जीते तो सिर्फ पवार हैं !
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दक्षिणपंथी राजनीति का धमाल
सुन्दर लोहिया
महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव देश में उभर रही दक्षिणपंथी राजनीति के चरित्र को उजागर कर रही है। इस राजनीति का संचालन इस राजनीतिक सोच के कई रंग एक साथ गुत्थमगुत्था हैं। धुर दक्षिणपंथ के दो रंग शिवसेना और भाजपा के रूप में और दूसरी किस्म के दो रंग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और सोनिया गान्धी की कांग्रेस के रूप में शामिल है। इनके अलावा दक्षिणपंथी राजनीति की धुरी जिन जातीय अस्मिता आधारित राजनीतिक संगठनों के इर्दगिर्द भी घूमती रहती है उनका प्रतिनिधित्त्व इस राजनीतिक धमाल में दिख रहा है। इसलिए इस चुनाव में दक्षिणपंथी राजनीति की रणनीतिक और व्यक्तिकेन्द्रित चालाकियों की शतरंजी शह मात के खेल के तौर पर देखने पर आसानी से समझा जा सकता है। क्योंकि इस चुनाव में वामपंथ का कहीं भी जि़क्र नहीं है इसलिए भी इसे केवल दक्षिणपंथी राजनीति का अखाड़ा मानना सही प्रतीत होता है। इसमें शामिल पार्टियों की राजनीतिक विचारधाराओं के अंतर्विराध और उनकी कथनी और करनी की दूरियां साफ तौर पर सामने आ गई हैं। शिवसेना संसदीय राजनीति में शामिल होने से पहिले ऐसे संगठन के तौर पर काम कर रही थी जो महाराष्ट्र जैसे औद्योगिक और व्यापारिक केन्द्र में धरतीपुत्रों के आर्थिक शोषण के विरोध की आड़ में अन्य प्रान्तों से आये हुए कामगारों को खदेड़ने में महारत हासिल कर चुकी थी। लेकिन इस काम में इस संगठन के निशाने पर केवल वे लोग रहे जो रोटी रोज़ी कमाने के लिए अपनी जन्मभूमि छोड़ कर तत्कालीन बम्बई पंहुचते रहे हैं। उन लोगों को जिन्होंने वहां कारखाने लगाये वे छू भी नहीं रहे थे। कुछ लोगों का आरोप है कि शिवसेना कारखानेदारों से रंगदारी वसूल करती थी इसलिए शिवसेना का मज़दूर विरोधी चरित्र उसकी विचारधारा का मूल आधार बना हुआ है।
महाराष्ट्र आरएसएस की जन्मभूमि है और मुगल साम्राज्य का विरोध करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराष्ट्र की अस्मिता के प्रतीक हैं जिन्हें अपनाकर शिवसेना ने जनमानस पर अपना सिक्का जमाया और क्षेत्रीयतावादी राजनीति की डगर पर कदम बढ़ाने में सफलता हासिल की है। लेकिन एक औद्योगिक केन्द्र होने के नाते महाराष्ट्र के आर्थिक विकास में अन्य प्रान्तों से आये मज़दूरों के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती थी इसलिए दबंगई राजनीति के बावजूद शिवसेना महाराष्ट्र की राजनीति पर काबिज नहीं हो पाई। इस काम में उसने आरएसएस के सहयोग से संसदीय राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने की इच्छा के कारण भाजपा से गठजोड़ किया था।
यहां से इस दक्षिणपंथी राजनीति का दूसरा दौर शुरू होता है जब इस धड़े को महाराष्ट्र विधान सभा के चुनाव में अप्रत्याशित बहुमत प्राप्त करने के बाद सत्ता में हिस्सेदारी का सवाल पैदा हुआ। इस समय शिवसेना प्रदेश की राजनीति में अपने आप को भाजपा से सीनियर मानते हुए मांग करने लगी कि केन्द्र में भाजपा का शासन है महाराष्ट्र में मुख्यमन्त्री पद पर शिवसेना का अधिकार होना चाहिए। उसका यह भी दावा था कि महाराष्ट्र में भाजपा को महाराष्ट्र में पांव पसारने में शिवसेना ने मदद की है जिसे भाजपा को भूलना नहीं चाहिए। भाजपा पर इन दलीलों का कोई असर नहीं पड़ा क्योंकि उसे इस चुनाव में शिवसेना से ज़्यादा सीटों पर जीत हासिल हुई है और जैसा कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी बिना किसी गठबन्धन के सरकार बनाना चाहते हैं इसलिए सहयोगी दलों को उनकी औकात के मुताबिक पद देने के पक्ष में हैं इसलिए मुम्बई में केन्द्रीय नीति की उपेक्षा न करते हुए भाजपा ने शिवसेना के विरोध के बावजूद सरकार चलाने के मकसद से विश्वासमत प्राप्त करके शिवसेना को उसकी राजनीतिक हैसियत का एहसास करवा दिया है भले ही उसे अपने धुर विरोधी और भ्रष्ट घोषित नेकांपा से गुप्त सहयोग लेना पड़ा हो। यहीं से नरेन्द्र मोदी के भ्रष्टाचारमुक्त भारत के नारे की पोल खुल जाती है और यह नारा अपनी विश्वसनीयता भी खो देता है। भले ही उसे नेकांपा का समर्थन बिन मांगे मिल गया हो लेकिन इस पूरे प्रकरण में जीत सिर्फ नेकांपा के नेता शरद पवार के हाथ लगी है।


