हैं, तो वे खड़े होकर जय-जय श्रीराम के नारे लगाने लगते हैं।
असल में साहित्यकार कभी उनकी रडार पर रहे ही नहीं। वे जानते थे, कि देश की सत्ता में आना है, तो पहले गांधी को खत्म करना होगा, फिर कम्युनिस्टों को और अंत में नेहरू-गांधी परिवार को। कांग्रेसियों और समाजवादियों की क्षमताओं पर तो उन्हें पहले से ही पूरा भरोसा था। इन क्षमताओं को हम आज देख भी रहे हैं, प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई भाजपा में लगभग सवा सौ सांसद वे हैं, जो कभी कांग्रेस में हुआ करते थे। कांग्रेस के नेता न होते, तो शायद हरियाणा में खट्टर साहब मुख्यमंत्री न होते। समाजवादियों के हाल तो यह हैं, कि धर्मनिरपेक्षता का दम भरने वाले मुलायम सिहं आजकल बिहार में भाजपा का सरकार बनाने की सार्वजनिक घोषणा करने में लगे हैं।
बहरहाल वे अपने मकसद में कुछ हद तक कामयाब भी हो गए। गांधी की हत्या से लेकर उनके चरित्र की हत्या तक के सारे उपक्रम कर दिए गए हैं। जिन युवाओं ने गांधी का लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा है, वे भी आजादी की लडाई में गांधी की भूमिका पर सवाल खड़े करते हुए नजर आ जाएंगे।
मजेदार बात यह है, कि यही युवा आजादी की लड़ाई में संघ की भूमिका पर कभी भी सवाल खड़ा करते नजर नहीं आते, जो आजादी की लड़ाई में एक दिन भी शरीक नहीं हुए, जब भी संघ परिवार के लोग आजादी के दीवानों को याद करते हैं, तो शहीद भी उन्हें दूसरों से उधार लेने पड़ते हैं। यह सब संघ के मौखिक ज्ञान का कमाल है, उसे हर वक्त ऐसे ही युवाओं की तलाश होती है, जो पढ़ने में कम अफवाहों में ज्यादा भरोसा करते हैं।
आज युवाओं का एक वर्ग, जो खुद को देशभक्त कहता है, सोशल मीडिया पर गांधी को कम गोड़से को अधिक महिमा मंडित करता नजर आ जाता है। संघ और धर्म में तर्क का स्थान नहीं होता, इसीलिए इनके साथ जुड़े लोग तर्क नहीं करते। पुराना किस्सा है, आजादी के आंदोलन के दौर में एक बार हेडगेवार ने कुछ युवाओं से कहा, कि यह देश हिंदू राष्ट्र बनना चाहिए, कुछ युवाओं ने पूछा, यह कैसे संभव है, तब हेडगेवार ने कहा, ऐसा मैं कह रहा हूं, इसलिए। तब से संघ में “ ऐसा मैं कह रहा हूं” ही चल रहा है और सामने खड़ी भीड़ चुपचाप उसे मान लेती है। खैर दूसरे दौर में उन्होंने कम्युनिस्टों को अप्रासंगिक किया। एक समय था, जब युवा खुद को कम्युनिस्ट कहने में गर्व महसूस करता था, आज शरमाता नजर आता है। वह यह तर्क करेगा, कि यह विदेशी विचारधारा है। यह अलग बात है, जब शोषण देशी-विदेशी नहीं होता, तो उसके खिलाफ लड़ाई विदेशी कैसे हो सकती है? यहां फिर “ ऐसा मैं कह रहा हूं” फार्मूला काम करता है। तीसरे दौर में उन्होंने नेहरू गांधी परिवार पर व्यक्तिगत हमले शुरु किए। जिसमें नेहरू के पूर्वजों को मुसलमान तक बताने का सिलसिला चालू है, सोनिया और राहुल गांधी पर व्यक्तिगत हमले तो रोज ही चल रहे हैं।
बहरहाल उन्हें यह नहीं पता था, कि साहित्यकार ऐसे होते हैं, जो उनके सारे अभियान को पलीता लगा देंगे, अन्यथा जो व्यक्तिगत हमले आज शुरु किए हैं, वे काफी पहले कर दिए गए होते। आज जो तर्क साहित्यकारों के विरोध को लेकर दिए जा रहे हैं, वे इस आधार पर संघ प्रायोजित कहे जा सकते हैं, क्योंकि अरुण जेटली से लेकर भाजपा के प्रवक्ताओं और सोशल मीडिया पर बैठे किसी चपड़गंजू तक के तर्क एक से हैं। वे विरोध करने वाले सभी साहित्यकारों को दरबारी, कांग्रेस और वामपंथियों का पिट्ठू, मोदी सरकार के बदनाम करने की साजिश रचने वाले, पुरस्कार लेने के लिए सेटिंग करने वाले जैसी उपमाओं से विभूषित कर रहे हैं, साथ ही देश की अन्य घटनाओं का भी जिक्र कर रहे हैं, कि उस समय क्यों पुरस्कार वापस क्यों नहीं किया। हालांकि कई साहित्यकारों ने आपातकाल से लेकर सिख दंगों तक के दौरान पुरस्कार वापस करने वाले साहित्यकारों के नाम बता दिए, साथ ही उन साहित्यकारों की जानकारी भी दी, जिन्होंने बंगाल की वाम सरकार का भी विरोध किया। पर इससे क्या? यहां फिर से “ ऐसा मैं कह रहा हूं” का फार्मूला काम करता है।
संघ की परेशानी यह भी है, कि तमाम प्रयासों के बाद भी वे साहित्य पर कब्जा नहीं कर पाए। वे कवि सम्मेलनों में आने वाले कवियों को ही कवि माने बैठे थे, इसीलिए मंचों पर उन्होंने कब्जा काफी पहले से ही शुरु कर दिया था।

… और गंभीर कवि मंच से गायब हो गए।
राष्ट्रीयता के नाम पर हिंदुत्व भरने का काम इन कवियों ने खूब किया। आज हालत यह है, मंच पर दो तरह के कवि मिलते हैं, एक चुटकुले सुनाने वाले, दूसरे पाकिस्तान को सबक सिखाने वाले। गंभीर कवि मंच से गायब हो गए। इन्हीं वीर रस के कवियों में एक कवि हुआ करते थे, ओम पाल सिंह निडर। फिरोजाबाद के थे, जब अडवानी ने राम मंदिर के लिए रथयात्रा निकाली थी, तो वे भी एक सारथी थे। “सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे” नारा उन्हीं का दिया हुआ था। एक बार जलेसर से सांसद भी रहे भाजपा के टिकट पर। इस रथयात्रा के एक सारथी आज देश का प्रधानमंत्री हैं., दूसरे सारथी निडर सपा में चले गए। एक बार मिले, तो भावुक होकर बोले, तुम भले याद रख लो वो नारा मेरा था, भाजपा तो याद नहीं रखती।
लोगों को अपने हितों के लिए इस्तेमाल करना और भूल जाना संघ परिवार की आदत है, जब रथी को भूल गए, तो सारथी की क्या औकात? वे तो ऐसे ही कवियों को जानते थे, उन्हें क्या पता लेखक ऐसे भी होते हैं। वैसे यह बात भी सच है, यह हमें भी नहीं पता था, कि लेखक ऐसे भी होते हैं, जब चारों ओर अंधकार नजर आने लगे, तो वे रोशनी की किरण दिखाएं और पूरी सरकार को हिला दें।
भारत शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।