बढ़ रहा है मोदीवादी आतंक का खौफ
शेष नारायण सिंह
अब देश पूरी तरह से चुनावी माहौल में है। हालाँकि अभी चुनाव की तारीखों की घोषणा नहीं हुयी है लेकिन यह बात साफ़ है कि मई तक लोक सभा चुनाव पूरी तरह सम्पन्न हो जायेंगे। इस बीच भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी की मीडिया प्रोफाइल बेहतर से बेहतरीन होती जा रही हैं। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक लगभग सभी टीवी चैनलों पर समाचारों और विश्लेषणों में अचानक मोदी की ओर झुकाव दिखने लगा है। कुछ विश्लेषणात्मक रिपोर्टों के अनुसार कई कॉर्पोरेट मालिकों ने अपने चैनलों को स्पष्ट रूप से निर्देश दिया है कि वे मोदी के विरोध से बचें और मोदी विरोधी विश्लेषकों और विशेषज्ञों को चर्चा में कम शामिल करें। देश की एक प्रमुख पत्रिका ने अपने एक लेख में लिखा है कि पिछले कुछ हफ़्तों में कम से कम पाँच प्रमुख संपादकों को तटस्थ रहने या मोदी विरोधी विचारों के कारण उनके पदों से हटा दिया गया है। यही नहीं टीवी चैनलों पर अचानक ऐसे विश्लेषकों और पर्यवेक्षकों की संख्या बढ़ गया है जो दक्षिणपंथी विचारधारा वाले हैं। गुजरात दंगों की पृष्ठभूमि में नरेंद्र मोदी अधिकांश अंग्रेजी मीडिया को शक शुबहे की नज़र से देखते रहे हैं। मीडिया के प्रति उनका रवैया बेहद अहंकारपूर्ण और एकतरफा रहा है। वह अभी तक पत्रकारों से बचते रहे हैं और साक्षात्कार केवल उसी पत्रकार को देते हैं जिसे वे चाहते हैं।
बीबीसी की यह रिपोर्ट सच्चाई को लगभग बयान कर देती है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यशैली से जो लोग वाकिफ हैं उनको मालूम है कि नरेंद्र मोदी का विरोध करके चैन से बैठ पाना कितना मुश्किल होता है। नरेंद्र मोदी हमेशा से ही उस तरह के मीडिया के पक्षधर रहे हैं जो उनकी बात को प्रमुखता से आगे रखे। शायद इसीलिये उनके समर्थकों में बहुत बड़ी संख्या ऐसे पत्रकारों की है जो उनकी बात को हर हाल में सही बताते हैं। यह ज़रूरी नहीं है कि उनका समर्थक होने के लिए पत्रकार आरएसएस की मूल विचारधारा से सहमत हो। बस उनकी शर्त यह होती है कि वह प्रधानमंत्री पद के भाजपा के दावेदार की जयजयकार करे। आजकल देखने में आता है कि ऐसे बहुत सारे लोग मोदी के भारी समर्थक हो गये हैं जो हमेशा से ही नरेंद्र मोदी और उनकी राजनीति के विरोधी रहे हैं। मीडिया के क्षेत्र में आजकल उनकी सबसे बड़ी समर्थक, मधु किश्वर कभी नरेंद्र मोदी की बहुत बड़ी विरोधी हुआ करती थीं। इसी तरह से एनजीओ क्षेत्र में भी नरेंद्र मोदी के समर्थकों की संख्या बढ़ रही है। जो लोग अभी भी नरेंद्र मोदी की राजनीति का विरोध कर रहे हैं उनके सामने यह खतरा बना हुआ है कि वे पता नहीं कब नरेंद्र मोदी की राजनीतिक शैली के विरोध की मुश्किलों का सामना करने के लिये मजबूर हो जायें।
2002 के गुजरात जनसंहार के बाद वहाँ बहुत बड़ी संख्या में एनजीओ सक्रिय हो गये थे। अब बहुत कम बचे हैं। मुसलमानों की मदद कर रहे एनजीओ की संख्या अब बहुत कम हो गयी है, धीरे-धीरे सब को निष्क्रिय कर दिया गया है। तीस्ता सीतलवाड़ और शबनम हाशमी जैसे कुछ लोग अभी भी अपना काम कर रहे हैं लेकिन उनके खिलाफ भी हर तरह के काम चल रहे हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि नरेंद्र मोदी खुद किसी भी ऐसे काम में सीधे तौर पर शामिल नहीं हैं। जो कुछ भी हो रहा है वह नियम कानून के हिसाब से हो रहा है। गुजरात में नरेंद्र मोदी का विरोध करने वालों का कभी स्वागत नहीं किया गया। जो लोग समझाने- बुझाने से नहीं मानते उनको कायदे कानून के हिसाब से ठीक कर दिया जाता है। ऐसे ही एक व्यक्ति शंकर थे जो आंध्र प्रदेश से आकर गुजरात में काम करते थे। उनको समझाया बुझाया गया लेकिन नहीं माने। आखीर में मई 2010 में उनको पकड़ लिया गया। उनके साथ उनकी पत्नी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। तब गुजरात पुलिस में डी जी वंजारा का जलवा हुआ करता था। अब तो वे नरेंद्र मोदी के खास साथी और तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह के खिलाफ हो गये हैं। जब शंकर को पकड़ा गया तो पुलिस की कहानी में बताया गया कि वे और उनकी पत्नी, दोनों नक्सलवादी थे और उनसे राज्य के अमन चैन को ख़तरा था। गुजरात में साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो चंद आवाजें बच गयी हैं, शंकर और उनकी पत्नी भी उसी में शामिल थे। विरोधियों को परेशान करने की सरकारी नीति के खिलाफ वे विरोध कर रहे थे और लोगों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे थे। उनकी पत्नी, हंसाबेन भी इला भट के संगठन “सेवा“ में काम करती थीं, वे गुजराती मूल की थीं लेकिन उनको गिरफ्तार करते वक़्त पुलिस ने जो कहानी दी थी, उसके अनुसार वे अपने पति के साथ आंध्र प्रदेश से ही आई थीं और वहीं से नक्सलवाद की ट्रेनिंग लेकर आई थीं। ज़ाहिर है पुलिस ने सिविल सोसाइटी के इन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने के पहले होम वर्क नहीं किया था। इसके पहले दांग जिले के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता, अविनाश कुलकर्णी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था। किसी को कुछ पता नहीं कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन वे बहुत दिनों तक जेल में रहे। बाद में ठीक होने पर छोड़ दिए गए।
गुजरात में सक्रिय सभी मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को चुप कराने की गुजरात पुलिस की नीति पर काम बहुत पहले शुरू हो चुका था जो अब तक जारी है। वहाँ किसी को भी नक्सलवादी बता कर पकड़ लिया जाता है। नक्सलवादी बता कर किसी को पकड़ लेना बहुत आसान होता है क्योंकि किसी भी पढ़े लिखे आदमी के घर में मार्क्सवाद की एकाध किताब तो मिल ही जाती है और गुजरात की पुलिस वालों के लिये इतना ही काफी है। वैसे भी मुसलमानों को पूरी तरह से चुप करा देने के बाद, राज्य में मोदी का विरोध करने वाले कुछ मानवाधिकार संगठन ही बचे हैं। इस सन्दर्भ में अहमदाबाद में जारी एक बयान में मानवाधिकार संस्था, दर्शन के निदेशक हीरेन गाँधी का एक बयान महत्वपूर्ण है, उन्होंने बयान में कहा है कि 'गुजरात सरकार और उसकी पुलिस विरोध की हर आवाज़ को कुचल देने के उद्देश्य से मानवाधिकार संगठनों, दलितों के हितों की रक्षा के लिये काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी के अन्य कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी बताकर पकड़ रही है।'
मुसलमानों को शांत कराने के लिये गुजरात सरकार ने बहुत सिस्टम से काम किया। अब तो गुजरात राज्य के नरेंद्र मोदी का विरोध करने वाले मुसलमानों की संख्या बहुत कम हो गयी है। नगरपालिका चुनावों में नरेंद्र मोदी की पार्टी से बड़ी संख्या में मुसलमान जीते हैं। गुजरात के कई बड़े शहरों में जाने के बाद अजीब कहानी सामने आयी। शुरू में तो लगा कि गुजरात में अब मुसलमानों में कोई अशांति नहीं है, सब अमन चैन से हैं। गुजरात के कई मुसलमानों से सूरत और वड़ोदरा में बात करने का मौक़ा लगा। सब ने बताया कि अब बिलकुल शान्ति है, कहीं किसी तरह के दंगे की कोई आशंका नहीं है। उन लोगों का कहना था कि शान्ति के माहौल में कारोबार भी ठीक तरह से होता है और आर्थिक सुरक्षा के बाद ही बाकी सुरक्षा आती है। यह तस्वीर उस तस्वीर से लगा थी जो दिल्ली और मुंबई में रहकर, सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात करके दिमाग में बनी हुयी थी। बाद में पता चला कि जो कुछ मैं सुन रहा था वह सच्चाई नहीं थी। वही लोग जो ग्रुप में अच्छी अच्छी बातें कर रहे थे, जब अलग से मिले तो बताया कि हालात बहुत खराब हैं। गुजरात के शहरों के ज़्यादातर मुहल्लों में पुलिस ने कुछ मुसलमानों को मुखबिर बना रखा है, पता नहीं चलता कि कौन मुखबिर है और कौन नहीं है। अगर पुलिस या सरकार के खिलाफ कहीं कुछ कह दिया गया तो अगले ही दिन पुलिस का अत्याचार शुरू हो जाता है। यह काम पिछले 12 वर्षों से चल रहा है। गोधरा में हुये ट्रेन हादसे के बहाने मुसलमानों का संहार इसी रणनीति का हिस्सा था। उसके बाद मुसलमानों को फर्जी इनकाउंटर में मारा गया, इशरत जहां और शोहराबुद्दीन की हत्या इस योजना का उदाहरण है। उसके बाद मुस्लिम बस्तियों में उन लड़कों को पकड़ लिया जाता था जिनके ऊपर कभी कोई मामूली आपराधिक मामला दर्ज किया गया हो। पाकेटमारी, दफा 151, चोरी आदि अपराधों के रिकार्ड वाले लोगों को पुलिस वाले पकड़ कर ले जाते थे, उन्हें गिरफ्तार नहीं दिखाते थे, किसी प्राइवेट फार्म हाउस में ले जा कर प्रताड़ित करते थे और अपंग बनाकर उनके मुहल्लों में छोड़ देते थे। पड़ोसियों में दहशत फैल जाती थी और मुसलमानों को चुप रहने के लिये बहाना मिल जाता था। लोग कहते थे कि हमारा बच्चा तो कभी किसी केस में पकड़ा नहीं गया इसलिए उसे कोई ख़तरा नहीं था। ज़ाहिर है इन लोगों ने अपने पड़ोसियों की मदद नहीं की।.इसके बाद पुलिस ने अपने खेल का नया चरण शुरू किया। इस चरण में मुस्लिम मुहल्लों से उन लड़कों को पकड़ा जाता था जिनके खिलाफ कभी कोई मामला न दर्ज किया गया हो। उनको भी उसी तरह से प्रताड़ित करके छोड़ दिया जाता था। इस अभियान की सफलता के बाद राज्य के मुसलमानों में पूरी तरह से दहशत पैदा की जा सकी. और अब गुजरात का कोई मुसलमान मोदी या उनकी सरकार के खिलाफ नहीं बोलता। डर के मारे सभी नरेन्द्र मोदी की जय जयकार कर रहे हैं. अब राज्य में विरोध का स्वर कहीं नहीं है।
डर का जो खेल गुजरात में खेला गया था अब उसकी शुरुआत राष्ट्रीय स्तर भी होने की आशंका बतायी जा रही है। कॉरपोरेट घरानों के दबाव का इस्तेमाल करके पहले मीडिया को घेरने की कोशिश शुरू हो चुकी है। अगर यह सफल हुआ तो आगे की तरकीबें अपनाई जायेगीं, और अगर मीडिया में सफलता न मिली तो शायद कोई और तरीका अपनाया जाये।